NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
भारत
राजनीति
अर्थव्यवस्था
फ़ासीवादी शासनों के दौरान कॉर्पोरेट-वित्तीय कुलीनतंत्र की आंतरिक परतें
नरेंद्र मोदी का शासन भी ठीक उन्हीं विशिष्टताओं को प्रदर्शित कर रहा है जैसा कि किसी भी फ़ासीवादी या निरंकुश शासन ने हमेशा से ही इतिहास में प्रदर्शित किया है।
प्रभात पटनायक
01 Feb 2020
Modi Adani flight

मार्क्सवाद हमें सिखाता है कि प्रत्येक समग्रता उन तत्वों से बनी है जो अलग-अलग हैं और इसी वजह से इनके बीच में अंतर्विरोध होते हैं। यहाँ तक कि जब समग्रता को समग्रता के रूप में परिकल्पित किया जाता है, तो उस दौरान भी इन अंतर्विरोधों के बारे में एक अंतर्निहित सजगता का होना नितांत आवश्यक है। जब भी हम किसी निरंकुश या फ़ासीवादी शासन की राजनीतिक अर्थव्यवस्था का अध्ययन करें तो हमें इस निषेधाज्ञा को याद रखना चाहिए।

मार्क्सवादियों ने लंबे समय तक इस प्रकार के शासनकालों को देख रखा है जिनका अस्तित्व एकाधिकार पूंजी के ठोस समर्थन पर आधारित रहा है, क्योंकि वास्तव में उनके सत्ता में आने के लिए ऐसा होना बेहद महत्वपूर्ण हो जाता है। उदाहरण के लिए प्रसिद्ध मार्क्सवादी अर्थशास्त्री मिशल कलेकी ने 1930 के दशक के यूरोपीय फ़ासीवादी शासन के आधार को "बड़े बिज़नेस समूह के साथ फ़ासीवादी उभार की साझेदारी" के रूप में चिन्हित किया है।

फ़ासीवादी और निरंकुश शासनों को अपने समर्थन के बदले में एकाधिकारी पूंजी बड़े-बड़े ठेकों के रूप में अपना हिस्सा वसूल लेती हैं, विशेष रियायतें अर्थात मोटा मुनाफ़ा वसूलती हैं। लेकिन जहाँ एक तरफ एकाधिकारी पूंजी के सभी हिस्सों को इस तरह के फ़ासीवादी, अर्ध-फ़ासीवादी और निरंकुश शासन से मोटा मुनाफ़ा हासिल करने का भरपूर मौक़ा होता है, वहीं दूसरे ऐसे कई पूंजीवादी समूह बचे रह जाते हैं जिन्हें इस प्रकार के लाभ हासिल नहीं हो पाते हैं। बड़े बिज़नेस समूहों के भीतर, निश्चित तौर पर कुछ ऐसे नए एकाधिकारी समूह होते हैं जिनको इस प्रकार के शासन से विशेष लाभ हासिल होते हैं, और इस प्रकार की परिघटनाओं ने मार्क्सवादी विश्लेषणों के ध्यान को भी काफ़ी आकर्षित किया है।

फ़्रांसीसी वामपंथी डैनियल गुएरिन ने अपनी पुस्तक फ़ासिज़्म एंड बिग बिज़नेस (1936) में पुराने एकाधिकार समूहों और नए एकाधिकार समूहों के बीच के फ़र्क़ को बताया है, जिसमें पुराने समूह का आधार जहाँ परंपरागत उद्योगों जैसे टेक्सटाइल्स उद्योग रहा था वहीं नए एकाधिकार समूहों का आधार अधिकतर बड़े उद्योगों और आयुध निर्माण में रहा था, और यूरोप में फ़ासीवादी शासन के साथ उनके खास तौर पर घनिष्ठ संबंध रहे थे।

