NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
मज़दूर-किसान
स्वास्थ्य
भारत
राजनीति
अंतरराष्ट्रीय
कोरोना, लॉकडाउन और असंगठित क्षेत्र के मज़दूर
सवाल यही है कि क्या इन 40 करोड़ मज़दूरों के लिए सार्वभौम नीतियों का निर्माण समय की मांग नहीं है?
सिद्धेश्वर शुक्ल
09 May 2020
असंगठित क्षेत्र के मज़दूर
Image courtesy: Indian Women Blog

पूरी दुनिया में चालीस लाख संक्रमित एवं तीन लाख के आसपास मौतों के आंकड़ों के बीच अब कम्युनिटी एवं लोकल ट्रांसमिशन की चर्चा शुरू हुई है। दुनिया के स्लम, झुग्गी बस्तियों, पुनर्वास कैंपों, प्रवासी कैंपों, रिफ्यूजी कैंपों, युद्ध क्षेत्र कैंपों में कोरोना के फैलने को अगले चरण के रूप में देखा जा रहा है। स्वास्थ्य सेवाओं, अस्पतालों डॉक्टर पैरा- मेडिकल स्टाफ सुरक्षा के जरूरी उपकरणों टेस्ट किटों के अभाव ने इसी बीच हम सब लोगों का ध्यान आकर्षित किया है।

इसी बीच  लाखों लोगों  में बुनियादी सुविधाओं के अभाव एवं भूख तथा पानी के अभाव में हजारों मील पैदल चलकर घर जाते मज़दूरों की हालत को मध्यवर्ग, उच्च मध्यवर्ग एवं सरकारों की नीति निर्धारकों ने भली-भांति देखा है। जो नीति निर्धारण के क्षेत्र में आमूल बदलाव की तरफ इशारा करता है।

यहां यह भी नोट कर लेना जरूरी है कि कोरोना महामारी से लड़ने की सारी जिम्मेवारी सार्वजनिक क्षेत्र की संस्थाओं पर आन पड़ी है। निजी क्षेत्र जिसका ढिंढोरा विश्व भर में सरकारें अस्सी  के दशक के बाद से पीटती रही ताला बंद कर, सरकारों को कुछ फंड देने के अलावा सिरे से गायब नजर आता है।

बिल गेट्स के कुछ भावुक बयानों एवं मुकेश अंबानी के एशिया के सबसे अमीर आदमी बनने तथा विभिन्न बड़े   कॉर्पोरेटो के मुनाफे में गिरावट, शेयर बाजारों के क्रेश करने अंतरराष्ट्रीय व्यापार में गिरावट, चीन द्वारा टेस्ट किटों में अतिशय मुनाफों की खबरों के अतिरिक्त कुछ देखने को नहीं मिला।

पता नहीं दुनिया भर में फैले इंश्योरेंस चेन आधारित प्राइवेट अस्पतालों का क्या हुआ जिन्होंने अब मुनाफे के लिए 5000 के टेस्ट किट बना लिए हैं। इंश्योरेंस कंपनियां अब मेडिकल इंश्योरेंस नहीं टर्म इंश्योरेंस बेचने में व्यस्त है। जो जनता को 'राम नाम सत्य' होने पर नसीब होगा।

स्पष्ट है कि प्राइवेट अस्पतालों ने अपनी दुकानदारी में कोरोना  महामारी से लड़ने में मोटे तौर पर अपने हाथ खड़े कर दिए हैं।

स्थिति यह है कि अब  प्राइवेट सेक्टर के बैंकों व्यापार घाटे एवं उन्हें बचाने की जिम्मेवारी भी सरकार एवं सार्वजनिक क्षेत्र पर आन पड़ी  है। निश्चित तौर पर यह  हमें अस्सी  के दशक के बाद विश्व स्तर पर एवं नब्बे  के दशक के बाद भारत में विकास के नव उदारवादी मॉडल के परखने का अवसर प्रदान करता है।

