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तत्काल क़र्ज़ मुहैया कराने वाले ऐप्स के जाल में फ़ंसते नौजवान, छोटे शहर और गाँव बने टार्गेट
इन ऐप्स के क़र्ज़ वसूली एजेंटों की ओर से किये जा रहे उत्पीड़न के चलते 2020 और 2021 के बीच पूरे भारत में कम से कम 21आत्महत्याएं हुई हैं।
शाश्वत सहाय
26 Oct 2021
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प्रतिकात्मक फ़ोटो:साभार: फ़िनटेक इनसाइड

मेघना पटेल ने अपना पहला कर्ज़ 2020 की शुरुआत में उस फ्लाईकैश नामक एक ऐप से लिया था, जिसके विज्ञापन वह फ़ेसबुक पर देखा करती थीं।

यह एक छोटी सी रक़म थी। सिर्फ़ 500 रुपये। लेकिन, दो हफ़्ते बाद उन्हें 550 रुपये चुकाने पड़े। उस ऐप की उधार लेने की सीमा 1,000 रुपये तक की थी। हाल ही में उनके माता-पिता उन्हें दिये जाने वाले नियमित पैसों को लेकर पहले से कहीं ज़्यादा अपनी मुट्ठी कस लिये थे। उन्हें अपने साप्ताहिक 'भुगतान वाले दिन' तक कुछ दिनों के लिए नक़दी की ज़रूरत होती थी। उसके बाद ही वह इसे वापस भुगतान कर सकती थीं।

लेकिन, दो दिन बाद ही मेघना को सूचित करता हुआ एक मैसेज आया कि उसकी उधार लेने की सीमा और लौटाने का समय दोनों बढ़ा दिया गया है। वह अब दो महीने तक के लिए 2,000 रुपये तक की रक़म उधार ले सकती थी। कुछ हफ़्ते तेज़ी से निकल गये और उनके पास क्लब जाने के लिए पर्याप्त पैसे नहीं बचे थे। कुछ स्रोतों से उनके खाते में तत्काल 1,500 रुपये डाल दिये गये।

महाराष्ट्र के बदलापुर की इस 20 साल की स्नातक छात्रा ने बताया “कंपनी ने मुझे हर 500 रुपये के लिए बतौर ब्याज़ 50 रुपये का भुगतान करने के लिए कहा। इसलिए, मुझे लगा कि मुझे दो महीने में 1,650 रुपये चुकाने होंगे। लेकिन इतना ही नहीं, अगर आप दो महीने के लिए क़र्ज़ लेते हैं, तो आपको 100 रुपये का अतिरिक्त ब्याज़ भी देना होगा।”

जल्द ही वह छोटे-छोटे क़र्ज़ लेने का जोखिम नहीं उठा सकती थीं, लेकिन लंबे समय तक ऋण लेने का मतलब बड़ी राशि का भुगतान करना होता है और इस दुष्चक्र को बनाये रखने की कोशिश में उन्हें नियमित रूप से मिलने वाले पैसे तक़रीबन ख़ाली हो जाते थे।

इसके बाद लॉकडाउन का ऐलान हो गया। “मैं पिछले क़र्ज़ को चुकाने के कुछ ही दिन बाद नया क़र्ज़ ले रही थी। अब जब मुझे घर वापस आना था, तो मेरे पास और कोई पैसे थे नहीं। तो फिर सवाल था कि मैं उन्हें वापस कैसे कर पाती?”

जैसे ही वे अपने पहले क़र्ज़ का भुगतान नहीं कर पायीं, ठीक उसके एक दिन बाद, कॉल आनी शुरू हो गईं। शुरूआत में वे नर्मी से पेश आते हुए एक निश्चित लिंक पर उस रक़म को वापस करने का अनुरोध करते थे। कॉल करने वालों ने उन्हें हफ़्ते भर का समय दिया और कई वैकल्पिक ऐप सुझाए, जिनसे वह इन बकाया राशि को चुकाने के लिए उधार ले सकती थीं।

उस हफ़्ते के बाद जब वह रक़म जमा नहीं कर पायीं, तो कॉल करने वालों ने उनके सामने उस रक़म के ब्योरे रख दिये। जब पटेल ने ट्रूकॉलर के स्पैम फिल्टर के ज़रिये उनकी धमकी भरे कॉलों को नज़रअंदाज़ करना शुरू कर दिया, तो व्हाट्सएप पर मैसेज आने शुरू हो गए।

“उन्होंने मेरे परिवार, मेरे दोस्तों और यहां तक कि मेरे कॉलेज के अफ़सरों को फ़ोन करने की धमकी दी और कहा कि मैं धोखेबाज हूं। इसलिए, मैंने उनके दूसरे ऐप्स से लोन ले लिया। यह सिलसिला तब तक जारी रहा, जब तक मेरे ऊपर अलग-अलग कई ऐप्स का तक़रीबन 35,000 रुपये का बक़ाया नहीं हो गया। इसके बाद, उन्होंने मेरे परिवार को फ़ोन किया, मेरे दोस्तों और प्रोफ़ेसरों के साथ व्हाट्सएप ग्रुप बना लिये। उन्होंने किसी ऐप से मेरे लिए सभी क़र्ज़ों का हर छोटे-छोटे ब्योरे साझा किये और मेरे चेहरे की तस्वीरों पर 'चीटर 420' लिखकर पोस्ट कर दिया।

