NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
राजनीति
अमेरिका
मेरे प्यारे अमेरिका! एक मोहभंग प्रशंसक की पीड़ा 
चुनावी नतीजों के घोषित होते ही हिंसा भड़क सकती है, इस बात से हर कोई पहले से ही सशंकित था, लेकिन इसके बावजूद इसे रोका नहीं जा सका। अमेरिका को इस बात की जाँच करनी चाहिए कि क्या गलत हुआ।
पार्थ एस घोष
07 Nov 2020
US Election

मेरे प्यारे अमेरिका! तुम पर लानत है। दुनियाभर के सभी लोकतंत्र-प्रेमी लोकतंत्र के मामले में मार्गदर्शन को लेकर तुम्हारी ओर ही आस लगाये रहते हैं। तुमने उनके विश्वास को चकनाचूर कर दिया है, जिसकी भरपाई नहीं हो सकती है। 22 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था के साथ, प्रति व्यक्ति आय के मामले में 65,000 डॉलर, साक्षरता की दर 99% होने के साथ-साथ सबसे बड़ी बात जिसके पास अपना एक विशाल बौद्धिक आधार हो, जिसमें 336 नोबेल पुरस्कार विजेता शामिल हों, जो कि कतार में शामिल अगले देश (यूनाइटेड किंगडम) की संख्या से करीब तीन गुनी बड़ी संख्या है, तुम्हारे वश में एक चुनाव तक को गरिमामय तरीके से संचालित करने का हुनर नहीं बचा!

यदि यह कोई अप्रत्याशित घटना होती तो इसके लिए कोई तुम्हें माफ़ भी कर देता। लेकिन यह कोई अनायास घटित होने वाली घटना नहीं थी। तुम्हारे सहित, दुनियाभर ने इसके बारे में पूर्वानुमान लगा रखा था कि जैसे ही नतीजे घोषित होंगे, उसके तत्काल बाद ही इसकी परिणति हिंसा में हो सकती है। तुम्हारे ही राष्ट्रपति की रेस की शुरूआती दौड़ में शामिल एक इंसान, डेमोक्रेटिक पार्टी के बर्नी सैंडर्स ने इस बात की भविष्यवाणी कर दी थी कि आसन्न हार की आशंका को देखते हुए राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प से आखिर किस बात की उम्मीद की जा सकती है। सैंडर्स ने पहले से ही बता दिया था कि ट्रम्प अंतिम गिनती तक का इंतजार नहीं करने वाले, और चुनावी प्रक्रिया के बीच में ही अपनी जीत की घोषणा कर सकते हैं, और अपने प्रशंसकों को हिंसक होने के लिए उकसा सकते हैं।

फिर यह शर्मशार होने का नाटक क्यों किया जा रहा है? क्या ट्रम्प और उनके कट्टर प्रशंसकों ने व्हाइट हाउस को अपनी जागीर समझ रखा है जिसपर कोई और अपना आसन नहीं जमा सकता? यहाँ तक कि आज से दो सौ साल पहले भी विजयी राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार एंड्रू जैक्सन के उन्मादी समर्थक तक इस बात को समझते थे कि वे शाश्वत तौर पर शासन करने के हकदार नहीं हैं। फिर क्यों वही अमेरिका यह सब करने पर उतारू है, जिसने 1789 के शुरूआती दिनों से ही शांतिपूर्ण राष्ट्रपति चुनावों को संपन्न करने के साथ बेहद गरिमापूर्ण ढंग से सत्ता के हस्तांतरण को अंजाम देता आया है, लेकिन आज अचानक से खुद को नाबदान में पा रहा है?

