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एक बेरहम लॉकडाउन वाले देश में COVID-19
लोगों को भुखमरी से बचाने वाली किसी असरदार योजना के बिना इस लॉकडाउन का बढ़ाया जाना उतना ही निर्मम है, जितना कि इसके पीछे की अव्यवस्थित सोच है।

 
सुबोध वर्मा
15 Apr 2020
covid


प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मंगलवार को उम्मीद के मुताबिक़ देश के नाम अपने एक और सम्बोधन में 3 मई तक के लिए देशव्यापी लॉकडाउन के बढ़ाये जाने की घोषणा कर दी। उनकी दलील थी कि भारत तीन हफ़्तों के लम्बे लॉकडाउन और दूसरे उपायों के चलते अब तक घातक कोरोनावायरस महामारी को पीछे छोड़ने में कामयाब रहा है, और उन्होंने भारत के लोगों से अधिक "संयम, तप और बलिदान" का आग्रह किया।

तीन हफ़्तों के लॉकडाउन से भारत में महामारी को रोकने में कितनी मदद मिली है और रणनीति के रूप में लॉकडाउन कितना ज़रूरी है, इसे लेकर न्यूज़क्लिक में समय-समय पर विश्लेषण किया जाता रहा है, लेकिन कई दूसरे देशों (चीन सहित) को ध्यान में रखते हुए इस पर कभी विचार नहीं किया गया है।

हालांकि, लॉकडाउन का एक और पहलू है, जिसे मोदी सरकार और शहरी अभिजात वर्ग ने नज़रअंदाज़ किया है। वह पहलू है,लोगों पर इस तरह के लॉकडाउन का असर,जिसमें शामिल है- अचानक आय के स्रोतों का ख़त्म हो जाना; ख़ाली अनाज भंडार; सामान्य वस्तु भले ही उपलब्ध हों, लेकिन भुगतान करने की असमर्थता; नौकरियों का चला जाना, और आने वाले हफ़्तों की बढ़ती अनिश्चितता। इन सबसे हालात बिगड़ते दिख रहे हैं।

सवाल है कि पहले तीन हफ़्तों के दौरान इस मानवीय पहलू से किस तरह निपटा गया ?  और इससे मिले सबक से क्या किस तरह का सुधार किया गया,ताकि 3 मई तक के इस लॉकडाउन में उसका इस्तेमाल किया जा सके ? इन सवालों ने देश को एक जाने-पहचाने विभाजन,यानी वर्ग विभाजन में बांट दिया है। हालांकि तमाम तरह की परेशानियों के बावजूद, साधन संपन्न और खाने पीने के सामान का भरपूर स्टॉक बना लेने वाले लोग इस लॉकडाउन को जारी रखने को लेकर भावुकता के अतिरेक से भरे हुए हैं, लेकिन सभी तरह के कामकाजी लोग एक ऐसे बेहतर नज़रिये के पक्ष में दिखते हैं, जो उनकी कमाई और भूख को उतनी ही अहमियत देता हो, जितना कि उन्हें वायरस से बचाने को लेकर चिंता हो।