पटेल भारत के उन लाखों लोगों में से एक हैं, जो तत्काल मुहैया कराये जाने वाले क़र्ज़ के जाल में फ़ंस गए हैं। अक्टूबर 2020 से कम से कम उन 21 लोगों की आत्महत्याओं की ख़बरें आईं हैं, जो अलग-अलग तत्काल क़र्ज़ मुहैया कराने वाले और बाय-नाउ-पे-लेटर (BNPL) ऐप से जुड़े हुए थे। ये एप्स गूगल प्लेस्टोर, एमआई स्टोर, सैमसंग गैलेक्सी स्टोर और यहां तक कि ऐप्पल के ऐप स्टोर पर आसानी से डाउनलोड किये जा सकते हैं।  

अलाभकारी पहल कैशलेस कंज्यूमर और बैनब्रीच की ओर से तैयार किये गये डेटाबेस के मुताबिक़, फ़रवरी 2021 तक इनमें से 1,500 से ज़्यादा ऐप गूगल प्लेस्टोर पर मुफ़्त में डाउनलोड किये जाने के लिए उपलब्ध थे। इन ऐप्स को विनियमित और अविनियमित दोनों ही तरह की संस्थाओं की ओर से विकसित किया गया है।

कोलकाता के ठीक बाहर बारासात शहर में एक स्थानीय निजी स्कूल की शिक्षिका सुनंदा नंदी पर Fortune का 60,000 रुपये का बकाया है।

अपनी बदहाली को लेकर नंदी ने बताया, “दो भुगतान तिथियों के चूक जाने की याद दिलाते हुए मुझे फोन पर धमकाने और गाली देने के बाद एक बाउंसर हमारे घर आया। मेरी 75 वर्षीय सास उस समय अकेली थीं। उस नौजवान ने उन्हें तुरंत भुगतान करने की धमकी दी। उसने मेरी सास के साथ दुर्व्यवहार किया और वह घर से तभी गया, जब मां ने उसे 5,000 रुपये नक़द और कुछ गहने सौंप दिये।”

नंदी ने कहा कि उन्होंने ट्रूकॉलर ऐप के ज़रिए यह पता लगा लिया कि वह एजेंट किस एजेंसी से हैं। उसका सबसे पहले एमपॉकेट(MPokket) से संपर्क साधा और किये जा रहे उत्पीड़न को लेकर शिकायत की, लेकिन जब कस्टमर केयर नम्बर पर उन्हें किसी कॉल और संदेश का जब कोई जवाब नहीं मिला, तो वह जुलाई के आख़िर में स्थानीय पुलिस स्टेशन में उनकी शिकायत करने पहुंच गयीं। हालांकि, बारासात पुलिस स्टेशन के स्टेशन हाउस ऑफ़िसर ने प्राथमिकी (प्रथम सूचना रिपोर्ट) दर्ज करने से इनकार कर दिया।

ऋण उत्पीड़न की शिकायतें

भारत भर में ज़्यादतर पुलिस स्टेशन क़र्ज़ वसूली से जुड़ी शिकायतों को 'ग़ैर-संज्ञेय' मानते हैं, जिसका मतलब यह है कि पुलिस बिना वारंट के आरोपी को गिरफ़्तार नहीं कर सकती और न ही वे अदालत की अनुमति के बिना जांच शुरू कर सकती हैं। ऐसे मामलों में पुलिस एक ग़ैर-संज्ञेय रिपोर्ट या एनसीआर दर्ज करती है। एनसीआर में आमतौर पर चोरी के मामले दर्ज होते हैं। एफ़आईआर और एनसीआर में सबसे बड़ा फ़र्क़ यही होता है कि एनसीआर थाने के रिकॉर्ड में रहता है, उसे कोर्ट नहीं भेजा जाता। पुलिस भी एनसीआर की जांच नहीं करती है।

मिंट अख़बार के आर्थिक मामलों के पत्रकार तिनेश भसीन बताते हैं, "ऋण उत्पीड़न की शिकायतें एनसीआर के रूप में दर्ज करने के पीछे का एक प्रमुख कारण स्थानीय पुलिस को दी जाने वाली रिश्वत है।" भसीन ने आगे बताया, “एनसीआर दर्ज किये जाने का मतलब शिकायतकर्ता को तुष्ट करने के साथ-साथ जांच की ज़िम्मेदारी से पीछा छुड़ाना भी है। वसूली करने वाले बाउंसरों के ख़िलाफ़ शिकायत करने वालों को यह सुनिश्चित कर लेना होगा कि वे प्राथमिकी दर्ज करने जा रहे हैं। शारीरिक नुक़सान की धमकियां आपराधिक होती हैं। पुलिस ऐसे मामलों की जांच करने के लिए बाध्य है।" ।

