विवादित कृषि कानूनों के खिलाफ चल रहे किसान आंदोलन के बीच राष्ट्रीय मुद्रीकरण पाइपलाइन (देश की संपत्तियों को बेचने की योजना) घोषित होने के बाद देश में यह बहस आम होती जा रही है कि क्या भारत अब कुलीनतंत्र (Oligarchy) की तरफ बढ़ रहा है? यानी देश की संपत्तियों, संसाधनों व व्यवसायों पर चंद पूंजीपतियों का नियंत्रण हो जाएगा और फिर भविष्य वे ही 135 करोड़ देशवासियों के भाग्य विधाता बन जाएंगे?
इसे लेकर विपक्षी पार्टियों, श्रमिक संगठनों व युवाओं में जबरदस्त बेचैनी देखी जा रही है। ध्यान रहे कि किसानों में भी यही डर कि यदि तीनों कृषि कानून लागू हो गए तो सालाना 25 लाख करोड़ रुपए से भी अधिक के खेती-किसानी के कारोबार कुछ बड़ी कंपनियों के शिकंजे में आ जाएगा और उनकी स्थिति एक बंधुआ मजदूर जैसी हो जाएगी।
अब वर्ष 2022 से 25 के बीच दर्जनभर मंत्रालयों के तहत आने वाली 22 से ज्यादा संपत्तियों के मुद्रीकरण से 6 लाख करोड़ रुपए जुटाने की तैयारी कर ली गई है। इनमें सड़कों से 1,60,200 करोड़, रेलवे से 1,52,496 करोड़, बिजली ट्रांसमिशन 45,200 करोड़, बिजली उत्पादन 39,832 करोड़, प्राकृतिक गैस पाइपलाइन 24,462 करोड़, प्रोडक्ट पाइपलाइन/ अन्य 22,504 करोड़, दूरसंचार 35,100 करोड़, गोदाम (वेयरहाउस) 28900 करोड़, खदाने 28,747 करोड़, उड्डयन 20,782 करोड़ बंदरगाह 12,828, शहरी रियल एस्टेट से 1,5000 करोड़ और स्टेडियम से 11,450 करोड़ रुपए हासिल करने का लक्ष्य रखा गया है।
सरकार का कहना है कि इससे देश की संपत्तियों के स्वामित्व पर कोई असर नहीं पड़ेगा, बल्कि निजी क्षेत्र के निवेश से इन्हें विकसित और संचालित किया जाएगा।
सवाल उठता है कि जब निजी कंपनियों को सालों-साल की लंबी अवधि के लिए सड़कें, रेलवे स्टेशन, हवाई अड्डे, बंद या खदान आदि पट्टे या अनुबंध पर दिए जाएंगे तो उसमें सरकार के स्वामित्व का कितना मतलब रह जाएगा? कंपनियां तो इन संपत्तियों के जरिए ज्यादा से ज्यादा मुनाफा काटने की कोशिश करेंगी। अगर उन्हें जरा भी नुकसान दिखा तो वे इन्हें बीच में ही छोड़ देंगी। ऐसे कई उदाहरण पहले देखे जा चुके हैं। दूसरे 30-40 बरस बाद यदि कोई संपत्ति सरकार के पास वापस भी आती है तो वह उसे आगे कैसे संचालित कर पाएगी? लोग इस बात को लेकर भी चिंतित हैं कि कुलीन तंत्र जिस देश में हावी हुआ है, वहां इसने उसके कल्याणकारी राज्य (वेलफेयर स्टेट) के स्वरूप को नुकसान पहुंचाया है।
भारत में तो, यहां के संविधान में कल्याणकारी राज्य की बात कही गई है। यही कारण है कि यहां नागरिकों को भोजन, शिक्षा व पढ़ाई आदि का कानूनी अधिकार दिया गया है और मनरेगा जैसी योजना चलाई जा रही है। जब देश की संपत्तियां और संसाधन चंद कारपोरेट घरानों के शिकंजे में आ जाएंगे तो इसके कल्याणकारी राज्य का कितना अर्थ बचा रह पाएगा?