व्यक्तिगत तौर पर इस सबसे मैं बेहद निराश हूँ, और इसके पीछे मेरे अपने तर्क हैं। 1960 के दशक के शुरूआती दिनों में मैं भारतीय विद्यार्थियों के उन पहले-पहल बैच में से था, जिन्हें बिहार के भागलपुर विश्वविद्यालय में अमेरिकी इतिहास से रूबरू होने का अवसर मिला होगा। जहाँ तक मेरी समझ कहती है, उस जमाने में बेहद कम भारतीय विश्वविद्यालयों में ही वैकल्पिक पाठ्यक्रम के तौर पर अमेरिकी इतिहास को पढाये जाने की शुरुआत हुई थी। बाद में जाकर जब मैंने अपनी डॉक्टरेट के लिए जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में शोध कार्य शुरू किया, तब जाकर मुझे इस बात का अहसास हुआ कि यह तो अमेरिकी शीत युद्ध के प्रचार का हिस्सा मात्र है।

भारत में यह सीआईए की गतिविधियों का हिस्सा था या नहीं लेकिन इस पाठ्यक्रम ने मुझे अमेरिका और इसके इतिहास से परिचित कराने का काम किया था, जिसने मेरे भविष्य के कैरियर में विश्व राजनीति के बारे में मेरी समझदारी को बनाए रखने में मदद पहुँचाने का काम किया। 1963 में राष्ट्रपति जॉन ऍफ़ कैनेडी की दुःखद हत्या ने मेरे दिल पर एक गहरी छाप छोड़ दी थी, क्योंकि मुझे वो एक नौजवान तेज-तर्रार नेता लगते थे। इसके बाद तो अमेरिका में मेरी रूचि और भी अधिक बढ़ गई थी। मेरी जीवित स्मृतियों में यह अपने तरह की पहली राजनीतिक हत्या थी। जहाँ तक महात्मा गाँधी की हत्या का प्रश्न है तो उसके बारे में मैंने सिर्फ किताबों से मालूमात हासिल की थी। यही वह समय था जब अमेरिकी दूतावास ने द अमेरिकन रिपोर्टर नाम की एक मासिक समाचार पत्र के प्रकाशन की शुरुआत की थी, जिसे निःशुल्क वितरित किया जाता था (हालाँकि इसकी प्रत्येक प्रतिलिपि में इसके दाम का स्टीकर लगा होता था।)

इस पत्रिका में एक नियमित फीचर के तौर पर “इन्क्वायरिंग रिपोर्टर” नामक खाली स्थान होता था। जिसमें पाठकों को इस सवाल का जवाब देने के लिए आमंत्रित किया गया था: “जिन्दा या मृत में से किस अमेरिकी को आप सबसे अधिक पसंद करते हैं?” मेरी पसंद पहले से ही तय थी। निर्विवाद रूप से उन दिनों मेरे आदर्श थॉमस जेफरसन हुआ करते थे। आज उन्हें संयुक्त राज्य के तीसरे राष्ट्रपति के तौर पर उतना नहीं जाना जाता, जितना इस बात के लिए कि ये वो इंसान थे जिन्होंने अमेरिका की स्वतंत्रता की उद्घोषणा का मसौदा तैयार किया था। जिस बात ने मेरे दिलोदिमाग को सबसे अधिक प्रभावित किया था वह थी विचारों की स्वतंत्रता के प्रति उनकी प्रतिबद्धता। उनकी इच्छा थी कि अन्य बातों के साथ, ये शब्द उनके स्मृति लेख में अंकित कर दिए जाएँ। उनके शब्दों में: “मैंने मनुष्य के मष्तिष्क पर किसी भी प्रकार के अत्याचार के खिलाफ ईश्वरीय शाश्वत सत्ता से भी लड़ने की शपथ ली है।” यह तो बाद में जाकर मुझे पता चला कि जेफरसन असल में अपने गोरी चमड़ी वाले वर्ग के प्रति ही निष्ठावान थे, और खुद ही बड़े दास मालिक थे। इतना ही नहीं, वे अपनी दासी साथी सैली हेम्मिंग के कई बच्चों के पिता तक थे, और उनमें से एक को भी दासता की बेड़ियों से उन्होंने मुक्त नहीं किया। 