नंदी को जिन फ़ोन नम्बरों से परेशान किया जा रहा था, वे गोपाल बानिक के थे।

54 वर्षीय बनिक उस एएजी फिनकॉर्प के मालिक हैं, जो एक्सिस बैंक की ओर से प्रतिनियुक्त एक भौतिक क़र्ज़ वसूली करने वाली एजेंसी है, जो कोलकाता के दमदम में एक छोटे से दफ़्तर में काम करती है। उनके डेस्क के पीछे की दीवार पर बड़ी प्रमुखता से भारतीय बैंकिंग और वित्त संस्थान से डीआरए (ऋण वसूली एजेंट) प्रमाणन नज़र आता है।

एएजी फ़िनकॉर्प देश भर में फैले सैकड़ों दूसरी 'वसूली एजेंसियों', 'वित्त समाधान समूहों' और 'प्रत्यक्ष विपणन एजेंसियों' की तरह अपने एजेंटों को उन लोगों के पंजीकृत पते पर भेजता है, जिन्होंने बैंकों या ग़ैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों (NBFCs) से लिये गये क़र्ज़ों को चुकाना बंद कर दिया है।  

बानिक ने बताया, "कर्ज़दारों के बीच महामारी से पैदा हुए वित्तीय तनाव के चलते बैंकों और अन्य ऋणदाताओं में डिफ़ॉल्टरों की संख्या में बढ़ोत्तरी होती देखी जा रही है। इसलिए, हम पिछले एक साल से अच्छा कारोबार कर रहे हैं।" 

बानिक और उनके कर्मचारी आमतौर पर अल्पकालिक ऑपरेशन के लिए वसूली की एक फ़ीसदी रक़म शुल्क के रूप में लेते हैं, जबकि दीर्घकालिक वसूली के लिए उनकी एक सुनिश्चित फ़ीस होती है। वे कुछ अनिवार्य अग्रिम शुल्क भी लगाते हैं, जो अलग-अलग मामले के आधार पर बदलती रहती है। यह ऑपरेशन और इस काम को अंजाम देने के लिए जितने लोगों की ज़रूरत होती है, उस पर निर्भर करता है। जब वह इसे वहन करने की हालत में होता है, तो बानिक लेनदार से सस्ती क़ीमत पर ऋण भी ख़रीद लेता है और फिर उस ऋण को देनदारों से वसूली करता है।

बानिक का कहना है, "क़र्ज़ वसूली करने वाली एजेंसियों के बारे में लोगों की एक बड़ी ग़लत धारणा यह है कि इसमें बहुत सारी कार्रवाइयां शामिल होती हैं। असलियत यही है कि अब बहुत सारे काम ऑनलाइन हो गये हैं। एजेंसियां इस सिलसिले में कॉल सेंटरों की तरह ही काम करती हैं। हम यूपीआई से ऑनलाइन भुगतान भी स्वीकार करते हैं। बड़ी एजेंसियों के पास तो पेमेंट गेटवे आईडी भी होती है।”

अपने ऑपरेशन की वैधता के बारे में पूछे जाने पर बानिक ने डिफ़ॉल्टरों को भेजे जाने वाले क़ानूनी नोटिसों का अंबार दिखाया। उनके पास यूज़र्स से जुड़ी तमाम जानकारियां थीं, जैसे कि नाम, विवरण और नोटिस भेजने वाले का निवास स्थान; भौतिक वसूली शुरू क्यों की गयी, इसका विवरण; इस नोटिस के भेजने वालों की तरफ़ से दावा की गयी मौद्रिक राहत; और उन दावों का क़ानूनी आधार, यानी वित्तीय प्राप्तियों के प्रतिभूतिकरण और पुनर्निर्माण और प्रतिभूति ब्याज अधिनियम, 2002 के लागू करने की व्याख्या। इन सभी नोटिसों पर वकीलों की ओर से किये गये हस्ताक्षर भी दिखते हैं।

बानिक ने किसी भी नोटिस की तस्वीर लेने या उसके विवरण को नोट करने की इजाज़त नहीं दी। 

क़र्ज़ वसूली वाली कंपनियों की जवाबदेही

एएजी फ़िनकॉर्प का यह कारोबार शायद ही उतना साफ़-सुथरा दिखता है, जितना कि उसके मालिक दिखाना चाहते हैं। छोटे-छोटे शहरों और ग्रामीण भारत में इस ऋण वसूली में न सिर्फ़ बैंक, बल्कि निजी साहूकार, ऐप्स और क्रेडिट पर काम करने वाले व्यवसाय भी शामिल हैं। ज़्यादातर देनदार ऐसी स्थिति में होता है, जहां उनके पास नक़दी नहीं होती है और आख़िरकार उन्हें यह भुगतान वस्तु के रूप में करना पड़ता है।