इसी तरह जापान के मामले में भी पुराने ज़ाइबत्सू और नए ज़ाइबत्सू (शिंको ज़ाइबत्सू के नाम से जाना जाता है) के बीच एक फ़र्क़ किया जाता है। पुराने ज़ाइबत्सू (या कहें एकाधिकारी घराने) जैसे कि मित्सुई,  मित्सुबिशी, सुमितोमो और यासुडा ने गतिविधियों की एक पूरी श्रृंखला को फैला कर रखा हुआ था, लेकिन ये वर्चस्व पारंपरिक क्षेत्रों तक ही सीमित थे। जबकि शिन्को ज़ाइबत्सू पर नज़र दौड़ाएँ तो, जिनमें से निसान ग्रुप प्रमुखता से था, वे नए क्षेत्रों में सक्रिय थे जैसे कि भारी उद्योगों, आयुध निर्माण और विदेशों में खनिज निकालने जैसी नई गतिविधियों में शामिल होना। निसान ने कोरिया के स्थानीय श्रमिकों को बेहद ख़राब काम की परिस्थितियों में रखकर वहाँ पर भारी पैमाने पर खनन का काम किया था, जिससे कि खनिज संपदा के मामले में ग़रीब जापान की युद्ध सम्बन्धी ज़रूरतें पूरी हो सकें। इसलिये यह बताने की आवश्यकता नहीं कि 1930 के दशक में शिन्को ज़ाइबत्सू का जापानी सैन्यवादी शासन से कितना क़रीबी रिश्ता रहा होगा।

भारत में भी  इस परिकल्पना को लेकर तब विचार उठने शुरू हुए थे जब आपातकाल के दौरान स्वर्गीय इंदिरा गांधी की ओर से अधिनायकत्व की प्रवत्तियां ज़ाहिर होनी शुरू हुई थीं, तो उस दौरान भी इसी प्रकार की परिघटना देखने को मिली थी, जिसमें परंपरागत एकाधिकारी पूंजी की तुलना में नए तत्वों की भूमिका कहीं अधिक आक्रामक रूप से देखने को मिली थीं।

जब भी देश की वर्तमान स्थिति के बारे में विश्लेषण करें तो इन अंतर्दृष्टि को ध्यान में अवश्य रखा जाना चाहिए। यह तथ्य पूरी तरह से स्पष्ट है कि 2014 और 2019 में नरेंद्र मोदी के सत्ता में पदार्पण में कॉर्पोरेट से मिलने वाले अपार समर्थन की भूमिका कितनी महत्वपूर्ण थी। वास्तविक अर्थों में देखें तो मोदी को भावी प्रधानमंत्री के तौर पर प्रस्तुत करने का विचार ही, 2014 के कुछ समय पहले देश के कुछ बड़े कॉर्पोरेट दिग्गजों के "निवेशकों के शिखर सम्मेलन" में भाग लेने के दौरान ही आया था। इस  शिखर सम्मेलन का आयोजन गुजरात में किया गया था, जहाँ पर उस समय मुख्यमंत्री के तौर पर मोदी थे।

मोदी के अभ्युदय में कॉर्पोरेट समर्थन की भूमिका का अंदाज़ा एक बेहद साधारण तथ्य से लगाया जा सकता है: दिल्ली स्थित एक एनजीओ के अनुसार भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने 2019 के संसदीय चुनावों में 27,000 करोड़ रुपये ख़र्च किए हैं, जैसा करना बाक़ी के किसी भी अन्य बुर्जुआ पार्टी के बूते के बाहर था, वाम दल से तो इसकी कल्पना भी न करें। इसका सीधा मतलब है कि प्रत्येक संसदीय सीट पर 50 करोड़ रुपये ख़र्च किये गए। बिना किसी उदार कॉर्पोरेट वित्तीय मदद के इस पैमाने पर धन का जुगाड़ कर पाने की सोच पाना भी असंभव है।

इसलिये यह पूरी तरह से उचित रहेगा कि वर्तमान शासन को कॉर्पोरेट-सांप्रदायिक गठजोड़ के आधार पर स्थापित कहा जाए, और यह भी कहना पूरी तरह से उचित होगा कि इस गठबंधन के ज़रिये कॉर्पोरेट ने अपने लिए काफ़ी कुछ हासिल किया है। लेकिन यह भी सच है कि आज अर्थव्यवस्था एक ऐसे संकट में घिर चुकी है जिसके इस मोदी शासन के तहत बाहर निकल पाने का कोई रास्ता नज़र नहीं आता है। लेकिन हमें इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि यह संकट व्यवस्थाजन्य है, जो इस तथ्य की ओर ध्यान आकर्षित कराता है कि नव-उदारवाद अपने अंतिम मुकाम पर पहुँच चुका है, और इससे आगे का उसके पास कोई रास्ता नहीं है।