लोगों की रोज़ी-रोटी को लेकर ग़ज़ब की बेपरवाही

सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (CMIE) द्वारा लगाये गये अनुमान के मुताबिक़ बेरोजगारी दर का आंशिक अनुमान क़रीब-क़रीब 24% है। उच्चतम न्यायालय में दायर एक हलफ़नामे के मुताबिक़, लगभग 50 मिलियन (5 करोड़) अल्पकालिक प्रवासी श्रमिकों के पास कोई काम काज नहीं रह गया है और एक मिलियन (दस लाख) से अधिक प्रवासी मज़दूर घर से दूर किसी शेल्टर होम में अटके हुए हैं। हालांकि केंद्र और राज्य सरकारों की ओर से ग़रीबों के लिए राहत उपायों की घोषणा की गयी थी, लेकिन वे नाकाफ़ी हैं और इस घोषणा और उसे लागू करने के बीच फ़ासला इतना ज़्यादा है कि इन उपायों को उन लोगों तक पहुंच नहीं हो पा रही है, जिन्हें इसकी ज़रूरत है। मोदी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में इस बात को माना है कि 13 राज्यों में NGO ने राज्य सरकारों की तुलना में ज़्यादा लोगों तक भोजन मुहैया कराया है। ज़्यादातर प्रवासी और ग्रामीण मज़दूरों की ग़रीबी के और ज़्यादा बढ़ने की संभावना है। शहरी इलाक़ों में लाखों औपचारिक और अनौपचारिक क्षेत्र में कमाने वाले, चाहे वे किसी के यहां नौकरी कर रहे हों, या ख़ुद ही कोई कारोबार कर रहे हों, उन्हें आय का भयावह नुकसान हुआ है। सरकार द्वारा कर्मचारी, भविष्य निधि और ऐसे अन्य स्रोतों से धन का कुछ हद तक नक़द हस्तांतरण के ज़रिये लोगों को कुछ मात्रा में वितरित करने की मामूली कोशिशें न तो सक्षम रही हैं, न ही वे पर्याप्त रही हैं। इस बीच, सरकार कथित तौर पर एक छोटे कार्यबल के साथ उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए एक दिन में काम के घंटे को 12 घंटे तक बढ़ाने की योजना तैयार कर रही है। इसका मतलब बड़ी संख्या में श्रमिकों के लिए मौत की घंटी और काम करने वालों के लिए भारी नुकसान और उनका ज़बरदस्त शोषण है। कोई शक नहीं कि इससे उनके COVID-19 के संपर्क में आने की आशंका भी हैं। लेकिन, फिर तो कहा जा सकता  है कि सरकार बड़े व्यवसायों के इशारे पर ऐसा करने जा रही है, और श्रमिकों को बलि चढ़ाने की कोशिश हो रही है।

इस बीच, ‘भोजन का अधिकार’ अभियान के सिलसिले में कम से कम 45 मौतों की रिपोर्ट संकलित की गयी है, जिसमें भूख, थकावट और लोगों की अपनी-अपनी घर वापसी, पुलिस अत्याचार, चिकित्सा सेवाओं तक नहीं पहुंच पाने की मजबूरी और आत्महत्याओं के कारण होने वाली मौतें शामिल हैं। ग़रीब लोग पीडीएस की दुकानों से भी भोजन पाने के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं, क्योंकि आपूर्ति अनियमित है और कई लोगों के पास तो राशन कार्ड ही नहीं हैं। प्रवासी श्रमिकों और गांव में रहने वाले ग़रीबों के साथ-साथ राज्यों के शहरी झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले लोगों को भोजन और राशन पाने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है, क्योंकि अक्सर उनके पास राशन कार्ड नहीं होते हैं। मोदी सरकार ने घोषणा की है कि ग़रीबों को 10 किलो चावल या गेहूं और 5 किलो दाल मिलेगी। पीआईबी के हालिया बयान के मुताबिक़, लॉकडाउन के दौरान राज्यों द्वारा कुल 2 मिलियन मीट्रिक टन अनाज पहुंचाया गया है। लेकिन सरकारी आंकड़ों से पता चलता है कि भारतीय खाद्य निगम के पास 77 मिलियन टन का अधिशेष था। दालें NAFED [नेशनल एग्रीकल्चरल कोऑपरेटिव मार्केटिंग फेडरेशन ऑफ इंडिया] के स्टॉक में भी उपलब्ध हैं, लेकिन वे उन्हें ज़रूरतमंदों तक नहीं पहुंचा पा रहे हैं। सच्चाई तो यही है कि ‘भोजन का अधिकार’ अभियान और जन स्वास्थ्य अभियान की मांग के मुताबिक़,  भले ही प्रति व्यक्ति प्रति माह 10 किलो अनाज, 1.5 किलो दाल और 800 ग्राम खाना पकाने का तेल वाला राशन कार्ड किसी के पास हो या नहीं हो, इसका ख़्याल किये बिना सभी व्यक्ति को अगले छह माह तक भोजन वितरित किया जाना चाहिए।

