NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
नज़रिया
मज़दूर-किसान
समाज
भारत
राजनीति
वामपंथ, मीडिया उदासीनता और उभरता सोशल मीडिया
ख़ासकर जब वामपंथी सत्ता में थे, उन्हें लंबे समय तक मीडिया की उदासीनता का सामना करना पड़ा है। मीडिया पर कॉर्पोरेट के नियंत्रण होने के बाद से तो इस प्रवृत्ति में और भी बढ़ोत्तरी हुई है। हालांकि, सोशल मीडिया ने कुछ उम्मीदें बनायी रखी हैं।
संदीप चक्रवर्ती
17 Mar 2021
media
प्रतीकात्मक फ़ोटो

कोलकाता: वामपंथियों को हमेशा से मीडिया की उदासीनता का सामना करना पड़ता रहा है, ख़ासकर पश्चिम बंगाल में हाल के दिनों में मीडिया की यह प्रवृत्ति साफ़-साफ़ दिखी है। अब पत्रकारिता के आदर्शों के बजाय कॉर्पोरेट हितों से निर्देशित होने वाले ज़्यादातर मीडिया घराने पाठकों या दर्शकों को उस ख़रीदार के तौर पर देखना शुरू कर दिया है, जो यह तय करता है कि किस तरह की ख़बरें बिकती हैं।

इस तरह, मौजूदा परिदृश्य विकट हो गया है, क्योंकि कॉर्पोरेट हित आम लोगों के हितों से ज़्यादा अहम हो गये हैं।  चूंकि वामपंथी हमेशा कॉरपोरेट हितों के ख़िलाफ़ रहे हैं,  लिहाज़ा यह मीडिया के ग़ुस्से के निशाने पर रहे हैं।

मीडिया का ऐसा निगमीकरण हो रहा है कि अब तो अंबानियों जैसे बड़े कॉर्पोरेट समूहों ने प्रमुख क्षेत्रीय भाषाओं के साथ-साथ अंग्रेज़ी के प्रिंट, टेलीविज़न, दोनों ही तरह के तमाम मीडिया को अपने हाथों में ले लिया है। इस समूह का कुछ चैनलों पर सीधा-सीधा नियंत्रण है, जबकि कुछ दूसरे चैनलों पर कौन सी ख़बर दिखायी जाये, कौन सी ख़बर नहीं दिखायी जाये, इस पर कॉर्पोरेट विज्ञापन के ज़रिये परोक्ष रूप से नियंत्रण रखा जा रहा है।

ऐसा नहीं कि ‘अपने मुताबिक़ चीज़ों को तय करने के लिए ईनाम और सज़ा’ वाला यह तौर-तरीक़ा कॉरपोरेट घरानों तक ही सीमित है, बल्कि सरकारें भी इसी तौर-तरीक़े को अपनाये हुए है, ऐसा इसलिए है, क्योंकि मीडिया को मिलने वाला विज्ञापन का एक बड़ा हिस्सा सरकारी क्षेत्र से आता है। इसलिए, किसानों के विरोध प्रदर्शन को दिखाने वाले मीडिया पर निश्चित रूप से गाज गिरती है, जबकि ख़बरों को भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) या सरकार के पक्ष में दिखाने वाले मीडिया को पुरुस्कृत किया जाता है।

जहां तक पश्चिम बंगाल की बात है, तो कॉरपोरेट की लाडली बीजेपी टेलीविजन की ख़बरों के मामलों में कहीं आगे है। मसलन, एक चैनल-टीवी 9,  जो ख़ास तौर पर दक्षिणी और पश्चिमी भारत में चलता है, लेकिन विधानसभा चुनाव से ठीक पहले इसने पश्चिम बंगाल में अपना चैनल खोल दिया है। इसी तरह,  पश्चिम बंगाल का प्रमुख समाचार चैनल है-एबीपी आनंद, जो बंगाल की चुनावी लड़ाई को लगातार बीजेपी और तृणमूल कांग्रेस के बीच की दो ध्रुवीय लड़ाई की तरह पेश कर रहा है, जिसमें उसने अपना एक पैर राज्य की सत्तारूढ़ पार्टी टीएमसी और दूसरा पैर केन्द्र की सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा के साथ मज़बूती से जमा रखा है ।