हालाँकि इस आर्थिक संकट के भीतर भी मोदी शासन इस बात के लिए बेहद उदार रहा है, कि किस प्रकार से एकाधिकारी पूंजी को अधिक से अधिक मुनाफ़ा दिलाया जा सके, जिसमें सार्वजनिक क्षेत्र की संपत्ति को कौड़ियों के भाव बेचना शामिल है। वास्तव में इस संकट की घड़ी में भी इसकी चिंता इस बात को लेकर थी कि किस प्रकार से अपने कॉर्पोरेट क्षेत्र के मित्रों को मदद पहुँचाई जाए। और ऐसा इसने उनकी “पशु आत्माओं" को उत्तेजित करने के नाम पर करों में व्यापक कटौती (1 लाख 50 हज़ार करोड़ रुपये की रकम) के माध्यम से किया है!

इसमें कोई शक नहीं कि कॉर्पोरेट के प्रति दिखाई गई इस दरियादिली के बदले में इस आर्थिक संकट से निकलने का कोई रास्ता नहीं निकलने जा रहा है, उल्टा यदि राजस्व में हुई इस कटौती के परिणामस्वरूप आने वाले समय में सार्वजनिक व्यय में भी कटौती की जाती है या सार्वजनिक ख़र्चों को बनाए रखने के लिए भरपाई के तौर पर इसे और बड़ी मात्रा में कामगार जनता पर टैक्स थोपकर वसूला जाता है तो यह सिर्फ संकट को बढ़ाने के ही काम आयेगा। लेकिन अगर इस दरियादिली के चलते संकट में बढ़ोत्तरी हो भी जाती है तब भी इस संकट से कॉर्पोरेट को ही शुद्ध लाभ होने जा रहा है।

इस बिंदु को स्पष्ट करने और सरकार की असली मंशा पर रोशनी डालने के लिए एक संख्यात्मक उदाहरण के ज़रिये इसे समझते हैं। मान लीजिए कि सरकार ने कॉरपोरेट कर रियायतों के नाम पर 1.5 लाख करोड़ रुपये दे डाले हैं और उसी के बराबर 1.5 लाख करोड़ रुपयों की अपने ख़र्चों में कटौती कर ली है। अब यहाँ पर विदेश व्यापार क्षेत्र में होने वाली आय की जटिलताओं को देखते हुए इसे एक बंद अर्थव्यस्था मानकर अनदेखा कर देते हैं। और चलिए मान लेते हैं कि कॉर्पोरेट क्षेत्र की आय कुल सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का एक-चौथाई है, जिसमें से वे एक-तिहाई की बचत करते हैं; और जीडीपी के तीन-चौथाई का हिस्सा जो बाक़ी की अर्थव्यवस्था में शामिल होता है, उसमें से एक-तिहाई की बचत फिर से हो जाती है।

अर्थव्यवस्था में समग्र बचत-जीडीपी अनुपात एक तिहाई है। सरकारी व्यय में 1.5 लाख करोड़ की कटौती किये जाने से जीडीपी में 4.5 लाख करोड़ की गिरावट दर्ज होने जा रही है (क्योंकि गुणक का मूल्य, बचत अनुपात के पारस्परिक होती है, जो कि 3 के बराबर बैठती है)। टैक्स पूर्व कॉर्पोरेट आय में गिरावट, कुल 4.5 लाख करोड़ रुपये की एक-चौथाई होगी, जो लगभग 1.1 लाख करोड़ रुपये है; लेकिन उस स्थिति में कर-पश्चात की कॉर्पोरेट आय में 40,000 करोड़ रुपये की वृद्धि हुई होने जा रही है।

इसलिये भले ही कॉरपोरेट्स को दी गई करों में रियायत सरकार के ख़र्च को उसी अनुपात में कम हो जाती है, और इस प्रकार संकट और बेरोज़गारी को बढ़ा देते के बावजूद कर-पश्चात कॉर्पोरेट आय में वृद्धि होगी।