राज्य सरकारें लोगों की देखभाल के संघर्ष में सबसे आगे हैं, क्योंकि मोदी सरकार केवल व्यापक घोषणायें कर रही है, और उन्हें लागू करने की ज़िम्मेदारी राज्य सरकारों पर छोड़ दे रही है। लेकिन,पहले से ही नक़दी से जूझ रही राज्य सरकारें इस काम को लेकर जद्दोजहद कर रही हैं। केंद्र सरकार ने COVID-19 से जुड़े राहत उपायों से निपटने के लिए राज्य आपदा जोखिम प्रबंधन कोष के तहत राज्यों को 11, 092 करोड़ रुपये जारी करने की अधिसूचना जारी की है। हालांकि, धन के राज्यवार वितरण से पता चलता है कि COVID-19 मामलों की संख्या के आधार पर किये गये इस आवंटन में भेदभाव बरता गया है। इस महामारी से जुड़े सबसे अधिक मामले वाले महाराष्ट्र को 1,611 करोड़ रुपये आवंटित किये गये हैं, जबकि इस मामले में 3 अप्रैल तक दूसरी सबसे बड़ी संख्या वाले राज्य, केरल को महज 157 करोड़ रुपये ही आवंटित हुए हैं।

हेल्थकेयर सिस्टम अब भी तैयार नहीं

लॉकडाउन को लेकर एक दलील यह भी थी कि महामारी की चुनौती से पार पाने के लिए स्वास्थ्य प्रणाली की मुस्तैदी को बढ़ावा देने के लिए कुछ और समय की दरकार थी। सवाल है कि उस मोर्चे पर क्या हुआ है? जन स्वास्थ्य अभियान विश्लेषण के अनुसार, तेज़ी से एंटीबॉडी परीक्षण किट हासिल करने को लेकर 33 कंपनियों को मंजूरी दी गयी है, जो सिर्फ़ 400 रुपये में परीक्षण कर सकती हैं। हालिया रिपोर्टों के अनुसार, आदेश तो दे दिये गये हैं, लेकिन खेप (ज़्यादातर चीन से) के आने में गुणवत्ता परीक्षण और प्रक्रियात्मक विलंब के चलते देरी हो रही है। इनके अलावा, 27 पीसीआर किट आपूर्तिकर्ताओं को मंज़ूरी दी गयी है, जिनमें से ज़्यादतर विदेशी हैं। वास्तविक आपूर्ति के बारे में पता नहीं है। जेएसए का कहना है कि भविष्य की ज़रूरतें साफ़ नहीं है, लेकिन अनुमान है कि यह ज़रूरत प्रति वर्ष “10 मिलियन परीक्षण किटों से ऊपर" की हो सकती है। ज़रूरत के इस पैमाने को देखते हुए मोदी सरकार ख़रीद के मामले में बहुत पीछे है। इसलिए, परीक्षण भी बड़े पैमाने पर नहीं किये जा रहे हैं।

मोदी सरकार ने पहली बार यह घोषणा करते हुए परीक्षण प्रक्रिया को यह कहते हुए गडमड कर दिया था कि निजी संस्थायें प्रति परीक्षण 4,500 रुपये का शुल्क ले सकती हैं, जो कि बहुत ही अधिक है और यह निजी क्षेत्र के लालच को लेकर जो धारणा बनी हुई है, उसका एक स्पष्ट संकेत भी है। जब सुप्रीम कोर्ट ने दूसरे छोर तक जाते हुए हस्तक्षेप किया और नि:शुल्क परीक्षण का आदेश दिया, तो सरकार अब निजी संस्थाओं को इसके लिए भुगतान करने की सोच रही है, जिसे लेकर पहले भी सोचा जा सकता था। COVID-19 के लिए परीक्षण करने वाली प्रयोगशालाओं की संख्या अब बढ़कर 223 हो गयी है, जिनमें से 157 सार्वजनिक क्षेत्र की हैं, और 66 निजी क्षेत्र की हैं। दैनिक परीक्षण दरें पहले कम थीं, लेकिन अब लगभग 15,000 प्रति दिन तक पहुंच गयी हैं। परीक्षण के इस निम्न स्तर के चलते यह जान पाना भी मुमकिन नहीं है कि यह बीमारी कितनी फैल चुकी है।