अमेरिका में मेरी रूचि के पीछे एक और पहलू भी छिपा हुआ था। बचपन के शुरुआती दिनों से ही कोलंबस की अमेरिका की आकस्मिक खोज ने मुझे हमेशा आकर्षित किया था। मेरा सपना था कि किसी दिन मैं जाकर इन “इंडियंस” से मिलूँगा (भारत में उपनाम वाले “रेड इंडियंस” तो आम थे) ताकि यह जान सकूँ कि क्या उनमें और हमारे बीच में कोई समानताएं हैं या नहीं। हालाँकि यह सपना एक सपना ही बना रहा जबतक कि मैं पहली बार 1975 में लाइब्रेरी ऑफ़ कांग्रेस में शोध के सिलसिले में अमेरिका नहीं गया था। वाशिंगटन डीसी में अपने प्रवास के दौरान अमेरिकी राज्य विभाग के शिक्षा ब्यूरो के साथ मेरा संपर्क बना हुआ था, जिससे कि किसी इंडियन देहात की यात्रा का मेरा सपना साकार हो सके। मैं उस महिला अधिकारी का आजीवन ऋणी रहूँगा (मुझे अब उनका नाम याद नहीं रहा) जिन्होंने वाशिंगटन राज्य के याकीमा वैली रिजर्वेशन में लुइस और एंजी के साथ मेरे लिए दो रातों के प्रवास की व्यवस्था करने में मदद की थी।  

उस यात्रा के दौरान मेरा सबसे यादगार लम्हा, याकीमा इंडिया गेट-टुगेदर में मेरी भागीदारी रही। इंडियंस के बारे में मेरी बचपन की कल्पनाओं में रंगबिरंगे पोशाकों और हेडगियर के विपरीत जिन लोगों से मैं मिला, वे अत्याधुनिक और महंगे फैशनेबल कपड़ों में थे और असाधारण तौर पर आभूषणों से अलंकृत थे। सबसे अधिक मुझे याद आता है वो पल जब मेरे किसान मेजबान श्री लुइस मुझे लगभग खींचते हुए मंच पर ले गए और एक जोरदार घोषणा की “आपके सामने पेश हैं असली इंडियन, जिसकी तलाश में कोलंबस निकला था”। वहां पर जुटी भीड़ ने लगभग कानफोडू स्वर में इस घोषणा पर जोरदार स्वागत किया। मेरा तो दिन बन गया था, क्योंकि इस नाटकीय समापन के साथ मेरे बचपन का सपना पूरा हो गया था। अपनी भारत वापसी के बाद मैंने दिल्ली स्थित अमेरिकन लाइब्रेरी में जाकर अमेरिकी इंडियंस के बारे में और अधिक जानकारी हासिल करने और उनके दुःखद इतिहास के बारे में जानने के लिए परामर्श किया। बाद के दिनों में मैंने उन पर एक लेख लिखा था जिसे प्रमुख साप्ताहिक सन्डे (कोलकाता) ने 16 अप्रैल, 1978 के अंक में “द अदर इंडियंस” शीर्षक के साथ प्रकाशित किया था।  

संयुक्त राज्य अमेरिका में अपने शोध के सिलसिले में यात्रा के दौरान मैंने आखिरी महीने इस देश को और जानने का फैसला किया (इसके लिए ग्रेहाउंड के असीमित अमेरिपास को धन्यवाद देना चाहिए)। उन दिनों तकरीबन हर छोटे या बड़े शहरों में “आतिथ्य केंद्र” हुआ करते थे, जहाँ पर अमेरिकी स्वेच्छा से नौजवान विदेशियों की मेजबानी के लिए खुद को पंजीकृत करा सकते थे। इन अतिथियों को स्थानीय बसों, रेलवे स्टेशन या एअरपोर्ट से ले लिया जाता था और इन कस्बों और इसके आस-पडोस के इलाकों की मुफ्त में सैर कराई जाती थी, जिसमें इसका समापन मेजबान के घर पर लंच या रात के भोजन से हुआ करता था। मुझे याद नहीं है कि उस महीने भर में मैंने इस विशाल संयुक्त राज्य अमेरिका को आड़ा-तिरछा चक्कर लगाते हुए कितने घरों का आतिथ्य स्वीकार किया होगा। उस जमाने में इन्टरनेट की सुविधा नहीं थी, वर्ना मैं अवश्य ही उन अनेकों प्यारे अमेरिकी परिवारों के संपर्क में रहता।  

