एक लंबे समय से वाम राजनीति से जुड़ कर पत्रकारिता और साहित्य में सक्रिय कवि-पत्रकार अजय सिंह का दूसरा कविता संग्रह ‘यह स्मृति को बचाने का वक़्त है’ हाल–फिलहाल आया है। इसके पूर्व सन 2015 में उनका पहला कविता संग्रह ‘राष्ट्रपति भवन में सूअर’ अपने बेलौस शीर्षक और कंटेंट के कारण कविता की दुनिया में सीधा संवाद करने और आस–पास घट रही घटनाओं पर सटीक टिप्पणी करने को लेकर चर्चा में रहा है।
सात वर्ष के बाद यह दूसरा संग्रह आया है। इस संग्रह को भी गुलमोहर किताब ने प्रकाशित किया है। पूर्व की तरह यह संग्रह भी प्रकाशन के दृष्टिकोण से सधा हुआ है। आवरण से लेकर कविताओं के शब्द संयोजन और संपादन में प्रकाशक का सौंदर्य बोध और कविता के प्रति प्रतिबद्ध नजरिया स्पष्ट दिखता है। सुंदर, भव्य प्रोडक्शन को लेकर बड़े व व्यावसायिक प्रकाशकों के प्रति अधिकतर लेखकों का जो अतिरिक्त मोह, तिलस्म होता है, गुलमोहर किताब इस जमी–जमायी धारणा को अपनी प्रकाशित किताबों के कंटेंट और फॉर्म के स्तर पर निरंतर तोड़ते रहती है।
अजय सिंह की किताब पर बोलते हुए राजेश कुमार
अजय सिंह का यह कविता संग्रह हार्ड बाउंड के बजाय पेपरबैक रूप में है। इसके पीछे प्रकाशक का शायद यह सोचना होगा कि संग्रह को सरकारी संस्थानों की खरीद–बिक्री के मकड़जाल में न उलझा कर, सामान्य पाठकों तक पहुंचने का कोई सहज, सरल रास्ता अखितयार किया जाए। प्रकाशक ने इसका मूल्य भी इतना ही रखा है कि पाठकों को इसे खरीदने के लिये जेब अत्यधिक हल्की न करनी पड़े। मूल्य मात्र 150 रुपया है, 144 पेज के कविता संग्रह का।

जैसा कि इस संग्रह का शीर्षक है ‘यह स्मृति को बचाने का वक्त है’, लेकिन साहित्य में कविता को लेकर वर्तमान में जो परिदृश्य है, उसे देखने पर लगता है कि यह समय कविता को बचाने को लेकर है। अभी वर्तमान में देश में जिस तरह का संक्रमण काल आया है, इसने राजनीति, संस्कृति और साहित्य को मुश्किल में ला कर खड़ा कर दिया है। कोई अगर हालात पर कुछ बोलना चाहता है तो उसे हर तरफ से बेजुबान करने का प्रयास किया जा रहा है। उसके चारों तरफ ऐसी स्थितियां उत्पन्न कर दी जा रही हैं कि वह अकेला पाकर संकुचित, असहाय, विवश होकर अपने आप को आत्मकेंद्रित करता जाता है। जिसकी परिणति अंततः अलगाव की स्थिति में ला कर छोड़ने जैसी होती है।
संस्कृति और साहित्य का क्षेत्र कुछ अलग नहीं है। कविता की ही विधा लें तो यहां भी राजनीतिक–सामाजिक क्षेत्रों जैसा ही कुछ–कुछ मिलता–जुलता परिदृश्य देखने को मिलता है। समाज में जिस तरह के शब्द प्रचलन में आ रहे हैं, जिस तरह किसी धर्म, जाति के प्रति घृणा, नफरत, तिरस्कार के शब्द सुनने को मिल रहे हैं और उनकी अभिव्यक्ति को राजसत्ता द्वारा संरक्षण, समर्थन मुहय्या किया जा रहा है, उसकी तुलना में वर्तमान में कविता का यथार्थ कुछ साम्य नहीं लग रहा है।
हिंदी में इनदिनों जो पढ़ने को मिल रहा है, उससे यह प्रतीत हो रहा है कि लिखने वाले ने अपने अंदर एक सेल्फ सेंसर जैसा यंत्र फिट कर रखा है। या राजसत्ता द्वारा मस्तिष्क के किसी कोने में स्थापित कर दिया गया है जो निरंतर सक्रिय है। वो मस्तिष्क को संचालित तो करता ही है, दिशा निर्देश भी देता रहता है कि किधर जाना है, किधर नहीं जाना है। इसी का परिणाम देखने को ये मिलता है कि शब्द नुकीले बनने के बजाय थोथे, भोंथरे बन रहे हैं। इतने घुमावदार, कलात्मक हो जाते हैं कि ध्यान अमूर्तता में ही घूमने लगता है। या चिलचिलाती, आग बरसाती धूप में पहाड़ों पर गिरती बर्फ का ऐसा मंजर खड़ा कर देते हैं कि मन उधर ही अटका रहता है। दिलोदिमाग के अंदर उसी बर्फबारी की ठंडी–ठंडी बयार बहती रहती है, सामने झुलसाने वाले मौसम के बारे में हम सोचने की कोशिश भी नहीं करते हैं।