ऐसे में कोई आश्चर्य नहीं कि कोलकाता के ब्रिगेड ग्राउंड में 10 लाख की ज़बरदस्त वाम-कांग्रेस-आईएसएफ़ रैली कुछ घंटों के भीतर मुख्य ख़बरों से बाहर हो जाती है, जबकि भाजपा की एक छोटी सी मामूली रैली को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया जाता है।

एक दूसरा ख़बरिया चैनल,  जो शीर्ष लोकप्रियता के मामले में कहीं भी नहीं ठहरती, वह कभी एक वाम-समर्थित सहायता संघ से वित्त पोषित था, मगर बाद में ज़ी समूह ने उसका अधिग्रहण कर लिया था। यह चैनल भी इन विधानसभा चुनावों के दौरान ख़बरों के बाज़ार में एक द्विध्रुवीय राजनीतिक विचार को हवा दे रही है।

इस प्रवृत्ति पर टिप्पणी करते हुए पूर्व सीपीआई (M) सांसद, मोहम्मद सलीम ने हाल ही में ट्वीट किया था कि एबीपी समूह के एक प्रमुख अंग्रेज़ी अख़बार- द टेलीग्राफ़ ने पिछले चार वर्षों में पहली बार अपने पहले पेज पर   सीपीआई (M) के किसी कार्यक्रम को जगह दी थी, ऐसा तब हुआ था, जब त्रिपुरा के पूर्व मुख्यमंत्री माणिक सरकार ने बर्दवान में एक रैली को संबोधित किया था।

मौजूदा परिदृश्य

इसके अलावा, राज्य में चल रहे तक़रीबन 10 से 12 सैटेलाइनट चैनल ऐसे हैं,  जिन्हें सत्तारूढ़ टीएमसी के "विस्तार" के रूप में देखा जाता है,  क्योंकि इसमें कुछ पार्टी नेताओं की तरफ़ से कथित तौर पर निवेश किया गया है। कहा जाता है कि असम के कुछ भाजपा नेताओं ने भी पश्चिम बंगाल के कुछ ख़बरिया चैनलों में कथित तौर पर निवेश किया है।

दिलचस्प बात यह है कि डिजिटल समाचार चैनलों की आमद के साथ ही अब सोशल मीडिया के क्षेत्र में उछाल देखा जा रहा है। इनमें से कुछ बंगाल में हो रहे चुनावों से पहले आये हैं और कथित तौर पर इन्हें धुर दक्षिणपंथी खेमे से वित्त पोषित किया जा रहा है।

हालांकि,  कुछ मीडिया विश्लेषकों के मुताबिक़ सोशल मीडिया में अब भी वामपंथियों का काफ़ी दबदबा है और भाजपा से ये कहीं आगे हैं।

चाहे शहरी या ग्रामीण क्षेत्र हों,  विगत में अख़बार के पाठक ख़ास तौर पर कुलीन शिक्षित लोगों के बीच ही केंद्रित होते थे। पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चे के शासन के दौरान चले एक व्यापक साक्षरता अभियान ने अख़बार की पाठक संख्या को बढ़ाने में मदद की थी। बाद में समाचार चैनलों के आने के साथ टेलीविज़न दर्शकों की संख्या भी कई गुनी बढ़ गयी।

पिछले घटनाक्रम-रवीन्द्र सरोबर

अप्रैल 1969 में रवीन्द्र सरोबर के एक समारोह में हिंसा हुई थी। उस समारोह के एक दिन बाद महिलाओं के साथ हुए दुर्व्यवहार की कोई रिपोर्ट किसी भी अख़बार में नहीं थी। हालांकि, दो-तीन दिनों बाद, कुछ अख़बारों ने संयुक्त मोर्चा सरकार के तत्कालीन गृह मंत्री, ज्योति बसु को निशाना बनाते हुए ‘मसालेदार’ ख़बरों को प्रकाशित करना शुरू कर दिया था। इन रिपोर्टों में दावा किया गया था कि सरोबार (झील) के पास कई लोगों की हत्या कर दी गयी थी और महिलाओं के शव मिले थे। इस घटना ने राज्य के बाहर भी सनसनी पैदा कर दी थी। बसु ने विभागीय जांच के आदेश दे दिये। जांच आयोग ने सभी पत्रकारों को गवाही देने के लिए बुलाया। हालांकि,  आयोग के सामने सिर्फ़ स्टेट्समैन और हिंदुस्तान स्टैंडर्ड के पत्रकार ही उपस्थित हुए और उन्होंने कहा कि वे महिलाओं के साथ हुए अभद्र व्यवहार की घटना को वे याद नहीं कर पा रहे हैं। जब 16 दिसंबर,  1969 को उस आयोग की रिपोर्ट सामने आयी,  तो आयोग का कहना था कि उस दिन महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार की कोई घटना ही नहीं हुई थी।