इतना ही नहीं सवाल इलेक्टोरल बांड्स को लेकर भी उठ रहे हैं। बड़ी कॉरपोरेट कंपनियां सत्ताधारी पार्टी को ही मोटा चंदा देंगी, क्योंकि उसी की कृपा के से उन्हें देश की संपत्तियां हासिल होंगी। हाल के दिनों में इलेक्टोरल बांड के आंकड़ों पर नजर डाली जाए तो तस्वीर अपने आप साफ हो जाती है।
वर्ष 2019-020 के दौरान देश की 18 राजनीतिक पार्टियों को इलेक्टोरल बांड के जरिए करीब 3441 करोड़ रुपए चंदे की शक्ल में मिले, जिसमें 75 फीसदी हिस्सा भाजपा के खाते में आया था।
बहरहाल, विवादित कृषि कानूनों की तरह राष्ट्रीय मुद्रीकरण पाइपलाइन (एनएमपी) को लेकर भी देश में विरोध के स्वर तेज हो रहे हैं। इसकी घोषणा होते ही सीपीएम ने कहा कि यह देश की जनता की संपदा की लूट है। रोजमर्रा का खर्च पूरा करने के लिए घर का जेवर, कपड़ा बेचना कोई अक्लमंदी नहीं है। दूसरे इस समय बाजार ढीला है। परिसंपत्तियों को मिट्टी के मोल बेचने से दरबारी कॉर्पोरेट को ही फाएदा होगा और गोदी पूंजीवाद को बढ़ावा मिलेगा। वहीं 90 के दशक में उदारीकरण और निजीकरण की शुरुआत करने वाली कांग्रेस भी एनएमपी को लेकर काफी मुखर है। पार्टी ने इसके खतरों के बारे में आम जनता को जानकारी देने के लिए अपने नेताओं को मैदान में उतार दिया है। वे देश के विभिन्न शहरों में इस मुद्दे पर प्रेस कांफ्रेंस कर रहे हैं। साथ ही युवा कांग्रेस ने धरना-प्रदर्शन भी शुरू कर दिए हैं। पार्टी नेता राहुल गांधी का कहना है कि वे निजीकरण के खिलाफ नहीं हैं, लेकिन जो क्षेत्र या संपत्तियां देश के लिए महत्वपूर्ण है और जिनसे रोजगार का सृजन होता है, उनके साथ इस तरह की छेड़छाड़ नहीं होनी चाहिए।
पहले कांग्रेस की सरकारों ने सार्वजनिक क्षेत्र की उन्हीं कंपनियों का निजीकरण किया था, जो नुकसान में चल रही थीं। तब विनिवेश करते समय यह ध्यान रखा जाता था कि संबंधित क्षेत्र पर निजी कंपनियों का एकाधिकार न हो सके, लेकिन अब तो निजीकरण एकाधिकार के लिए ही किया जा रहा है। जैसे-जैसे निजी कंपनियों का एकधिकार बढ़ता जाएगा, वैसे-वैसे रोजगार के अवसर खत्म होते जाएंगे। उनका कहना है कि नोटबंदी, जीएसटी, कृषि कानून या फिर एनएमपी य़ह सभी असंगठित क्षेत्र, कृषि और छोटे कारोबार पर हमला है। एनएमपी का मकसद ही कुछ कंपनियों के एकधिकार को स्थापित करना है। सभी को पता है कि हवाई अड्डे और बंदरगाह आदि किसे दिए जा रहे हैं? देश की संपत्तियां 3-4 उद्योगपतियों को गिफ्ट दी जा रही हैं।
उधर पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भी कहा है कि सरकार और भाजपा को देश की संपत्ति बेचने का अधिकार किसी ने नहीं दिया है। उनका कहना है कि इसके खिलाफ पूरा देश उठ खड़ा होगा और इसका विरोध करेगा। इस बीच तमाम ट्रेड यूनियनों ने भी सरकार के इस फैसले के विरोध में सड़कों पर उतरने के लिए कमर कस ली है। अहम बात यह है कि जब किसान आंदोलन शुरू हुआ था तो राजनीतिक दलों से उसकी दूरी बनी हुई थी, लेकिन एनएमपी को लेकर अधिकांश विपक्षी दल, ट्रेड यूनियन, छात्र, युवा और किसान एक साथ आते दिखाई पड़ रहे हैं। यूपी, बिहार व मध्य प्रदेश आदि राज्यों में रोजगार के लिए युवाओं के जो आंदोलन चल रहे हैं, उनमें 3 कृषि कानूनों व एनएमपी के मुद्दों को भी जोरशोर से उठाया जा रहा है। समाज के विभिन्न वर्गों के स्वर एक होते देख कुछ कॉरपोरेट घरानों की बेचैनी बढ़ गई है। यही कारण है कि गोदी मीडिया के जरिए देश में सांप्रदायिक और जातीय विभाजन पैदा करने की कोशिशें तेज हो गई हैं। देशहित और जनहित के मुद्दों से जनता ध्यान भटकाने के लिए आए दिन एक नया शगूफा उछाला जा रहा है। कुछ दिग्गज कारपोरेट घरानों के स्वामित्व वाले टीवी चैनलों ने सारी हदें पार कर दी हैं। वे खबरों के अलावा वह सब कुछ दिखा और बता रहे हैं, जिससे समाज में विभाजन पैदा हो। वैसे यह पहली बार नहीं हो रहा है। यह सिलसिला तो सन 1991-92 से चला आ रहा है। जब भी देश की संपत्ति बेचने या उदारीकरण के नाम पर कुछ और अटपटे फैसले हुए हैं, तो उसके पहले एक उन्मादी माहौल बनाया गया है, ताकि जनता उसी में उलझी रहे। जिन कारपोरेट घरानों की निगाह देश की संपत्तियों व संसाधनों पर गड़ी हुई है, उन्हीं का वर्चस्व देश के मीडिया बड़े हिस्से पर भी हो गया है। अपना उल्लू सीधा करने के लिए वे जो चाह रहे हैं, कर रहे हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)