अजय सिंह की सारी कविताएं (छोटी–बड़ी लगभग 29 ) एक अलग मिजाज की हैं। फॉर्म से लेकर कंटेंट के स्तर पर कविता की पारंपरिक जमीन को जगह– जगह तोड़ती नजर आती हैं। अपनी बात कहने के लिए जिस तरह की भाषा इस्तेमाल करते हैं, उससे उन लोगों को एतराज हो सकता है जिनकी आदत में किसी बात को सीधी तरह से न कह कर चांदी की बर्क में लपेट कर, घुमा–फिरा कर कहने की होती है। उनकी एक कविता है, ‘ हिंदी के पक्ष में ललिता जयंती एस रामनाथन का मसौदा प्रस्ताव, एक संक्षिप्त बयान’, उसकी कुछ पंक्तियों पर विचार करने की जरूरत है। जो लोग कविता में राजनीति से बचने की कोशिश करते हैं या राजनीतिक सवालों को उठाने से परहेज करते हैं, वे शायद असहमत हो सकते है लेकिन कवि का प्रश्न तो बना ही रहेगा जब तक कि कोई सटीक जवाब न दे ।
‘हिंदी हिंदू हुई जा रही
हिंदी न हुई
हिंदू महासभा हो गयी
जिसका सरगना मदन मोहन मालवीय था
सारी पढ़ाई–लिखायी हिंदी को
हिंदू बनाने
और फिर उसे हिंदुस्तान में तब्दील
कर देने पर तुली है
गहरी चिंता का विषय है
हिंदी को हिंदू होने
से बचाना है
तो उसे रामचंद्र शुक्ल से बचाना होगा
और उन्हें
पाठ्यक्रम से बाहर करना होगा
और नये सिरे से लिखना होगा
हिंदी साहित्य का इतिहास’
अजय सिंह की यह लंबी कविता केवल कविता कहने के लिए नहीं लिखी गयी हैं, इसके बहाने हिंदी संस्थानों में उच्च जाति की वर्चस्वता को राजनीतिक रूप से जिस तरह मजबूत किया गया है, इसे बेनकाब करती है। दूसरे मजहब के लोगों का विरोध कर, समाज के निम्न लोगों को बर्बर ढंग से खरिज किया गया है, इस ब्राह्मणवादी प्रवृति पर निर्मम प्रहार करते हुए जो स्थापना रखी गयी है, वो भी महत्वपूर्ण है।
अजय सिंह कविता के मसौदा प्रस्ताव का आखिरी हिस्सा पेश करते हुए कहते हैं कि आधुनिक हिंदी का निर्माण बाभनों, कायस्थों, राजपूतों और बनियों ने नहीं, मुसलमानों ने किया है। मुसलमानों ने ही हिंदी को नई चाल में ढाला है। जो मीर, ग़ालिब, नज़ीर के साहित्य को धार्मिक स्तर पर हिंदी नहीं समझता है, वह संकीर्ण सोच का है। और ऐसी सोच हिंदुस्तान की जमीन में कभी पनप नहीं सकती है। उसका जमीन से उखड़ना स्वाभाविक है।
इस संग्रह में ऐसी अनेक कविताएं हैं जो अपने विषय को लेकर कविता से ज्यादा राजनीतिक ज्यादा लगती हैं । लेकिन इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता है कि कविता में राजनीति होती है या कविता की भी अपनी एक राजनीति होनी चाहिए। समय और परिस्थितियों के अनुसार जब राजनीतिक कहानियां लिखी जा सकती हैं या राजनीतिक नाटकों का मंचन हो सकता है तो कविता कैसे तटस्थ रह सकती है? ब्रेख्त, फ़ैज़, पाब्लो नेरुदा, मायकोव्स्की, माओ, सुकान्त, नवारुण भट्टाचार्या की कई कविताएं हमारे सामने उदाहरण के रूप में हैं जिन्होंने अपनी कविताओं में समय और उस काल के संघर्ष को वास्तविक रूप में उतारने में कोई संकोच नहीं किया है कि आलोचक उनकी राजनीतिक पक्षधरता को लेकर किस तरह प्रतिक्रिया करेंगे। कलात्मक मापदंड पर खरिज करेंगे या जनता के बीच जा कर लोगों की जुबान में उतर कर हिरावल दस्तों में गाये जाएंगे।