काग़ज़ पर उधारदाता, चाहे वह कोई बैंक हो या कोई माइक्रोफ़ाइनेंस फ़िनटेक समूह हो, भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) से मान्य हो या मान्य नहीं हो, उन्हें वसूली की सख़्त रणनीति का इस्तेमाल नहीं करना होता है। आरबीआई ने इसके लिए दिशानिर्देश तय किये हैं, जिसमें यह परिभाषित किया गया है कि कोई रिकवरी एजेंट क्या-क्या कर सकता है और क्या-क्या नहीं कर सकता है।

इन नियमों के मुताबिक़, अगर ग्राहक ने कोई शिकायत की है, तो बैंक या वैध ऋणदाता वसूली के मामलों को एजेंसियों को तब तक नहीं सौंप सकता है, जब तक कि ऋणदाता शिकायत का निपटारा नहीं कर लेता। अगर क़र्ज़ देने वाला 30 दिनों के भीतर इस सिलसिले में कार्यवाई करने में नाकाम रहता है, तो उधार लेने वाला बैंकिंग लोकपाल से संपर्क कर सकता है। बैंकिंग लोकपाल (शिकायत के आधार पर शामिल किसी भी सेवा में कमी के ख़िलाफ़ ग्राहकों की शिकायतों का निवारण करने वाला) आरबीआई की ओर से नियुक्त एक वरिष्ठ अधिकारी होता है। उधार देने में शामिल बैंक, एनबीएफ़सी, पीयर-टू-पीयर लेंडर्स (एक दूसरे से उधार लेने वाले) और एसेट रिकंस्ट्रक्शन कंपनियों जैसे सभी संस्थानों को इन दिशानिर्देशों का पालन करना चाहिए।

उधार देने वालों के पास जनता के लिए मुहैया कराये गये उनके सभी वसूली भागीदारों की संपर्क सूची भी होनी चाहिए। देश के सभी अनुसूचित वाणिज्यिक बैंक ऐसे डेटाबेस का रखरखाव करते हैं।

हालांकि, ऋणदाता की ओर से कितनी सूचियां सत्यापित की जाती हैं, यह बहस का विषय है।

इस रिपोर्ट के लिए हमने जिन 10 रिकवरी एजेंट के दफ़्तरों के सर्वेक्षण किये थे, उनमें से बानिक सहित सात ने अपने कार्यालयों को पते ग़लत दिये थे। इन एजेंटों को सार्वजनिक रूप से एक्सिस बैंक, एचडीएफ़सी बैंक, आईसीआईसीआई बैंक और पटना, कोलकाता, रांची, चेन्नई और पुणे में भारतीय स्टेट बैंक की ओर से प्रतिनियुक्त किये जाने के रूप में सूचीबद्ध किया गया है।

बानिक जैसे कुछ रिकवरी एजेंटों के साथ समस्या यह है कि उनके पास आरबीआई या किसी केंद्रीय या राज्य प्राधिकरण की ओर से दिया गया लाइसेंस नहीं है और यही वजह है कि वह पूरी तरह से जवाबदेह भी नहीं हैं।

पश्चिम बंगाल के दुर्गापुर स्थित ऋण निपटान मामले के विशेषज्ञ वकील चिरंदीप रे कहते हैं, “रिकवरी एजेंसी स्थापित करना सरल है। आपको किसी लाइसेंस या प्रमाणपत्र की ज़रूरत नहीं होती है (हालांकि बैंक ऐसा करना चाहते हैं)। आपको सिर्फ़ बुनियादी हिसाब-किताब जानने की ज़रूरत होती है।”  रे आगे कहते हैं, "अब, आपको एक मेमोरेंडम और संस्था के अंतर्नियम तैयार करना होगा और उन्हें स्थानीय रजिस्टर ऑफ कंपनीज में जमा कराना होगा। फिर, जीएसटी (वस्तु और सेवा कर) फ़ॉर्म और टैन (कर कटौती खाता संख्या) के अनुमोदन की ज़रूरत होगी। एक बार काग़ज़ात तैयार हो जाने के बाद आपकी एजेंसी के पास एक नई विशिष्ट आईडी होगी और आप इस काम को करने के लिए तैयार हो जाते हैं।" 

रे ने कहा कि इन दिनों ज़्यादातर बड़े-बड़े बैंक अपनी ऋण वसूली टीम ख़ुद बनाते हैं और सिर्फ़ उन मामलों में ही तीसरे पक्ष के ऑपरेटरों की प्रतिनियुक्ति करते हैं, जब उनकी किसी शाखा में वसूली टीम नहीं होती है; या फिर अगर देनदार किसी पास के शहर या गांव में रहता है; और अगर वह भुगतान करने में आना-कानी कर रहा होता है। उनका कहना है, "ज़्यादातर भौतिक वसूली का पता इस आख़िरी परिदृश्य में लगाया जा सकता है। आमतौर पर एजेंट यही चाहते हैं कि डिफ़ॉल्टर अपने भुगतान की गति को बढ़ाये। समय ज़्यादा लेने का मतलब यही होता है बैंक को ज़्यादा ब्याज़ देना होगा।"

अविनियमित इंटरनेट ऋणदाता

अब सवाल यह है कि अगर अविनियमित वसूली एजेंट इतनी बेहिसाब तादाद में हैं, तो उनकी सेवायें लेता कौन है?