सरकार के बयानों से जो संकेत मिलता है, उसके मुताबिक़ 1.74 करोड़ पीपीई सेट और N95 मास्क के ऑर्डर दे दिये गये हैं। उस ऑर्डर के आने तक, N95 मास्क, कवर और अन्य पीपीई की भारी कमी जारी रहेगी, और स्वास्थ्य कार्यकर्ता ख़ुद को बीमार करना जारी रखेंगे, और यहां तक कि इस महामारी के फ़ैलने का वे ख़ुद ही एक स्रोत बन बनते रहेगें, जैसा कि भीलवाड़ा में हुआ था।

जेएसए के मुताबिक़, पीपीई (39 में से 34) के ज़्यादातर ऑर्डर, लॉकडाउन की घोषणा के बाद ही दिये गये थे, और इनमें से 24 का ऑर्डर अप्रैल 2020 में दिया गया था, जबकि पूरे दो महीने पहले, COVID-19 का मामला भारत में दर्ज हुआ था। इस ऑर्डर की डिलीवरी के मामले में भारत, घरेलू और बाहरी दोनों ही स्तर पर बहुत पीछे हैं, जिनमें से कुछ का उत्पादन मुश्किल से शुरू हो पाया है। सरकार ने घोषणा की है कि उसने 49,000 वेंटिलेटर के ऑर्डर दिये हैं। उन सभी के आने की सटीक तारीख़ पता नहीं हैं। 1 फ़रवरी से ऑक्सीजन की ख़रीद की आपूर्ति में छह गुनी वृद्धि की सूचना है, लेकिन इस ऑक्सीजन को संग्रहित किये जाने को लेकर कोई ख़बर ही नहीं है।

हालांकि सरकारी बयानों में कहा गया है कि बड़ी संख्या में नामित अस्पताल, आइसोलेशन बेड और आईसीयू बेड तैयार हैं, लेकिन जेएसए का कहना है कि स्वास्थ्य कर्मियों, छोटे उपकरणों, प्रमुख उपकरणों और कौशल में उसी पैमाने की कोई बढ़ोत्तरी नहीं हुई है। जेएसए ने एक बयान में कहा है, "इसके अलावा, अन्य नियमित स्वास्थ्य सेवाओं के प्रावधान पर, ख़ास तौर पर तीसरे स्तर के सार्वजनिक अस्पतालों को पंगु बना देने वाले असर का ख़तरा है।"

इसलिए, संक्षेप में कहा जा सकता है कि जहां तक आम लोगों की ज़िंदगी और रोज़ी-रोटा का सवाल है, लॉकडाउन के पहले तीन सप्ताह एक लगातार चलने वाली आपदा का समय था, और महामारी पीड़ितों की आने वाली चुनौती से निपटने को लेकर अब भी पर्याप्त तैयारी नहीं है। शायद, इस समय (3 मई तक) का इस्तेमाल पिछले तीन हफ़्तों के मुक़ाबले बेहतर किया जाय। मुमकिन है कि इससे भी बुरा हो। हमें इन क़यासों की असलियत 3 मई तक मालूम हो जायेगी।

 

अंग्रेजी में लिखे गए इस मूल आलेख को आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करके पढ़ सकते हैं-

COVID-19: In the Land of a Heartless Lockdown

 

COVID-19 novel coronavirus COVID-19 Lockdown Extension
PM Narendra Modi
CMIE
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Starvation Deaths
Migrant labourers
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Lay-offs
Health workers
Public Healthcare
PPE
Jan Swasthya Abhiyan
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