संक्षेप में कहें तो सरकार के उपाय संकट को कम करने के लिए इतने पर्याप्त नहीं हैं, जितना कि यह सुनिश्चित करने के लिए कि संकट के दौरान भी कॉर्पोरेट मुनाफ़े में बढ़ोत्तरी जारी रहे। लेकिन जहाँ सरकारी उपायों के तहत सम्पूर्णता में कार्पोरेट लाभ की स्थिति में बना रहता है, लेकिन इन कॉर्पोरेट समूह के बीच कुछ कॉर्पोरेट घरानों के लिए यह एक विशेष चिंता का विषय बन जाता है जो हमारे ख़ुद के शिंको ज़ाइबत्सू के समान हैं। ये वे नए और आक्रामक व्यापारिक घराने हैं जो इस शासन को समर्थन देने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ते।

संक्षेप में, कॉर्पोरेट क्षेत्र के भीतर इन नए घरानों के बीच एक अंतर को देखा जा सकता है, जिनमें से अंबानी और अडानी दो हैं, जिन्हें विशेष तौर पर चिन्हित किया जाना चाहिए, और जो मोदी जी की मेहरबानियों के लिए पसंदीदा चुनाव हैं। क्रोनी पूँजीवाद के तहत इन्हें लाभ में से बड़ा हिस्सा मिलता है, और इनके साथ ही उन अन्य को भी जो मोदी शासन के लाभार्थी हैं, लेकिन वैसा लाभ हासिल नहीं कर सकते जैसा कि पहले समूह को ये प्राप्त हैं। कॉर्पोरेट पूंजीपति वर्ग के भीतर दो समूहों का विचार, जिसमें पारंपरिक वाले और नए आक्रामक समूह दोनों शामिल हैं, इसमें से दूसरे समूह की निरंकुश सरकार के साथ घनिष्ठता विशेष तौर पर होती है, जिसकी वैधता निश्चित तौर पर वर्तमान भारतीय संदर्भ में भी दिखाई पड़ रही है।

गुजरात में अडानी के प्रमुखता में आ जाने के पीछे भी नरेंद्र मोदी के राज्य के मुख्यमंत्री के रूप में उनसे निकटता से जुड़ी हुई थी, और मोदी के राष्ट्रीय परिदृश्य में आने के बाद से अडानी भी केन्द्रीय भूमिका में आ चुके हैं। दोनों के बीच की घनिष्ठता किस क़दर है, वह इस तथ्य से उजागर हो जाती है कि जब मोदी 2014 में प्रधानमंत्री के तौर पर शपथ ग्रहण के लिए पधारते हैं, तो जिस विमान का इस्तेमाल किया गया था, उसके मालिक अडानी थे।

इसी तरह अनिल अंबानी की फ़र्म को भी फ़ायदा पहुँचाया गया, इसके बावजूद कि इस क्षेत्र में कार्य का उसका अनुभव शून्य है, रफ़ाल डील का सौदा सार्वजनिक क्षेत्र की एचएएल से छीनकर दे दिया जाता है। क्रॉनिज़्म की कल्पना लिए इससे स्पष्ट उदाहरण दूसरा शायद ही हो। और इसी प्रकार दूरसंचार के क्षेत्र में सार्वजनिक क्षेत्र की प्रमुख कंपनी बीएसएनएल को मुकेश अंबानी की जियो के लिए, एकाधिकार की स्थिति को किसी भी क़ीमत पर पैदा करने के मक़सद से, धूल चटाने का काम किया जा रहा है। संक्षेप में कहें तो ये वे कॉर्पोरेट घराने हैं, जो इस शासन में विशेष रूप से पसंदीदा हैं।

समग्र तौर पर कॉर्पोरेट-वित्तीय कुलीनतंत्र की अवधारणा हमारे रास्ते में आड़े नहीं आनी चाहिए, लेकिन इनके बीच मतभेद भी दिख रहे हैं और इसलिए इनके भीतर जो विरोधाभास हैं, उन्हें भी देखने की ज़रूरत है। एक व्यावसायिक सभा में उद्योगपति राहुल बजाज ने जिस तरह से सरकार की खुली आलोचना की थी, जिसमें अमित शाह भी मौजूद थे, और जिसके चलते उन्हें अनेकों भाजपाई ट्रोल के ग़ुस्से का शिकार होना पड़ा था, उस आलोचना को इस संदर्भ में देखा जाना चाहिए। इस प्रकार भारतीय फ़ासीवादी शासन उन्हीं विशेषताओं को ज़ाहिर कर रहा है, जो इस तरह के शासन इतिहास में हमेशा प्रदर्शित करते आए हैं।