अस्सी के दशक में कुछ अमेरिकी दक्षिणपंथी शोध संस्थाओं ने IMF एवं विश्व बैंक के साथ मिलकर ढोल नगाड़े के साथ प्रचारित करना शुरू किया कि 1929 की महामंदी से उबारने वाले कीन्स अर्थशास्त्र की ज़रूरत नहीं रही। अब हम लेसेज़ फेयर यानी खुली अर्थव्यवस्था एवं नव उदारवादी नीतियों पर चलकर ही आगे विकसित हो सकते हैं। जिन देशों में थोड़ा  प्रतिरोध एवं विरोध थे वहां कुछ बचा भी  है नहीं तो दुनिया के कई सारे छोटे मुल्कों में तो प्रधानमंत्री कार्यालय एवं सरकारी दफ्तरों एवं सेना के अलावा कुछ भी सार्वजनिक क्षेत्र का बचा नहीं है। इन  मुल्कों में कोरोना फैलने पर क्या होगा यह सोच कर ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं।

कोरोना से कुछ ही दिन पहले भारत सरकार ने नवरत्न कंपनियों एवं रेलवे को बेचने का नक्शा तैयार कर लिया था क्या अंबानी का तेजस एक्सप्रेस प्रवासी मज़दूरों की घर वापसी करा सकता है। अपनी डूबती नाव को बचाने के लिए ट्रंप ने चीन के प्रति घृणा का प्रचार शुरू किया है दरअसल उससे पूंजीवादी मॉडल को अपनाने की नहीं तो सीखने की आवश्यकता तो है ही।

यह सर्व विदित है कि करोना काल के बाद चीनी दुनिया के  सर्वशक्तिमान देशों में पहला स्थान प्राप्त कर लेगा और अमेरिका दूसरा। इस विश्व राजनीति के महान परिवर्तन के लिए हमें तैयार रहना चाहिए यह निश्चित तौर पर नये अर्थशास्त्र की दिशा एवं दशा को प्रभावित करने वाला है। हालांकि अमेरिका व्यापार प्रतिबंध, चीनी वस्तुओं पर टैक्स लगाकर, मीडिया में दुष्प्रचार कराकर मित्र राष्ट्रों से मिलकर उनको रोकने की भरसक कोशिश जरूर करेगा। हाल का ट्रंप एवं पोम्पियो के बयानात इसी दिशा में इशारा करते हैं।

नव उदारवादी नीतियों के विश्व में चार दशकों एवं भारत के तीन दशकों के पूंजीवादी विकास का मुख्य कारक असंगठित क्षेत्र का विस्तार एवं इन मज़दूरों के अतिशय शोषण रहा है। दिहाड़ी मज़दूर, घरेलू कामगार, पीस रेट, हायर ऐण्ड  फायर, अपरेंटिस कानून, नीम इत्यादि मज़दूरों पर विपरीत असर डालने वाले साबित हुए हैं।

सरकारों ने इन मज़दूरों के लिए सामाजिक सुरक्षा के कानून तो बनाएं परंतु उनके अमल की अवहेलना लगातार करती है। सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के बावजूद बहुत ही कम राज्यों में असंगठित क्षेत्र का बोर्ड बनाया जा सका है। भवन निर्माण संनिमार्ण बोर्डों  की हालत खस्ता है एवं भ्रष्टाचार के अड्डे बने हुए हैं। मज़दूर के असंगठित होने का सीधे तौर पर तीन  मतलब हैं एक कि काम के घंटे की आठ  घंटे की सीमा को लांघना तथा  न्यूनतम मजदूरी एवं सेवा-शर्तों को नष्ट कर देना।

अगर कुल मज़दूरों की संख्या पूरे देश में 40 करोड़ मानी जाए तो उसका 94% हिस्सा असंगठित क्षेत्र में आता है यानी करीब 35 करोड़ मज़दूर असंगठित क्षेत्र में ही हैं। इनमें से ज्यादातर मज़दूरों का कोई भी रिकॉर्ड सरकारों के पास मौजूद नहीं है। असंगठित क्षेत्र के मज़दूरों का कुछ आंकड़ा ईएसआई एवं पीएफ विभाग में जरूर होता है परंतु संगठित को भी असंगठित बना देने का प्रक्रम (प्रक्रिया) ही पिछले तीन दशकों में नव उदारवादी नीतियों ने कायम किया है।

पूंजीवादी उत्पादन में  अतिशय मुनाफे को कायम करने का मूलमंत्र ही उत्पादन से श्रम के हिस्से को गायब करना रहा है ऐसा मज़दूरों को असंगठित कर देने से ही संभव हो पाया है। ट्रेड यूनियन आंदोलन भी मज़दूरों के इस अर्थशास्त्र को समझ पाते तब तक यह पूरा प्रक्रम किया जा चुका था। श्रम कानूनों को पंगु बना कर एवं सरकारी क्षेत्रों में कॉन्ट्रैक्ट व्यवस्था लागू कर उन्हें उसी में उलझा दिया गया। लेबर कोर्टों के चक्कर लगाने में मज़दूर नेताओं के श्रम ऊर्जा एवं दिमाग को लगवा दिया गया। सरकारें कागजों पर नीतियां बनाती रहीं परंतु समूचा तंत्र नव उदारवाद का पक्षधर बनता रहा जिससे इन नीतियों को लागू करने की मंशा बची  नहीं।