कई रचनात्मक धाराएं अजय सिंह के साथ समानांतर रूप से जुड़ी रही हैं। एक लंबे समय से जहां मार्क्सवादी विचारधारा की तीसरी धारा से जुड़े रहे हैं, उसकी सांस्कृतिक संस्था का महासचिव रहे हैं, दूसरी तरफ पत्रकारिता में राजसत्ता के प्रतिपक्ष में आज भी निर्भीक रूप से अपनी भूमिका निभाते आ रहे हैं। तीसरी भूमिका में वे कवि के रूप में उपस्थित है, जहां उनकी कविताएं राजनीतिक – सामाजिक परिदृश्यों में सवाल खड़ा करने में जरा भी पीछे नहीं रहती हैं। उनकी कविताओं को पढ़कर लोगों को लग सकता है कि घोषणा पत्र पढ़ रहे हैं या कोई प्रस्ताव सुन रहे हैं। हकीकत में अजय सिंह की जिन कविताओं में यह अभिव्यक्ति उभर कर आई है, दरअसल वह उनका आवेग होता है। ऐसे में अगर कोई भाषा का वो सौंदर्य ढूंढने लगे तो उनकी कविता और उसके मर्म के साथ न्याय नहीं कर पायेगा। विरोध और संघर्ष का जो दौर होता है, वो नई भाषा का सृजन करता है । जरूरी नहीं कि वो भाषा सुसंगठित हो, बहुआयामी और प्रतीकात्मक हो। कोरोना जैसी बीमारी पर लिखी उनकी दो कविताएं स्पष्ट कर देती हैं कि आवेग में तर्क हो तो असर कितना तेज और गहरा हो सकता है।
दुनिया बीमारी या महामारी से
ख़त्म नहीं होगी
ख़त्म होगी
चुम्बन व आलिंगन की कमी से
जब दिलों में प्यार
किसी के लिए तड़प नहीं होगी
दुनिया के होने की वजह नहीं होगी
जब दोस्त से हाथ मिलाने को
बढ़ा हुआ हाथ हवा में लटकता रह जाये
दोस्त के घर के दरवाज़े
आपके लिए बंद हों
आपको सख़्ती से मना किया जाये
अपने यहां आने से
तब दुनिया के अस्तित्व के आगे
प्रश्नचिह्न ज़रूर लगेगा
कोरोना महामारी के दौरान व्यवस्था द्वारा एक दूसरे पर अविश्वास करना, शक के घेरे में रखने का जो वातावरण उतपन्न किया गया था, उसने मानवीय संबंधों को काफी कमजोर और अलग–थलग कर दिया था। अजय सिंह ने कविताओं में केवल मानवीय दुर्बलताओं पर ही फोकस नहीं किया, बल्कि बीमारी की ओट में जनतंत्र को जिस तरह कमजोर किया जा रहा था, उसकी तरफ भी साफ इशारा किया है ।
यह स्मृति को बचाने
का वक़्त है
कई तरह की बीमारियां
लायी गयी हैं
हमारी स्मृति को धुंधला कर देने
फिर उसे
नष्ट कर देने के लिए
बीमारियां आसमान से नहीं टपकती
न वे ख़ुद-ब-ख़ुद
हवा में तैरती चली आती हैं
उन्हें सोच-समझ कर लाया जाता है
और फिर
तोप के गोले की तरह
लोगों पर दाग दिया जाता है
और कहा जाता है लोगों से
तुम सब-कुछ भूल जाओ
सिर्फ़ बीमारी और उसके ख़ौफ़
और अपनी मौत
के बारे में सोचो
कारणों के बारे में बात तक न करो
अजय सिंह की कविताएं बीमारी से उत्पन्न कुंठा, हताशा, अवसाद और नितांत अकेले में ले जाकर छोड़ देने वाली नहीं हैं। उनकी कविताएं उस अवसाद से मुक्त करने, बाहर निकालने वाली हैं। जिस तरह का अभी माहौल है, राजसत्ता का दमन अपने चरम पर है, उससे अजय सिंह डरे हुए नहीं दिखते हैं। न समर्पण का कोई भाव उनकी कविताओं में दिखता है। उनकी कविताओं को पढ़ कर उनके अंदर की बेचैनी और परेशानी को जगह-जगह देखा जा सकता है। कई बार उनके गुस्से को महसूस भी किया जा सकता है। वो भी दबे–छिपे रूप में नहीं, मुखर रूप में।
