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भारत
राजनीति
नफ़रती सिनेमाई इतिहास की याद दिलाती कश्मीर फ़ाइल्स
यह फ़िल्म मुसलमानों के ख़िलाफ़ मौजूदा रूढ़ धारणाओं को मज़बूती देने के लिए फिल्मों का इस्तेमाल करते हुए एक हालिया घटना को बड़ा बनाकर पेश करती है और और इसका इस्तेमाल देश को ज़्यादा सांप्रदायिक बनाने के लिए अनऐतिहासिक अतीत को सत्ता पक्ष के प्रबल समर्थन के साथ जोड़ देती है।
इमाद उल हसन
24 Mar 2022
The kashmir file

आप अगर विवेक अग्निहोत्री का कोई भी हालिया साक्षात्कार देखना शुरू करें, तो आप उन्हें अपनी फ़िल्म की तुलना प्रतिष्ठित फ़िल्म शिंडलर्स लिस्ट से करते हुए पायेंगे। लेकिन, कई लोग मानते हैं कि अग्निहोत्री की यह नयी फ़िल्म- कश्मीर फाइल्स अपने मूल्यों और विश्वदृष्टि में शिंडलर्स लिस्ट के बिल्कुल उलट है।

आख़िर, ऐसा क्यों न हो,क्योंकि अग्निहोत्री का हक़ीक़त के साथ एक बहुत ही मनोरंजक रिश्ता रहा है। उन्होंने एक बार कई हताश भरे ट्वीट्स लिखकर मुंबई पुलिस से शिकायत की थी कि लोग उनके नाम से फ़ोटोशॉप्ड ट्वीट शेयर कर रहे हैं। बाद में यह पता चला था कि असल में वे ट्वीट्स उनके ख़ुद के थे। कुछ ट्वीट्स तो हटा लिये गये थे, और कुछ अब भी उनकी टाइमलाइन पर मौजूद हैं।

शोधकर्ता और इतिहासकार अब उन पर ख़ुद की फ़िल्म के ज़रिये वही सब करने का आरोप लगा रहे हैं, जो सब उनके ट्वीट और वीडियो के ज़रिये किये जाने को लेकर उनकी आलोचना होती रही है,यानी नफ़रत भरे एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए आधे सच को पेश करना।

‘कश्मीर और कश्मीरी पंडित: बसने और बिखरने के 1500 साल’ के लेखक और इतिहासकार अशोक कुमार पांडेय का कहना है कि कश्मीर फ़ाइल्स ने जितनी सच्चाई दिखाने की कोशिश है, उससे ज़्यादा कई तथ्यों को छिपाने का प्रयास भी किया है।

पांडेय कहते हैं, "यह फ़िल्म ऐतिहासिक तथ्यों को ख़ारिज करती है, सच बताने के नाम पर सच को छुपाती है और इसलिए अपराध करती है। इसके अलावे, कश्मीरी पंडितों की शांति और पुनर्वास की संभावनाओं को मज़बूती देने के बजाय इसे कमज़ोर करती है। हालांकि, दक्षिणपंथी को थोड़े समय के लिए तो इसका फ़ायदा हो सकता है, लेकिन लंबे समय में ऐसी फ़िल्में राष्ट्र को भारी नुक़सान पहुंचायेंगी।"

नफ़रत के प्रतिमान

पांडे जैसे इतिहासकारों के लिए इस फ़िल्म और इसके फ़िल्म निर्माता की इस्लाम विरोधी भावना को नज़रअंदाज़ कर पाना मुश्किल है। लेकिन, इस फ़िल्म को ख़ुद प्रधानमंत्री से समर्थन मिला है, थिएटर खचाखच भरे हुए हैं, और इस फ़िल्म की जो राजनीति है,उसकी समस्याओं पर शायद ही खुलकर चर्चा हो रही है। इस फ़िल्म को देखने के बाद तमाम शहरों में फ़िल्म से प्रेरित घृणा भरी प्रतिक्रियायें खुलेआम सामने आ रही हैं और निर्माताओं के साथ-साथ अनुपम खेर भी इस तरह के वीडियो को शेयर कर रहे हैं।