इसी बीच सर्विस एवं रिटेल सेक्टर का एक विशाल तंत्र भी खड़ा किया गया। इन सेक्टरों में काम करने वाले श्रमिकों की पगार पन्द्रह हज़ार  से पच्चीस हज़ार के आसपास रही है। यानी इनमें से ज्यादातर लोग मज़दूर की परिभाषा से अलग होते गए ऐमेज़ॉन, फ्लिपकार्ट, मॉल, मार्ट,  होटल टूरिज्म, सेल्स, कैब, कैफे  सरकारी दफ्तरों के कॉन्ट्रैक्ट कर्मचारी इत्यादि इत्यादि। इन मज़दूरों में निम्न मध्यवर्गीय मानसिकता का निर्माण करते हुए इन्हें उदारीकरण के रोडसाइड रोमियो में परिवर्तित किया गया। बुनियादी सैलरी  की बजाय इंसेंटिव पर ज्यादा जोर देकर इनसे 12 घंटे से 14 घंटे तक काम लिया गया। आज यह सारे मज़दूर काम से बाहर हैं एवं उनकी सुध लेने वाला कोई नहीं है।

हाल ही में किसी की सैलरी नहीं काटने के सरकारी घोषणाओं की धज्जियां उड़ाते हुए इंडियन ट्रेडर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष प्रदीप खंडेलवाल ने घोषणा की है कि वे 30 से 35% ही सैलरी दे पाएंगे। करीब 5 करोड़ लोग इस सेक्टर में काम करते हैं। विश्व के स्तर पर परिस्थितियां भिन्न रही हैं परंतु भारत में इन लोगों की स्थिति को देखते हुए इन्हें असंगठित की श्रेणी में रखना ही बेहतर होगा। उदारीकरण के दौर के तीन दशकों में शायद पहली बार मीडिया ने हजारों मील पैदल चल कर जाते लाखों मज़दूरों, बच्चों, गर्भवती महिलाओं की तस्वीर को आम देशवासियों को दिखाया है। भूख, पानी, रहने के स्थानों, दरिद्रता और उसकी भयावहता की तस्वीरें कहीं एशिया टाइगर, 5 ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था बनने वाले देश के प्रचारों में खो गईं थी।

हजारों-लाखों की संख्या में महिला मज़दूरों की स्थिति एवं उनकी समस्याएं कहीं गुम सी  हो गई थी। महिला कामगारों को सामाजिक सुरक्षा के अधिकार एवं न्यूनतम वेतन की जरूरत नहीं होती क्योंकि पतियों को पहले से ही यह अधिकार हासिल है जैसे पितृसत्तात्मक प्रचार को हथियार के रूप में उदारवाद ने इस्तेमाल किया। रूढ़ीवादी जाति व्यवस्था के तंतुओं का इस्तेमाल भी दलित एवं पिछड़े वर्ग से आने वाले मज़दूरों के लिए किया गया ताकि उनके लिए न्यूनतम वेतन एवं काम के घंटे का बंधन न हो। कृषि अर्थव्यवस्था के संकट, सामंती शोषण एवं देश के विभिन्न हिस्सों के गैर बराबर विकास की सामरिकता को समझते हुए वहां से मज़दूरों को शहरों की खोह में फंसाया गया ताकि पगार को कम रखा जा सके। विश्लेषणों की स्वतंत्रता है पर विकास  के इस मॉडल की एकांगीपना  सबके समक्ष है।

सहृदय होकर आत्मग्लानि करना उनके लिए राशन, खाना मुहैया कराना एनजीओ में शामिल होकर उनका सर्वे कर लेना एवं सोशल मीडिया में तस्वीर लगा देना एक जरूरी कार्य है परंतु उनके पक्ष में खड़े होकर नीतियां बनवाने और उसके लिए अग्रिम पंक्ति में खड़ा होकर अमल करवाना दूसरी बात है। सवाल यही है कि क्या इन 40 करोड़ मज़दूरों के लिए सार्वभौम नीतियों का निर्माण समय की मांग नहीं है?