मारीचझांपी: वास्तव में हुआ क्या था ?

एक अन्य घटना, जिसका इस्तेमाल अब भी वाम मोर्चा की सरकार को "बदनाम" करने के लिए किया जाता है,  वह है- सुंदरबन क्षेत्र के मारीचझांपी में पुलिस गोलीबारी की घटना। 31 जनवरी,  1979 को इस क्षेत्र से शरणार्थियों को "ख़ाली" कराने के लिए मारीचझांपी में पुलिस गोलीबारी की घटना हुई थी। 1 फ़रवरी को आनंद बाज़ार पत्रिका ने फ़ायरिंग की सूचना देते हुए लिखा था,  " कुमारीमारी में 6 लोग मारे गये हैं,  5 लोग घायल हुए हैं",  यह जगह मरीचझांपी के ठीक सामने है। पुलिस गोलीबारी में मारे गये छह लोग शरणार्थी थे। इस घटना ने बंगाल के राजनीतिक परिदृश्य में विकट स्थिति पैदा कर दी थी।

लेकिन, वास्तव में मारीचझांपी में आख़िर हुआ क्या था?

वामपंथी सूत्रों के मुताबिक़, तक़रीबन 200 स्थानीय लोगों के साथ शरणार्थियों का एक समूह कुमारीमरी द्वीप से नदी पार करने की कोशिश कर रहा था और इन लोगों के समर्थन में नारे लगा रहे थे, लेकिन सुरक्षा बलों ने उन्हें वहीं रोक दिया था। शरणार्थियों ने कथित तौर पर धनुष और तीर से सुरक्षा बलों पर हल्ला बोल दिया था। बचाव में पुलिस ने आंसू गैस छोड़ी थी। इसके बाद, तक़रीबन एक हज़ार लोगों ने कुमारीमारी पुलिस शिविर पर हमला कर दिया था। बदले में प्रभारी अधिकारी के निर्देश पर पुलिस ने दो राउंड फ़ायरिंग कर दी थी। जैसे ही भीड़ तितर-बितर हो गयी,  तो दूसरे कैंप की पुलिस कुमारीमारी कैंप के पुलिस बल के बचाव के लिए आयी,  लेकिन, दोनों ही तरफ़ की भीड़ ने हमला कर दिया। इसके बाद पुलिस ने 20 राउंड आंसू गैस के गोले दागे,  और पुलिस का दावा था कि सशस्त्र भीड़ ने उन पर तीर चलाये, जिससे 18 पुलिसकर्मी घायल हो गये। पुलिस ने इसके बाद ही गोलीबारी की, जिसमें छह लोग घायल हो गये। वाम मोर्चा के सूत्रों का कहना था कि दो हताहत हुए थे, जिनमें एक महिला की मौक़े पर ही मौत हो गयी थी और दूसरे व्यक्ति की अस्पताल में मौत हुई थी।

हालांकि, 1979 में मीडिया की इतनी ज्यादा मौजूदगी तो नहीं थी,  फिर भी मौतों की संख्या पर राजनीति शुरू हो गयी। इस मुद्दे पर विधानसभा में अपने भाषण में तत्कालीन मुख्यमंत्री-ज्योति बसु ने कहा था, “जनता पार्टी के नेता, दिलीप चक्रवर्ती ने कहा है कि मारीचझांपी में 77 लोग मारे गये हैं। आख़िर यह संख्या 77 या 107 या 180 क्यों है,  मुझे नहीं पता,  लेकिन, हमारा तो कहना है कि सिर्फ़ दो लोगों की मौत हुई है। दिलीप चक्रवर्ती मुझसे मिले थे और जब उनसे मरने वाले लोगों के नाम और उनके पते के बारे में पूछा गया, तो उन्होंने जवाब देते हुए कहा है कि उन्होंने एक पुलिस अधिकारी से ऐसा कहते हुए सुना है और उन्हें इस बारे में जानकरी इकट्ठा करने में कुछ समय लगेगा। लेकिन, उन्होंने अभी तक इस बारे में कोई रिपोर्ट नहीं दी है।’