लेकिन, ऐसा नहीं है कि फ़िल्मों के ज़रिए नफ़रत को मानक बना देने की यह प्रक्रिया रातोंरात हो गयी हो। अग्निहोत्री इस तरह के सिनेमा पर अपने एकाधिकार होने का दावा चाहे जितना भी कर लें, मगर सच यही है कि 2014 के बाद उन्माद से भरी इस तरह की हिंदू-राष्ट्रवादी फ़िल्मों में ज़बरदस्त बढ़ोत्तरी देखी गयी है। इसके अलावे जिस ख़ास शैली वाली फ़िल्मों को कामयाबी मिली है,वह है-ऐतिहासिक कहानियों वाली फ़िल्में। टिप्पणीकारों के एक छोटे से तबक़े ने पद्मावत, तन्हाजी, केसरी, पानीपत जैसी फ़िल्मों पर भी इस्लाम विरोधी भावना होने का आरोप लगाया था।

संजय लीला भंसाली ने अपनी आख़िरी फ़िल्म-पद्मावत के चार साल बाद पिछले महीने ही आलिया भट्ट अभिनीत गंगूबाई काठियावाड़ी को रिलीज़ किया है। इसे हाल ही में 72वें बर्लिन इंटरनेशनल फ़िल्म फ़ेस्टिवल में भी दिखाया गया है।

बर्लिन फ़िल्म फ़ेस्टिवल में प्रेस कॉफ़्रेंस खत्म होने ही वाली थी कि एक पत्रकार ने भंसाली से पूछ लिया कि "जिस राह पर इस समय भारत है और वहां के हालात जिस तरह के हैं।" क्या गंगूबाई बनाने में कोई बाधा पैदा नहीं हुई।

भंसाली की आख़िरी फ़िल्म दक्षिणपंथी हिंदू संगठनों के बड़े विरोध के कारण बहुत समय बाद रिलीज हो पायी थी। इस विरोध की शुरुआत उनके साथ बदसलूकी और उनके सेट पर तोड़-फोड़ से हुई थी। जल्द ही भीड़ सड़कों पर उतर गयी थी, जिससे आगज़नी हुई और उन्हें और उनके साथ काम करने वाले अभिनेताओं की खुलेआम हत्या किये जाने का आह्वान भी किया गया। सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (BJP) के नेताओं ने उनके सिर पर इनाम की पेशकश कर दी। चार राज्यों ने उस फ़िल्म पर तब तक प्रतिबंध लगाये रखा,जब तक कि सुप्रीम कोर्ट ने उस प्रतिबंध को रद्द नहीं कर दिया। उन चारों राज्यों में भाजपा का शासन था। आख़िरकार यह फ़िल्म केंद्रीय फ़िल्म प्रमाणन बोर्ड (CBFC) या 'सेंसर बोर्ड' के 300 कटों के साथ रिलीज़ कर दी गयी।

इससे पहले कि बर्लिन फ़िल्म फ़ेस्टिवल की प्रेस कॉन्फ़्रेंस में पत्रकार अपना सवाल पूरा कर पाता, भंसाली ने जवाब दिया था, "नहीं। बिल्कुल नहीं।"

उन्होंने अपने जवाब में कहा था, "हम एक ऐसे देश में रहते हैं, जहां अभिव्यक्ति की पूरी स्वतंत्रता है। हम जो चाहते हैं, उसे कहने से हमें कभी प्रतिबंधित नहीं किया जाता या रोका नहीं जाता, और हमारे देश में किसी फ़िल्म निर्माता को जो रचनात्मक स्वतंत्रता मिली हुई, वह ज़बरदस्त है।"

इस तरह की प्रतिक्रिया के पीछे की वजह या तो सरकार की इच्छा के सामने पूरी तरह से झुक जाना या स्वेच्छा से सत्तारूढ़ सरकार के प्रति पूर्ण निष्ठा का दिखाया जाना मानी जाती है, चाहे वे उनके और उनकी फ़िल्मों साथ कुछ भी करें, फ़िल्म उद्योग का आजकल के तौर-तरीक़ों का यह हिस्सा है। कुछ हिंदुत्व समूहों की तरफ़ से होने वाले तमाम विरोधों के बावजूद उनकी आख़िरी फ़िल्म पद्मावत को इतिहास पर सत्तारूढ़ सरकार के नज़रियों के साथ मेल खाते ही देखी गयी थी।