उसका जवाब है- अविनियमित उधारदाता।

तत्काल क़र्ज देने वाले इन ऐप्स, उनके स्वामित्व के स्वरूप, उन्होंने जिस तरह लाखों लोगों को क़र्ज़ के जाल में फंसाया है, कर्ज़ लेने वालों का अपमान और इस अपमान के चलते होने वाली आत्महत्याओं की संख्या पर मीडिया की गहन जांच-पड़ताल होने के बाद आरबीआई अविनियमित इंटरनेट ऋण देने वाले इन क्षेत्रो को अपने नियमों के तहत लाने की कोशिश कर रहा है।  

इसने अब 5 करोड़ रुपये से ज़्यादा की संपत्ति वाले ग़ैर-बैंकिंग ऋणदाता समूहों (पूर्वोत्तर से बाहर के लोगों के लिए 2 करोड़ रुपये) के लिए एनबीएफ़सी, माइक्रो फ़ाइनेंस इंस्टीट्यूशंस(NBFC-MFIs) के रूप में पंजीकरण कराना आसान बना दिया है।

तत्काल क़र्ज़ मुहैया कराने वाले ऐप में फ़ंसे उधार लेने वाले लोगों को क़ानूनी मदद दे रहे एक ग़ैर सरकारी संगठन सेवदेम के संस्थापक बालाजी या पीबी कलाइसेल्वन कहते हैं, "माइक्रोफ़ाइनेंस संस्थानों का भारत में एक अलग ही इतिहास रहा है और इसलिए, जनता इसे संदेह की नज़रों से देखती है। सरकारी मान्यता अपने साथ बाज़ार को बहुत ज़रूरी विश्वास भी दिलाती है। कई एंड्रॉइड मार्केटप्लेस में इंस्टेंट लोन और बीएनपीएल ऐप पर एक नज़र डालने पर आपको साफ़-साफ़ दिखेगा कि सबसे ज़्यादा डाउनलोड होने वाले ऐप आरबीआई से मिली अपनी इस मान्यता को प्रमुखता से विज्ञापित करते हैं।” 

कोलकाता के आईटी हब सेक्टर V में एक व्यस्त जंक्शन के सामने एक प्राइम बिजनेस पार्क की पांचवीं मंजिल पर स्थित उस एमपॉकेट(MPokket) का दफ़्तर है, जो एक एनबीएफ़सी से संचालित एक ऐसा ऐप है, जिसे मेब्राइट वेंचर्स प्राइवेट लिमिटेड कहा जाता है, जिसने छात्रों और स्वरोजगार करने वाले लोगों को 1,200 करोड़ रुपये से ज़्यादा का ऋण देकर वित्तीय वर्ष 2020-21 में 72.4 करोड़ रुपये का राजस्व कमाया है।

इसके संस्थापक गौरव जालान के मुताबिक़, अमेरिका में बतौर एक अंतर्राष्ट्रीय छात्र विभिन्न साक्षात्कारों में वह एक क्रेडिट कार्ड प्राप्त करने में सक्षम थे, जिससे उन्हें अपने वित्तीय मामलों में "बहुत" मदद मिली थी। जालान ने योरस्टोरी से बात करते हुए कहा, “इसी ज़रूरत को देखते हुए हमने ऐप बनाने को लेकर स्मार्टफ़ोन की बढ़ती पैठ का फ़ायदा उठाने को एक अवसर के रूप में देखा। इस ऐप के ज़रिये तकनीक का इस्तेमाल करने वाले कॉलेज के छात्र तत्काल नक़दी की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए आसानी से और तुरंत छोटी-छोटी मात्रा में पैसे उधार ले सकते हैं।”  

उस छोटी अनुमोदन प्रक्रिया के बाद (जो एक घंटे से लेकर कुछ दिनों तक चल सकती है) और जिसके लिए उपयोगकर्ता को अपना आधार, पैन, यूपीआई और बैंक विवरण अपलोड करने की ज़रूरत होती है, एमपॉकेट (MPokket) ज़्यादा से ज़्यादा तीन महीने की ऋण वापसी की अवधि लिए 500 रुपये से लेकर 20,000 रुपये तक का ऋण मुहैया करा देता है। बदले में यह हर माह 15% की उच्च ब्याज दर और ऋण राशि का लगभग 10% प्रक्रियागत शुल्क लेता है। भुगतान करने में चूक जाने वालों पर प्रति दिन 8 रुपये का जुर्माना लगाया जाता है, जो भुगतान पूरा होने तक हर दिन लगता रहता है।