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में इतिहास के शिक्षक हैं।आपसे sidheshwarprasadshukla@yahoo.com पर संपर्क किया जा सकता है। विचार व्यक्तिगत हैं।)

Coronavirus
COVID-19
Corona Crisis
Workers and Labors
unorganised workers
Unorganised Sector
Global Epidemic
Coronavirus Epidemic

Related Stories

उनके बारे में सोचिये जो इस झुलसा देने वाली गर्मी में चारदीवारी के बाहर काम करने के लिए अभिशप्त हैं

यूपी चुनाव: बग़ैर किसी सरकारी मदद के अपने वजूद के लिए लड़तीं कोविड विधवाएं

यूपी चुनावों को लेकर चूड़ी बनाने वालों में क्यों नहीं है उत्साह!

सड़क पर अस्पताल: बिहार में शुरू हुआ अनोखा जन अभियान, स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए जनता ने किया चक्का जाम

लखनऊ: साढ़ामऊ अस्पताल को बना दिया कोविड अस्पताल, इलाज के लिए भटकते सामान्य मरीज़

किसान आंदोलन@378 : कब, क्या और कैसे… पूरे 13 महीने का ब्योरा

पश्चिम बंगाल में मनरेगा का क्रियान्वयन खराब, केंद्र के रवैये पर भी सामाजिक कार्यकर्ताओं ने उठाए सवाल

ग्राउंड रिपोर्ट: देश की सबसे बड़ी कोयला मंडी में छोटी होती जा रही मज़दूरों की ज़िंदगी

यूपी: शाहजहांपुर में प्रदर्शनकारी आशा कार्यकर्ताओं को पुलिस ने पीटा, यूनियन ने दी टीकाकरण अभियान के बहिष्कार की धमकी

दिल्ली: बढ़ती महंगाई के ख़िलाफ़ मज़दूर, महिला, छात्र, नौजवान, शिक्षक, रंगकर्मी एंव प्रोफेशनल ने निकाली साईकिल रैली


बाकी खबरें

  • संदीपन तालुकदार
    वैज्ञानिकों ने कहा- धरती के 44% हिस्से को बायोडायवर्सिटी और इकोसिस्टम के की सुरक्षा के लिए संरक्षण की आवश्यकता है
    04 Jun 2022
    यह अध्ययन अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि दुनिया भर की सरकारें जैव विविधता संरक्षण के लिए अपने  लक्ष्य निर्धारित करना शुरू कर चुकी हैं, जो विशेषज्ञों को लगता है कि अगले दशक के लिए एजेंडा बनाएगा।
  • सोनिया यादव
    हैदराबाद : मर्सिडीज़ गैंगरेप को क्या राजनीतिक कारणों से दबाया जा रहा है?
    04 Jun 2022
    17 साल की नाबालिग़ से कथित गैंगरेप का मामला हाई-प्रोफ़ाइल होने की वजह से प्रदेश में एक राजनीतिक विवाद का कारण बन गया है।
  • न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    छत्तीसगढ़ : दो सूत्रीय मांगों को लेकर बड़ी संख्या में मनरेगा कर्मियों ने इस्तीफ़ा दिया
    04 Jun 2022
    राज्य में बड़ी संख्या में मनरेगा कर्मियों ने इस्तीफ़ा दे दिया है। दो दिन पहले इन कर्मियों के महासंघ की ओर से मांग न मानने पर सामूहिक इस्तीफ़े का ऐलान किया गया था।
  • bulldozer politics
    न्यूज़क्लिक टीम
    वे डरते हैं...तमाम गोला-बारूद पुलिस-फ़ौज और बुलडोज़र के बावजूद!
    04 Jun 2022
    बुलडोज़र क्या है? सत्ता का यंत्र… ताक़त का नशा, जो कुचल देता है ग़रीबों के आशियाने... और यह कोई यह ऐरा-गैरा बुलडोज़र नहीं यह हिंदुत्व फ़ासीवादी बुलडोज़र है, इस्लामोफ़ोबिया के मंत्र से यह चलता है……
  • आज का कार्टून
    कार्टून क्लिक: उनकी ‘शाखा’, उनके ‘पौधे’
    04 Jun 2022
    यूं तो आरएसएस पौधे नहीं ‘शाखा’ लगाता है, लेकिन उसके छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) ने एक करोड़ पौधे लगाने का ऐलान किया है।
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License