लाइव मिंट से बात करते हुए किंग्स कॉलेज लंदन स्थित साउथ एशियन म्यूज़िक एंड हिस्ट्री के वरिष्ठ व्याख्याता कैथरीन स्कोफ़िल्ड का कहना है कि ये फ़िल्में आधुनिक मूल्यों को समझने के लिहाज़ से अहम हैं। "हमें इन फ़िल्मों को उस चीज़ के लिए नहीं पढ़ना चाहिए, जो कुछ वे हमें अतीत के बारे में बताती हैं, बल्कि वे हमें वर्तमान के बारे में जो कुछ बताती हैं,हमें इसके लिहाज़ से इन्हें पढ़ना चाहिए।"

जानकारों का मानना है कि इस समय जो कुछ हो रहा है, वह वाक़ई ख़तरनाक़ है।

हाल ही में दो विश्वसनीय रिपोर्टों में यह चेतावनी दी गयी है कि भारत के सामने नरसंहार के ख़तरे हैं। यूनाइटेड स्टेट्स होलोकॉस्ट मेमोरियल म्यूज़ियम ने अपनी द अर्ली वार्निंग प्रोजेक्ट नामक रिपोर्ट में कहा है कि भारत का स्थान संभावित सामूहिक हत्याओं का गवाह बनने वाले दुनिया के तमाम देशों में दूसरा है।

इसी तरह, जेनोसाइड वॉच के अध्यक्ष, ग्रेगरी स्टैंटन ने अमेरिकी कांग्रेस को सूचना देते हुए कहा था कि शुरुआती संकेत से ऐसा ही दिखायी दे रहा है और लग रहा है कि भारत में मुसलमानों के ख़िलाफ़ बड़े पैमाने पर नरसंहार हो सकता है। स्टैंटन को कई नरसंहार परियोजनाओं की भविष्यवाणी करने के लिए जाना जाता है और उन्होंने 1994 में रवांडा में 800,000 तुत्सियों के नरसंहार होने से पांच साल पहले ही उसकी भविष्यवाणी कर दी थी।

जिन घटनाओं के कारण वह नरसंहार हुआ था,उन घटनाओं के दौरान रवांडा का मीडिया औपनिवेशिक इतिहास पर ज़ोर देता था और इस बात पर चिंता जताता था कि अगर तुत्सियों ने रवांडा पर नियंत्रण कर लिया, तो हूतियों पर एक बार फिर अत्याचार किया जायेगा। इन दावों के बाद जनता में आतंक पैदा करने के मक़सद से ठोस जन कार्रवाइयों की एक श्रृंखला चल पड़ी थी।

कश्मीर फ़ाइल्स देखते समय मेरे सामने बैठे दो लोगों ने इंटरवल में इस बात पर अच्छी ख़ासी चर्चा की कि सभी को किस तरह इस बात से सतर्क रहने की ज़रूरत है कि इस तरह के वाक़ये पूरे देश में फिर से न दोहराया जायें। कुछ लोगों ने इस विचार पर अपने ख़ुशबायानी का भी प्रदर्शन किया और अपने-अपने वीडियो साझा किये। लेकिन, अग्निहोत्री कई सालों से इस तरह की बयानबाज़ी को हवा देते रहे हैं,ऐसी ही बयानबाज़ी में उनका वह बयान भी शामिल है, जिसमें उन्होंने कहा था कि शाहीन बाग़ और पूर्वोत्तर दिल्ली में कई मिनी कश्मीर बने हुए हैं।

भारत के साथ इसी तरह की घटनायें हों,ऐसा निष्कर्ष निकाल लेना सही मायने में 'बहुत जल्दीबाज़ी' लग सकती है। लेकिन, यह निश्चित ही रूप से ऐसा करना 'बहुत देर हो चुकने' से तो कहीं बेहतर है।