38 वर्षीय जालान ने पीटीआई से कहा, “2020-21 में तो हम 2,000 करोड़ रुपये से ज़्यादा का वितरण कर सकते हैं।” इसका मतलब यह है कि साल दर साल 70% से ज़्यादा की बढ़ोत्तरी। जालान कहते हैं, “हमारे पास 70 लाख से ज़्यादा पंजीकृत उपयोगकर्ता हैं, जिनमें से तक़रीबन 13 लाख ने अपना ईकेवाईसी किया है। हमें उम्मीद है कि ईकेवाईसी संख्या 15 लाख तक पहुंच जायेगी।”

जालान आइवी लीग एमबीए की तीसरी पीढ़ी के व्यवसायी हैं और संयुक्त राज्य अमेरिका में एक वित्तीय प्रबंधक और उद्यमी के रूप में एक दशक का अनुभव रखते है। उनका क्रंचबेस प्रोफ़ाइल बतता है कि उन्होंने सैन फ़्रांसिस्को स्थित मूल निवेशक, विल्कैप इन्वेस्टमेंट्स से  4 मिलियन डॉलर के शुरुआती निवेश के साथ मेब्राइट वेंचर्स (2016 में शुरू) को स्थिपित किया था। अब तक उनकी कंपनी ने दो दौर की फ़ंडिंग में 8.22 मिलियन डॉलर से ज़्यादा की रक़म जुटाई है।

ऐसे में सवाल पैदा होता है कि लाखों उपयोगकर्ताओं वाली यह कंपनी कैसे सुनिश्चित करती है कि उधार लेने वाले डिफ़ॉल्ट न करें ?

जालान ने द टेलीग्राफ़ को बताया, "हमारी सत्यापन प्रणाली प्रत्येक आवेदक की अच्छी तरह से जांच करती है।" अगर एमपॉकेट(MPokket) के सिस्टम को पता चल जाता है कि अपलोड की गई आईडी नक़ली है या उपयोगकर्ता अपने बारे में झूठ बोल रहा है या अगर दूसरे इसी तरह के ऐप पर उनके भुगतान करने का तरीक़ा ठीक नहीं है, तो वे आसानी से सत्यापित नहीं हो पाते हैं।

मेब्राइट वेंचर्स भारत के चार क्रेडिट ब्यूरो में से एक, ट्रांसयूनियन सिबिल लिमिटेड से भी सम्बद्ध है, जो कि 60 करोड़ से ज़्यादा लोगों और 3.2 करोड़ व्यवसायों के क्रेडिट फ़ाइलों का रखरखाव करता है। कंपनी 300 और 900 के बीच तीन अंकों में ऋण मुहैया कराती है। देश के कई बड़े-बड़े बैंक इस स्कोर के आधार पर ऋण को मंज़ूरी देते हैं, मगर एमपॉकेट पर एक भी गड़बड़ी से किया गया पुनर्भुगतान यहां प्रतिबिंबित हो सकता है।

मेब्राइट वेंचर्स की कॉर्पोरेट पहचान संख्या और नाम आरबीआई की अनुमोदित एनबीएफ़सी, एनबीएफ़सी-एमएफआई और एनबीएफ़सी-आईसीसी (निवेश और क्रेडिट कंपनियों) की जिन सूचियों के ज़रिये चलाये जाते थे, वे कहीं नहीं दिखते।

दिलचस्प बात तो यह है कि एमपॉकेट से जुड़ी तीन कंपनियां एनबीएफ़सी-आईसीसी के डेटाबेस पर दिखती हैं। इनमें से दो हैं- जालान केमिकल्स प्राइवेट लिमिटेड और जालान होल्डिंग्स प्राइवेट लिमिटेड। मधुकर जालान के स्वामित्व वाली ये दो कंपनियां, 2020 के आख़िर तक एमपॉकेट के सभी एमपॉकेट के प्राथमिक भुगतान करने वाली कंपनियां थीं। पिछले साल नवंबर के आसपास ही मेब्राइट वेंचर्स ने शिकायत करने के बावजूद परिचालन को संभाला था। 2019 और 2020 में एमपॉकेट के कुछ ऋण अनुबंधों पर एक नज़र डालने से इस जानकारी का आधार मिल जाता है।