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

Layers Within Corporate-Financial Oligarchy in Fascistic Regimes

Corporate-Hindutva Nexus
crony capitalism
Modi regime
Adani-Ambani
Fascism-Oligarchy Nexus
Corporate Tax Breaks
indian economy
Economic Slump
Marxism

Related Stories

डरावना आर्थिक संकट: न तो ख़रीदने की ताक़त, न कोई नौकरी, और उस पर बढ़ती कीमतें

भारत के निर्यात प्रतिबंध को लेकर चल रही राजनीति

आर्थिक रिकवरी के वहम का शिकार है मोदी सरकार

जब 'ज्ञानवापी' पर हो चर्चा, तब महंगाई की किसको परवाह?

मज़बूत नेता के राज में डॉलर के मुक़ाबले रुपया अब तक के इतिहास में सबसे कमज़ोर

क्या भारत महामारी के बाद के रोज़गार संकट का सामना कर रहा है?

क्या एफटीए की मौजूदा होड़ दर्शाती है कि भारतीय अर्थव्यवस्था परिपक्व हो चली है?

महंगाई के कुचक्र में पिसती आम जनता

एजाज़ अहमद ने मार्क्सवाद के प्रति आस्था कभी नहीं छोड़ी

रूस पर लगे आर्थिक प्रतिबंध का भारत के आम लोगों पर क्या असर पड़ेगा?


बाकी खबरें

  • संदीपन तालुकदार
    वैज्ञानिकों ने कहा- धरती के 44% हिस्से को बायोडायवर्सिटी और इकोसिस्टम के की सुरक्षा के लिए संरक्षण की आवश्यकता है
    04 Jun 2022
    यह अध्ययन अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि दुनिया भर की सरकारें जैव विविधता संरक्षण के लिए अपने  लक्ष्य निर्धारित करना शुरू कर चुकी हैं, जो विशेषज्ञों को लगता है कि अगले दशक के लिए एजेंडा बनाएगा।
  • सोनिया यादव
    हैदराबाद : मर्सिडीज़ गैंगरेप को क्या राजनीतिक कारणों से दबाया जा रहा है?
    04 Jun 2022
    17 साल की नाबालिग़ से कथित गैंगरेप का मामला हाई-प्रोफ़ाइल होने की वजह से प्रदेश में एक राजनीतिक विवाद का कारण बन गया है।
  • न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    छत्तीसगढ़ : दो सूत्रीय मांगों को लेकर बड़ी संख्या में मनरेगा कर्मियों ने इस्तीफ़ा दिया
    04 Jun 2022
    राज्य में बड़ी संख्या में मनरेगा कर्मियों ने इस्तीफ़ा दे दिया है। दो दिन पहले इन कर्मियों के महासंघ की ओर से मांग न मानने पर सामूहिक इस्तीफ़े का ऐलान किया गया था।
  • bulldozer politics
    न्यूज़क्लिक टीम
    वे डरते हैं...तमाम गोला-बारूद पुलिस-फ़ौज और बुलडोज़र के बावजूद!
    04 Jun 2022
    बुलडोज़र क्या है? सत्ता का यंत्र… ताक़त का नशा, जो कुचल देता है ग़रीबों के आशियाने... और यह कोई यह ऐरा-गैरा बुलडोज़र नहीं यह हिंदुत्व फ़ासीवादी बुलडोज़र है, इस्लामोफ़ोबिया के मंत्र से यह चलता है……
  • आज का कार्टून
    कार्टून क्लिक: उनकी ‘शाखा’, उनके ‘पौधे’
    04 Jun 2022
    यूं तो आरएसएस पौधे नहीं ‘शाखा’ लगाता है, लेकिन उसके छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) ने एक करोड़ पौधे लगाने का ऐलान किया है।
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License