भंसाली की पद्मावत पर मौजूदा भारतीय मुसलमानों की घोर रूढ़िवादी छवि को मज़बूत करने का भी आरोप लगाया गया था।इस फ़िल्म में पोशाक, सेट डिज़ाइन और छायांकन के साथ शूटिंग के दौरान गंदे, 'बर्बर मांस खाने वाले जंगली की तरह दिखते मुस्लिम हमलावर' अलाउद्दीन ख़िलजी को उस हद तक बुराई के प्रतीक के तौर पर दिखाया गया है, मानो वह बुराई का चरम किरदार हो। उसके इर्द-गिर्द इस्लामी प्रतीकों के इस्तेमाल में भी कोई सूक्ष्मता नहीं दिखायी गयी थी। असल में अपने क्रूरतम अपराधों में से एक को अंजाम देने से ठीक पहले, उसका साथी कुरान की आयतें पढ़ता है। और, ज़ाहिर है, वह अपनी पत्नी सहित बाक़ी महिलाओं के साथ बहुत बुरा बर्ताव करता है।

राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता निर्देशक नीरज घायवान द क्विंट के साथ अपनी बातचीत में ऐसी फ़िल्मों के बारे में बात करते हुए कहते हैं, "आप इस फ़िल्म के रंग-विस्तार, प्रोडक्शन डिज़ाइन पर नज़र डालिए, इसमें कम रोशनी का इस्तेमाल किया गया है और इसे लो एंगल में शूट किया गया है, ताकि खलनायक को राक्षस की तरह दिखाया जा सके। लेकिन, जब आप इसे टॉप ऐंगल से दिखायेंगे, तो ठीक विपरीत दिखेगा,आपको इसकी अलंकृत और चमकदार रोशनी और सीधे शॉट दिखायी देंगे।"

साल के सबसे ज़्यादा कमाई करने वाली फ़िल्मों में यह फ़िल्म शुमार थी और इसकी कामयाबी के पीछे वह मूल कथानक था कि एक बेहद बर्बर मुस्लिम हमलावर एक नेक राजा की पतिव्रता हिंदू रानी और एक निडर साम्राज्य को हथियान चाहता है। लेकिन, राजा 'हमलावरों'  की धोखाधड़ी (निश्चित रूप से षड्यंत्र से) से अपना राज्य गंवा देता है और उसके बाद उसकी रानी, और एक छोटी लड़की का हाथ पकड़े हुए एक गर्भवती महिला सहित सभी शाही महिलायें वीरतापूर्वक आत्मदाह कर लेती हैं।

एक सौ सात साल पहले अमेरिका की पहली ब्लॉकबस्टर फ़िल्म रिलीज़ हुई थी, जो आज अपने क्रांतिकारी तकनीकी नवाचारों के लिए जानी जाती है, लेकिन,इससे कहीं ज़्यादा अपनी कुख्यात नस्लवादी राजनीति के लिए जानी जाती है।यह फ़िल्म डीडब्ल्यू ग्रिफ़िथ की द बर्थ ऑफ़ ए नेशन थी। यह एक ऐतिहासिक कथानक वाली फ़िल्म थी,जिसमें बहुत कम या फिर कोई ऐतिहासिक यथार्थ था ही नहीं।

गृह युद्ध के बाद अमेरिका के पुनर्निर्माण की अवधि से शुरू होने वाली इस फ़िल्म में दिखाया गया था कि अफ़्रीकी-अमेरिकि ग़ुलाम आज़ाद होने और नागरिक अधिकार पाने के लायक ही नहीं हैं। इस फ़िल्म के जिस-जिस फ़्रेम में किसी अफ़्रीकी-अमेरिकी चरित्र को दिखाया गया था, वहां-वहां फ़्रेम-दर-फ़्रेम उस समय मौजूद उनके प्रति बेहद घृणास्पद नज़रिया दिखता है।

दक्षिण में वोट देने का अधिकार मिल जाने के बाद इस फ़िल्म में दिखाया गया है कि अफ़्रीकी अमेरिकियों ने गोरों को अपने कब्ज़े में ले लिया है, हाउस ऑफ़ रिप्रजेंटेटिव पर कब्ज़ा कर लिया है और सत्ता पर काबिज़ हो गया है। हाउस ऑफ़ रिप्रजेंटेटिव के हॉल के भीतर उन्हें शराब पीते हुए, टेबल पर नंगे पांव रखकर बेठे हुए और बेरहमी से चिकन खाते हुए दिखाया गया है। इसके बाद वे सभी दीर्घा में खड़ी श्वेत महिलाओं की ओर मुड़ते हुए और धीरे-धीरे एक कामुक मुस्कान देते हुए इसलिए दिखायी देते हैं,क्योंकि उन्होंने अभी-अभी 'अश्वेतों और गोरों के अंतर्विवाह' की अनुमति देने वाला एक विधेयक को पारित कर दिया है।