व्हिसलब्लोअर विजयराघवन एक साइबर-सुरक्षा विशेषज्ञ हैं और इनके स्टार्ट-अप ने इस साल की शुरुआत में तमिलनाडु सार्वजनिक वितरण प्रणाली के डेटा उल्लंघन को लेकर ख़तरे की चेतावनी दी थी। विजयराघवन ने बताया कि एनबीएफ़सी-आईसीसी निजी व्यक्तियों को अल्पकालिक ऋण नहीं दे सकते। उन्होंने कहा, “आईसीसी अनिवार्य रूप से परिसंपत्ति वित्तपोषण कंपनियां हैं। इसका मतलब यह है कि वे अपने उत्पाद पर मासिक किस्त सेवायें दे सकते हैं। वे ऋण पर एक निश्चित ब्याज़ ले सकते हैं। उदाहरण के लिए, अगर आप बैंकों को शामिल किये बिना मासिक किस्त पर हीरो मोटर्स से वाहन खरीदना चाहते हैं, तो आप ऋण के लिए इस कंपनी के आईसीसी हीरो फिनकॉर्प से संपर्क करें।"

यह व्याख्या 2019 में आरबीआई की तरफ़ से प्रकाशित एनबीएफ़सी-आईसीसी की परिभाषा के साथ तब सही बैठती है, जब इसने तीन श्रेणियों- परिसंपत्ति वित्त कंपनियों, निवेश कंपनियों और ऋण कंपनियों को एक में जोड़ दिया। आईसीसी किसी भी प्रकार की जमा राशि को स्वीकार नहीं कर सकता है।

सिर्फ़ आरबीआई से स्वीकृत माइक्रोफ़ाइनेंस संस्थानों को ही व्यक्तिगत ऋण वितरित करने की अनुमति है। इन कंपनियों को सख़्त आचार संहिता का पालन करना होता है। इसका मतलब यह है कि एनबीएफ़सी-एमएफ़आई देर से भुगतान करने पर जुर्माना नहीं लगा सकते हैं और उन्हें कॉल करने की अनुमति नहीं है।

इसके अलावे, ग़ौरतलब है कि ई-केवाईसी सेवाओं को देश भर में सिर्फ 150 वित्तीय संस्थानों के लिए अधिकृत किया गया है। इस संख्या में से लगभग 107 बैंक हैं, जबकि बाक़ी व्यापक रूप से विश्वसनीय बीमा प्लेटफ़ॉर्म (एलआईसी, आईसीआईसीआई प्रू लाइफ़) सरकारी विभाग (राष्ट्रीय स्वास्थ्य प्राधिकरण), सार्वजनिक कंपनियां (भारत पेट्रोलियम), दूरसंचार की दिग्गज कंपनियां (वोडाफ़ोन, जियो) और बिग टेक बहुराष्ट्रीय कंपनियां (गूगल, अमेज़न, पेटीएम)) हैं। ये कंपनियां इन सेवाओं का इस्तेमाल करने के सिलसिले में केंद्र के भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण (यूआईडीएआई) के शुल्क का भुगतान करती हैं।

एक आरटीआई आवेदन के जवाब में यूआईडीएआई की ओर से साझा किये गये प्रमाणित ई-केवाईसी उपयोगकर्ताओं की सूची में न तो मेब्राइट और न ही कोई जालान कंपनियां पायी गयी हैं।

मेब्राइट वेंचर के एंड-यूज़र समझौते पर एक नज़र डालने से कुछ परेशान करने वाले मुद्दे भी सामने आते हैं। कंपनी न सिर्फ़ उपयोगकर्ता की आधार आईडी, बैंक खाता संख्या और पैन आईडी का रिकॉर्ड रखती है, बल्कि उनके टेक्स्ट संदेश भी पढ़ती है, उनके संपर्कों को देखती भी है, उनके कॉल इतिहास की जांच भी करती है और दूसरे ऐप के इस्तेमाल करने के तरीक़ों पर भी नज़र रखती है। एमपॉकेट की पहुंच उधारकर्ता के असली जीवन के जीपीएस लोकेशन तक भी है।

इन तमाम विवरणों से पता चलता है कि एमपॉकेट प्रोफ़ाइल बनाने के लिए ग्राहकों की उन जानकारियों का मिलान और उनका विश्लेषण कर सकती है, जिसके लिए अनुसंधान संस्थान और बैंक अच्छे-ख़ासे पैसे दे देंगे। नियम और शर्तों पर इन बातों का ज़िक़्र है कि एमपॉकेट चाहे, तो अनिवार्य रूप से उपयोगकर्ता की जानकारी का उपयोग कर सकता है, जिसमें उन जानकारियों का विश्लेषण भी शामिल है।      