निशाने पर वाम मोर्चा

वाममोर्चा सरकार के सत्ता में आने के एक साल के भीतर कई शरणार्थियों को गुमराह किया गया और उन्हें झूठा दिलासा दिया गया और उन्हें दंडकारण्य औरदूसरी जगहों से पश्चिम बंगाल आने के लिए "मजबूर" किया गया। कुछ लोगों ने उन्हें अपने उस पुनर्वास केंद्र और मिली हुई ज़मीन को छोड़ने और बंगाल आने के लिए कहा था।

सूत्रों का कहना है कि यह जानने के बावजूद कि बंगाल में उस समय ज़्यादा शरणार्थियों के पुनर्वास की कोई संभावना नहीं थी,  फिर भी ऐसा वाम मोर्चे की छवि को धूमिल करने के उद्देश्य से किया गया था।

बंगाल सरकार ने कहा था कि उसने समस्या का हल निकालने की कोशिश की थी,  लेकिन कुछ "निर्लज्ज लोगों ने पेड़ गिरा दिये थे,  तालाबों को ग़ैर-क़ानूनी रूप से काट दिये और इन शरणार्थियों को अवैध रूप से भूमि वितरित करना शुरू कर दिया था।" कुछ कथित नेताओं ने कहा था कि उनके पास इन ज़मीनों के दस्तावेज़ हैं और नक़ली दस्तावेज़ 100 रुपये या 50 रुपये में बेचे गये हैं।

लंबे समय तक मारीचझांपी राज्य के बाक़ी हिस्सों से इसलिए कटा रहा, क्योंकि प्रशासन महीनों तक इसमे दाखिल नहीं हो पाया था। इसे "मुक्तांचल" (मुक्त क्षेत्र) बना दिया गया था।

उस समय के ज़्यादातर मीडिया घरानों ने वाम मोर्चे की सरकार और सीपीआई (M) को लगातार निशाना बनाया था।

ऐसे कई और भी उदाहरण हैं, जब "राजनीतिक षड्यंत्र" में मीडिया की मिलीभगत से वामपंथी सरकारों को निशाना बनाया जाता रहा, चाहे वह बंगाल,  त्रिपुरा या केरल की सरकार ही क्यों न रही हो।

मसलन, पहली कम्युनिस्ट सरकार केरल में 1957 में ईएमएस नंबूदरीपाद की अगुवाई में सत्ता में आयी थी। उस सरकार के ख़िलाफ़ षड्यंत्र 1959 में तबतक जारी रहा, जबतक कि वहां की सरकार गिरा नहीं दी गयी। 1988 में त्रिपुरा में भी वही हुआ, जहां सीआरपीएफ़, पुलिस पेशेवर अपराधियों का इस्तेमाल चुनावों में धांधली कराने के लिए किया गया था।

मीडिया की ताक़त

मौजूदा दौर में मीडिया कई बदलावों से गुज़र रहा है। हाल फ़िलहाल तक मीडिया का मतलब अख़बार,  रेडियो,  टीवी आदि ही था। लेकिन, अब कई नये माध्यम आ गये हैं। मसलन, मोबाइल फ़ोन, पर्सनल कंप्यूटर, लैपटॉप आदि में नियमित रूप से ख़बरें अपडेट होती रहती हैं। इसके अलावे, एसएमएस, एमएमएस,  व्हाट्सएप, सोशल मीडिया आदि जैसे कई और सुविधायें भी हैं।  इसलिए, आने वाले दिन शायद उतने मुश्किल न हो, जितना कि ख़बरों के लिहाज़ से पहले इन वामपंथियों के लिए मुश्किल हुआ करता था, जिन्होंने अब अपने अभियान और विचारों को फैलाने के लिए सोशल मीडिया का ज़बरदस्त इस्तेमाल शुरू कर दिया है।