यौन हमले का डर

कुछ मिनट बाद इस फ़िल्म के सबसे परेशान कर देने वाले दृश्यों में से एक दृश्य आता है, और वह यह है कि एक "जंगली" अफ़्रीकी-अमेरिकी शख़्स एक 'पवित्र' श्वेत महिला का पीछा करता है, उसके सामने शादी का प्रस्ताव रखता है, और जब वह मना कर देती है, तो उसके साथ ज़बरदस्ती करने की कोशिश करता है। इस पीछा किये जाने के एक छोटे से क्रम के बाद वह एक पहाड़ की चट्टान पर पहुंच जाती है, और जब वह शख़्स लगातार उसतक पहुंचने की कोशिश करता हुआ दिखायी देता है, तो वह ख़ुद को मारने का फ़ैसला कर लेती है।

भारत में "लव जिहाद" जैसे सिद्धांत को धर्मांतरण विरोधी क़ानूनों के रूप में राज्य की मंज़ूरी मिलने और विभिन्न तरह की हिंसा करने को एक चिंताजनक संकेत के रूप में देखा जाता है। लेकिन, इस सिद्धांत को बहुत पहले ही जनता की हरी झंडी मिल गयी थी।

कश्मीर फ़ाइल्स के एक दृश्य में एक लाल दाढ़ी वाले मौलवी का किरदार एक कश्मीरी पंडित महिला को परेशान करने की कोशिश करता है और वह मौलवी उसके साथ शादी का प्रस्ताव रखता है। हालांकि, मैं इस फ़िल्म में ख़राब अभिनय और लेखन कौशल को लेकर तो अवगत था,लेकिन मेरा हाथ धीरे-धीरे अपने मास्क को दुरुस्त करने और पहले से ही भरे हुए उस हॉल में अपनी दाढ़ी को छिपाने में लग गया। क्लाइमेक्स में खलनायक अचानक उसी मौलवी को फ़्रेम के भीतर खींच लेता है और उसी महिला से छेड़छाड़ और हत्या करने को लेकर उसकी मंज़ूरी हासिल कर लेता है। यह दृश्य वास्तविक जीवन की एक ख़ौफ़नाक़ घटना से प्रेरित है, लेकिन रंगहीन फ्रेम में उस आकर्षक लाल दाढ़ी वाले से संदेश तो स्पष्ट हो जाता है।

नरसंहार और नफ़रत फैलाने से होने वाले अपराधों के जानकारों ने अक्सर इस बारे में बताया है कि यौन हमले के डर को दुष्प्रचार के रूप में बेतरह इस्तेमाल किया जाता है। ऐसा देखा गया है कि लोगों के एक तबक़े के लिए नफ़रत पैदा करने की एक असरदार रणनीति यह है कि वे 'हमारे समुदाय की महिलाओं के पीछे पड़े हुए' हैं। नाज़ी दुष्प्रचार वाली फ़िल्मों में तो इसका जमकर इस्तेमाल किया गया था।

लिमरिक यूनिवर्सिटी के मैरी इमैक्युलेट कॉलेज में जर्मन स्टडी डिपार्टमेंट के प्रमुख क्रिस्टियन शॉनफ़ेल्ड लिखते हैं, " यहूदी विरोधी दुष्प्रचार में यहूदियों को यौन पिपासु जानवर और पिशाच, व्यक्तिगत और सामुदायिक स्तर पर भी जीवन की भावना को चूस लेने वाले के रूप में आम तौर पर दिखाया जाता था और इसे वीट हार्लन की वुर्टेमबर्ग के ड्यूक कार्ल अलेक्जेंडर और उनके कोषाध्यक्ष सस ओपेनहाइमर को लेकर बनी ऐतिहासिक फ़िल्म - जुड सस में इसे असरदार तरीक़े से दिखाया गया है।"