अपने किसी भी इंटरव्यू में जालान ने इस बारे में विस्तार से जानकारी नहीं दी है।

लेकिन, अगर आपको लगता है कि एमपॉकेट एकमात्र ऐसा ऐप है, जो इन साधनों का इस्तेमाल करता है तो आपको तत्काल क़र्ज़ मुहैया कराने वाले ऐसे ऐप की बड़ी संख्या देखकर हैरानी होगी, जो ख़ुद को आरबीआई से अनुमोदित ऐप के तौर पर प्रचारित करते हैं। इस लेख के लिए सर्वेक्षण किये गये 30 ऐसे ऐप (जिनमें से सभी को गूगल प्लेस्टोर पर कम से कम एक लाख बार डाउनलोड किया गया था) में से महज़ छह ही आरबीआई की एनबीएफ़सी सूची में ख़ुद को पाते हैं। इनमें से सिर्फ़ फ़िनोवेशन टेक सोल्यूशन्स(क्रेडिटबी और इसकी सहायक कंपनियां चला रहे हैं) और ब्रांच इंटरनेशनल (एशिया और अफ़्रीका में संचालित होने के साथ-साथ यूएस-आधारित ऋण देने वाला एक समूह) ही माइक्रोफाइनांस संस्थान हैं। ग़ैर-एमएफ़आई एनबीएफ़सी में आईसीसी जालान केमिकल्स, पीसी मीडिया (कैशबीन) और आरके फ़ाइनांस (eRupee) शामिल हैं। बाक़ी एनबीएफ़सी एक इंफ़्रास्ट्रक्चर फ़ाइनांस कंपनी है, जिसे सेल इंडिया फ़ाइनांस (IndiaLends) कहा जाता है।        

चिरनदीप रे ने बताया, "ऐप्स को कुछ सुरक्षा इसलिए मुहैया करायी जाती है, क्योंकि उनमें से ज़्यादातर सही मायने में महज़ तीसरे पक्ष हैं, जो क़र्ज़ की व्यवस्था करते हैं, न कि उन संस्थाओं के बजाय ख़ुद ही ऋण बांटते हैं।" उन्होंने कहा, "आरबीआई ने अभी तक इस मसले का हल नहीं ढूंढा है।"

जालान के संचालन पर चेतावनी देने वाले विजयराघवन भी इस बात से सहमत दिखते हैं। उन्होंने 17 जुलाई को केंद्र, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल के गृह सचिवों के साथ-साथ आरबीआई गवर्नर और आयकर निदेशक (खुफ़िया और आपराधिक जांच) और प्रवर्तन निदेशालय को इस बारे में व्हिसल ब्लोअर अधिनियम के तहत लिखा था।

अपनी शिकायत में विजयराघवन ने ज़िक़्र किया था कि एमपॉकेट के ज़्यादतर उपयोगकर्ता ऐसे छात्र हैं, जिनके पास इन कर्ज़ों को वापस करने के साधन तक नहीं हैं, जिसकी वजह से प्रति वर्ष 60% तक की दर से ब्याज़ जुड़ जाता है। इस शिकायत में आरबीआई के उधार मानदंडों और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अवलोकन के उल्लंघन में इन ऐप की वसूली टीमों की ओर से इस्तेमाल की जाने वाली कथित उत्पीड़न रणनीति का भी विवरण देते हुए कहा गया है कि "सरेआम किसी का नाम ग़लत कार्यों के साथ जोड़कर उजागर करना मानवाधिकारों का सरासर उल्लंघन है। इस साइबर कार्यकर्ता ने आगे आरोप लगाते हुए कहा कि एमपॉकेट ने उन कंपनियों को छोड़कर गूगल की डेवलपर अंतर्वस्तु नीति का भी उल्लंघन किया है, जो केवल अल्पकालिक व्यक्तिगत ऋण प्रदान करती हैं, जिन्हें प्लेस्टोर से ऋण जारी होने की तारीख़ से 60 दिनों या उससे कम समय में पूरे भुगतान की ज़रूरत होती है।

“यही वास्तविक संदेह को जन्म देता है कि एनबीएफ़सी ने आरबीआई और आरओसी के साथ अपने डेटा को छुपाया हो या फिर हो सकता है कि ग़लत तरीक़े से पेश किया हो और कुछ मामलों में चीनी कंपनियों की मिलीभगत से मनी लॉन्ड्रिंग, जासूसी और कर चोरी, मनी लॉन्ड्रिंग, अस्पष्ट स्वामित्व, बेनामी लेनदेन आदि जैसे अवैध उद्देश्यों में शामिल हो।  

विजयराघवन का आरोप है, "तक़रीबन सभी कथित 'सरकार से सत्यापित' तत्काल ऋण मुहैया कराने वाले ऐप धोखाधड़ी में लिप्त हैं।" उन्होंने आगे बताया, "आम आदमी उन पर तब भरोसा करता है, जब वे कहते हैं कि वे एक पंजीकृत एनबीएफ़सी हैं। लेकिन, आम आदमी, ख़ास तौर पर मध्यवर्गीय छोट-छोटे शहरों और ग्रामीण नौजवान जिन्हें ये ऐप अपना निशाना बनाते हैं, यह नहीं जानते कि एनबीएफसी की अलग-अलग श्रेणियों के अलग-अलग कार्य हैं। ये ऐप ऑपरेटर इस वित्तीय और कानूनी अज्ञानता का इस्तेमाल लाखों ज़िंदगियों पर क़हर बरपाने के लिए करते हैं। ”

(लेखक कोलकाता स्थित स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

How Suburban, Rural Youth are Being Sucked Into Instant Loan Apps ‘Trap’

Instant Loan Apps
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