लेखक,  दिवंगत अविक दत्ता के लेख, ‘विसिच्युड ऑफ़ मीडिया: पास्ट इंसिडेंट्स, टूडेज़ रिपल्स एण्ड द मीडिया ऑफ़ फ़ीचर’ के आभारी हैं। इनके विचार निजी हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

https://www.newsclick.in/Left-Media-Apathy-Rise-Social-Media 

 

 

 

CPIM
West Bengal
Jyoti Basu
Left Front
Media and Politics
Mainstream Media
Rumour and propaganda

Related Stories

बीरभूम नरसंहार ने तृणमूल की ख़ामियों को किया उजागर 

बीच बहस: विपक्ष के विरोध को हंगामा मत कहिए

हिंदी पत्रकारिता दिवस: अपनी बिरादरी के नाम...

नज़रिया: कांग्रेस को चाहिए ममता बनर्जी का नेतृत्व, सोनिया गांधी करें पहल

बंगाल चुनाव : क्या चुनावी नतीजे स्पष्ट बहुमत की 44 साल पुरानी परंपरा को तोड़ पाएंगे?

बात बोलेगी: बंगाल के सामाजिक-राजनीतिक ताने-बाने को गहरे तक प्रभावित करेगा ये चुनाव

किसान आंदोलन की सफल राजनैतिक परिणति भारतीय लोकतंत्र की ऐतिहासिक ज़रूरत

तमिलनाडु विधानसभा चुनाव: एआईएडीएमके और डीएमके गठबंधन और सीटों की हिस्सेदारी पर समझौतों के क्या मायने हैं

पश्चिम बंगाल में जाति और धार्मिक पहचान की राजनीति को हवा देती भाजपा, टीएमसी

हिमाचल प्रदेश: स्थानीय निकाय चुनाव और चुनावी प्रक्रियाओं पर उठते सवाल


बाकी खबरें

  • blast
    न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    हापुड़ अग्निकांड: कम से कम 13 लोगों की मौत, किसान-मजदूर संघ ने किया प्रदर्शन
    05 Jun 2022
    हापुड़ में एक ब्लायलर फैक्ट्री में ब्लास्ट के कारण करीब 13 मज़दूरों की मौत हो गई, जिसके बाद से लगातार किसान और मज़दूर संघ ग़ैर कानूनी फैक्ट्रियों को बंद कराने के लिए सरकार के खिलाफ प्रदर्शन कर रही…
  • Adhar
    अनिल जैन
    ख़बरों के आगे-पीछे: आधार पर अब खुली सरकार की नींद
    05 Jun 2022
    हर हफ़्ते की तरह इस सप्ताह की जरूरी ख़बरों को लेकर फिर हाज़िर हैं लेखक अनिल जैन
  • डॉ. द्रोण कुमार शर्मा
    तिरछी नज़र: सरकार जी के आठ वर्ष
    05 Jun 2022
    हमारे वर्तमान सरकार जी पिछले आठ वर्षों से हमारे सरकार जी हैं। ऐसा नहीं है कि सरकार जी भविष्य में सिर्फ अपने पहनावे और खान-पान को लेकर ही जाने जाएंगे। वे तो अपने कथनों (quotes) के लिए भी याद किए…
  • न्यूज़क्लिक डेस्क
    इतवार की कविता : एरिन हेंसन की कविता 'नॉट' का तर्जुमा
    05 Jun 2022
    इतवार की कविता में आज पढ़िये ऑस्ट्रेलियाई कवयित्री एरिन हेंसन की कविता 'नॉट' जिसका हिंदी तर्जुमा किया है योगेंद्र दत्त त्यागी ने।
  • राजेंद्र शर्मा
    कटाक्ष: मोदी जी का राज और कश्मीरी पंडित
    04 Jun 2022
    देशभक्तों ने कहां सोचा था कि कश्मीरी पंडित इतने स्वार्थी हो जाएंगे। मोदी जी के डाइरेक्ट राज में भी कश्मीर में असुरक्षा का शोर मचाएंगे।
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License