“प्रोपेगैंडा एंड मास पर्सुएशन: ए हिस्टोरिकल इनसाइक्लोपीडिया” के लेखकों के मुताबिक़, जुड सस "नाज़ी जर्मनी में बनने वाली दुष्प्रचार करने वाली सबसे असरदार यहूदी विरोधी फ़िल्मों के सबसे कुख्यात और सफल फ़िल्मों में से एक थी।"

यह फ़िल्म यहूदी लेखक लायन फ्यूचटवांगर के एक उपन्यास पर आंशिक रूप से आधारित थी, और दोनों ही फ़िल्मों में बलात्कार और पीड़िता के ख़ुद को मारने का क्लाइमेक्स था।

कहानी के ज़रिये नफ़रत को मिलती शह

सुसे ओपेनहाइमर के चरित्र को फ़िल्म के लिए फिर से लिखा गया, उसे जोसफ़ गोएबल्स ने प्रायोजित किया था और उसका समर्थन भी हासिल था,उस फ़िल्म में यहूदी अपराधियों को ऐसे रूढ़ीवादी अपराधियों के रूप में दिखाया गया था,जो अविश्वसनीय होते हैं, लालची होते हैं, सत्ता के भूखे होते हैं और जो आर्य नस्ल की महिलाओं को ललचायी हुई नज़रों से देखते हैं। माना जाता है कि इस फ़िल्म ने यहूदी विरोधी भावना को बढ़ावा दिया था और जिसके कारण यहूदी नरसंहार के दौरान भयानक अपराध हुए थे।

इसी तरह, द बर्थ ऑफ़ ए नेशन को ख़त्म हो चुके श्वेत वर्चस्ववादी और नफ़रत करने वाले समूह-कू क्लक्स क्लान को पुनर्जीवित करने के लिए ज़िम्मेदार माना जाता है। ऐसा इसलिए, क्योंकि इस फ़िल्म ने न सिर्फ़ अफ़्रीकी-अमेरिकियों के ख़िलाफ़ नफ़रत पैदा करने वाली रूढ़ीगत छवि बना दी थी, बल्कि क्लान्स के उन लोगों की ओर से की जा रही लिंचिंग का भी महिमामंडन किया था, जिनके बारे में ख़ुद ग्रिफिथ का कहना था कि उस फ़िल्म ने 'दक्षिण को अफ़्रीकी-अमेरिकी शासन की अराजकता से बचा लिया था।'

और यहीं पर पद्मावत जैसी फ़िल्म इन फ़िल्मों से अलग है। पद्मावत एक ख़ास तरह की रूढ़ीवादी छवि तो बनाती है ,लेकिन मुसलमानों की हत्या करने वाले किसी व्यक्ति या समूह का महिमामंडन नहीं करती है। हालांकि, जिस देश में मंत्री ख़ुद ही अक्सर ऐसा करते हुए पाये जाते हों, वहां इस खास तरह की रूढ़ीवादी छवि बनाना भी काफ़ी ख़तरनाक़ है।

जब द बर्थ ऑफ़ ए नेशन रिलीज़ हुई थी, तो इसे अटलांटा कंस्टिट्यूशन नामक अख़बार में विज्ञापित किया गया था। इतिहासकारों का कहना है कि  इस फ़िल्म के विज्ञापन के बगल में  'इंपीरियल विज़ार्ड' या पुनर्जीवित व्यवस्था के प्रमुख आयोजक विलियम जोसेफ़ सीमन्स का वह ऐलान भी छपा था,जिसमें उसने कू क्लक्स क्लान के पुनरुद्धार और उसके उद्देश्यों को इस गिरोह के सदस्यों के लिए ज़रूरी बताया था। बाद मे जब 1928 में सीमन्स का साक्षात्कार लिया गया और उससे पूछा गया कि अगर इस तरह की कोई फ़िल्म नहीं होती, तो क्या वह अपने नये फ़रमान को उतनी जल्दी आगे बढ़ा सकते थे। सिमॉन का जवाब था, "नहीं... द बर्थ ऑफ़ ए नेशन ने क्लान की बहुत मदद की है।"