सांगठनिक और व्यक्तिगत स्तर पर भी एक लंबे समय से राजनीतिक और सामाजिक आंदोलनों से जुड़े होने के कारण अजय सिंह की कई कविताएं पोस्टर की तरह काम करने लगती हैं। आज भी आंदोलनों के दिनों में फ़ैज़, नाज़िम हिक़मत, पाब्लो नेरुदा, ब्रेष्ट, गोरख पांडेय, मुक्तिबोध की कविताएं पोस्टर बन कर आंदोलनकारियों के हाथ में जब आती हैं तो परचम की तरह लहराती हैं। कभी - कभी तो ये कविताएं नारे बन जाती हैं। अजय सिंह इसी परंपरा के कवि हैं। इनकी कविताएं कभी–कभी किताबों से ज्यादा पोस्टरों पर ज्यादा बोलती नजर आती हैं।
यही वो वक़्त है
जब हम भीमा कोरेगांव को याद करें
याद करें
उन 16 आला दिमाग़ों को
जो वर्षों से जेलों में बंद हैं
सिर्फ़ इसलिए
कि उन्होंने ग़रीबों के लिए लड़ाई लड़ी
सिर्फ़ इसलिए
कि उन्होंने न्याय का पक्ष लिया
सिर्फ़ इसलिए
कि उन्होंने सत्ता से सवाल किया
और ज़ालिम तानाशाह का हुक्म
मानने से इनकार किया
भीमा कोरेगांव अब सिर्फ़ एक जगह का नाम नहीं
अजय सिंह का व्यक्तित्व ऊपर से भले राजनीतिक दिखता है, लेकिन उन्होंने मानवीय संवेदनाओं पर जितनी भी कविताएं लिखी हैं, उसमें काफी गहराई दिखती है। विशेष कर अपने करीबी दोस्त पंकज सिंह, मोहन थपलियाल, नीलाभ, वीरेन डंगवाल पर जो लिखी है, उसमें महज भावुकता नहीं है, वैचारिक संवेदना का ऐसा संसार है जो किसी को भी सहज जोड़ पाने में समर्थ दिखता है। निर्मला ठाकुर को याद करते हुए जो छोटी कविता लिखी है, लगता है जैसे चंद शब्दों में उनका पूरा जीवन उतर आया है ।
तुम्हारी ज़िंदगी
उस समर्पित तानपूरे की तरह थी
जिसे कपड़े की खोली ओढ़ा कर
कमरे के एक कोने में
रख दिया गया
कभी बजाया नहीं गया
जिस पर धूल जमती रही
उस तानपूरे की कराह
कभी–कभी
सुनायी दे जाती थी
जितनी शिद्दत से अजय सिंह ने राजनीतिक कविताएं रची हैं, हाल में प्रेम को लेकर उतनी ही तन्मयता से कई कविताएं लिखी हैं। इस संग्रह में ,’ प्यार का ट्रक’, ‘पुराने ढंग की प्रेम कविता’, ‘सुंदर औरत की मुश्किल’,’ एक प्रेम कहानी कुछ अलग सी’, ‘मर्द खेत है, औरत हल चला रही है’, ‘वह सुंदर औरत’, ‘प्रेम एक बुरा सपना’, ‘प्रेम एक कल्पना चित्र’, ‘महान प्रेम का अंत’, ‘शोभा की सुंदरता’ कविताएं हैं जिसमें प्रेम के माध्यम से प्रेम की राजनीति, धर्म से विद्रोह करता प्रेम, प्रेम की ऊर्जा, विद्रोह, उन्मुक्तता का नया आयाम निकल कर आया है। कहीं से ये प्रेम कविताएं भावुकता के प्रवाह में बहती हुई नहीं दिखती हैं। बल्कि हर उस बंधन को तोड़ती हुई दिखती है जो परंपरा, मर्यादा के नाम पर धर्म, पितृसत्ता को लादने का प्रयास करती हैं। अजय सिंह की प्रेम कविताएं राजनीति से न परहेज करती हैं, न दूरी बनाती हुई दिखती हैं। इनके प्रेम की दुनिया में प्रेम और क्रांति में कोई अंतर नहीं है, न सुंदरता और क्रांति में कोई मतभेद। उनकी कविताओं में प्रेम का नया वितान है। प्रयोग किये गए बिम्ब अंधेरे में जुगनू की तरह हैं जो भटकाते नहीं हैं, हाथ पकड़ कर सुरंग के अंधेरे को पार कर उस दिशा में ले जाते हैं, जहां से कुछ किरणें आती हुई दिखती हैं।
प्रेम मेरे जीवन में फिर आएगा
मैं फिर प्रेम करूंगी
प्रेम किये बगैर मैं रह नहीं सकती
ज़रूरी नहीं कि वह
पुरानी दुर्घटना के रूप में लौटे
जैसे कड़ियल चट्टानों के बीच से
नन्ही हरी दूब बाहर झांकती है
वैसे ही प्रेम झांकेगा
और मुझे ढूंढ लेगा
(लेखक-समीक्षक राजेश कुमार एक जनवादी नाटककार हैं। आपके अब तक दर्जनों नाटक एवं नुक्कड़ नाट्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)