पद्मावत के रिलीज़ होने से कुछ दिन पहले भारत में हिंदुत्व की राजनीति के लिए सबसे बड़ा मोड़ साबित होने वाली घटना की सालगिरह,यानी 6 दिसंबर, 2018 को इस फ़िल्म की कहानी वाले स्थल से कुछ ही किलोमीटर दूर नफ़रत से पैदा होने वाले एक भीषण अपराध होते देखा गया। राजस्थान के राजसमंद से एक दिल दहला देने वाला वीडियो वायरल हुआ। शंभूलाल रेगर नाम के शख़्स ने एक मुस्लिम मज़दूर मोहम्मद अफ़राज़ुल को टुकड़े-टुकड़े करके कैमरे के सामने जला दिया था। ख़ुद के जारी तामाम वीडियो में रेगर ने कहा था कि उसने 'लव जिहाद से हिंदू महिलाओं को बचाने' के लिए उसे मार डाला है।

जिस मोबाइल को उसका नाबालिग़ भतीजा पकड़े हुए था,उस मोबाइल के कैमरे में वह 48 साल के उस बंगाली मज़दूर अफ़राज़ुल को मारते हुए कह रहा था, "अगर तुमने जिहाद ख़तम नहीं किया, तो एक-एक को ऐसे ही चुन-चुन कर मारेंगे।"

रेगर के ख़िलाफ़ जो चार्जशीट तैयार की गयी थी,उसमें अफ़राज़ुल के धर्म परिवर्तन करने या इस तरह के रिश्ते में होने के किसी भी लिहाज़ से इनकार किया गया था। बाद में पता चला कि रेगर की एक अन्य बंगाली मुस्लिम मज़दूर से निजी दुश्मनी थी, लेकिन उसने अफ़राज़ुल की हत्या कर दी और उन सभी वीडियो को उसके समुदाय में डर पैदा करने और उन्हें इस इलाक़े में आने से रोकने के लिए रिकॉर्ड किया गया था।

दो महीने वाले पहले लॉकडाउन में जब पूरा देश सरकार से राहत पैकेज का बेसब्री से इंतजार कर रहा था, उस दरम्यान प्रधान मंत्री ने राष्ट्र को संबोधित किया था और यह कहने की उन्हें ज़रूरत महसूस हुई कि भारत सदियों पहले किस तरह एक सोने की चिड़िया था, लेकिन 'विदेशी आक्रमणकारियों' ने इसे लूट लिया था। इसे मौजूदा मुसलमानों के ख़िलाफ़ एक प्रेरित करने वाला भाषण के रूप में देखा जाता है। प्रधानमंत्री के भाषणों के इस स्वरूप और तमाम ऐतिहासिक नाटकों को आगे बढ़ाते हुए कश्मीर फ़ाइल्स इस बात पर भी बार-बार ध्यान दिलाती है कि कश्मीर घाटी में कभी 100% हिंदू आबादी हुआ करती थी, लेकिन मुस्लिम हमलावरों और यहां तक कि सूफ़ियों ने भी तलवार के दम पर उन्हें धर्मांतरित कर दिया था और उन पर ज़ुल्म किया था।

इस फ़िल्म को दर्शकों की तरफ़ से ग़ैर-मामूली प्रतिक्रिया मिली है। लेकिन, फ़िल्म आलोचक भी इस सचाई से ख़ास तौर पर परेशान हैं कि निर्माता चंद बेहद दुखद घटनाओं का इस्तेमाल अपने ख़ुद के पूर्वाग्रहों को आगे बढ़ाने के साधन के रूप में कर रहे हैं।

गहन रूप से नस्लवादी फ़िल्म-द बर्थ ऑफ़ ए नेशन आने वाले कई सालों तक अमेरिका की सबसे बड़ी ब्लॉकबस्टर फ़िल्म बनी रही। इसका एक कारण तो इस फ़िल्म की राजनीति को लेकर जनता की स्वीकार्यता थी। कुछ विरोध ज़रूर हुए थे, लेकिन अमेरिका के कई हिस्सों में अफ़्रीकी-अमेरिकियों के ख़िलाफ़ नफ़रत काफ़ी हद तक आम बात हो गयी थी,इसी तरह जर्मनी में यहूदियों, म्यांमार में रोहिंग्या मुसलमानों और रवांडा में तुत्सियों के ख़िलाफ़ नफ़रत फैलायी गयी थी।

इमाद उल हसन एक स्वतंत्र पत्रकार हैं

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

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