इसलिए भी यह मुझे पीड़ा पहुंचाता है जब मैं देखता हूँ कि जिन पहलुओं को लेकर मैं अमेरिका से प्रेम करता था वे मेरी आँखों के सामने ढह रहे हैं। अमेरिकियों को इस बात की याद दिलाये जाने की जरूरत नहीं है कि किस प्रकार से उनका देश वैश्विक मानदंडों को क्रमिक जीवन पर अभी भी बड़े पैमाने पर प्रभाव डाले रखता है (कई मायनों में, यह एक अलग बात है कि संयुक्त राज्य अमेरिका अपनी गन्दी नाक को दुनिया के किसी भी कोने और दरार में घुसाने से बाज नहीं आता)। यदि अमेरिकी लोकतंत्र लड़खड़ाता है तो वह दिन दूर नहीं जब दुनिया के ज्यादातर विकासशील देशों में उड़ान भरने की कोशिश कर रहे लोकतन्त्रों का हाल किसी ताश के पत्तों की तरह ढह जाने में तब्दील हो सकता है। 

एक गैर-अमेरिकी होने के नाते मुझे अमेरिकियों को सलाह देने का कोई अधिकार नहीं है लेकिन कुछ चीजें ऐसी हैं जो किसी भी औसत बुद्धि वाले को चुनौती दे सकती है। मैं इस बात पर भी बहस नहीं कर रहा हूँ कि केवल लोकप्रिय मतों को ही महत्व दिया जाना चाहिए, और यह कि इलेक्टोरल कॉलेज अपने आप में कालदोष-युक्त है। मेरे पास तर्क के लिए पर्याप्त वजहें हैं (मेरे अक्टूबर कॉलम को देखें) कि अपने संशोधित रूप में यह शायद अमेरिका के संघीय मॉडल के लिए श्रेष्ठ गारंटी के तौर पर है। और इसके बावजूद मैं विश्वास नहीं कर पा रहा हूँ कि इतने बुद्धिमान देश के होते हुए वह अपने इलेक्टोरल हाउस को क्रम में रखने को लेकर इस प्रकार से नौसिखिये की तरह बर्ताव कर सकता है। भले ही राष्ट्रपति पद की दौड़ में कोई भी विजयी घोषित हो, कांग्रेस के अजेंडे पर पहला काम यह होना चाहिए कि वह द्विदलीय समिति को चुने, जो अमेरिकी चुनावी सिस्टम में व्याप्त दुर्दशा को दूर करने के लिए उन सभी कष्टदायी कमियों को दूर करे। रिपोर्ट पर शब्दशः बहस करे और वर्ष के अंत तक अपना अंतिम दस्तावेज को पारित करने में जुटे। इसे देश के लिए 2022 के नए वर्ष की सौगात समझा जाए।

लेखक सामाजिक विज्ञान संस्थान, नई दिल्ली में वरिष्ठ फेलो हैं। आप पूर्व आईसीएसएसआर के नेशनल फेलो के साथ-साथ दक्षिण एशियाई अध्ययन के जेएनयू में प्रोफेसर रहे हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिेए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

My Dear America! The Torment of a Disillusioned Fan

democracy
US Election
Donald Trump
Bernie Sanders
US Imperialism

Related Stories

भारत में संसदीय लोकतंत्र का लगातार पतन

जन-संगठनों और नागरिक समाज का उभरता प्रतिरोध लोकतन्त्र के लिये शुभ है

क्यों USA द्वारा क्यूबा पर लगाए हुए प्रतिबंधों के ख़िलाफ़ प्रदर्शन कर रहे हैं अमेरिकी नौजवान

Press Freedom Index में 150वें नंबर पर भारत,अब तक का सबसे निचला स्तर

यूपी में संघ-भाजपा की बदलती रणनीति : लोकतांत्रिक ताकतों की बढ़ती चुनौती

ढहता लोकतंत्र : राजनीति का अपराधीकरण, लोकतंत्र में दाग़ियों को आरक्षण!

लोकतंत्र और परिवारवाद का रिश्ता बेहद जटिल है

अब ट्यूनीशिया के लोकतंत्र को कौन बचाएगा?

किधर जाएगा भारत— फ़ासीवाद या लोकतंत्र : रोज़गार-संकट से जूझते युवाओं की भूमिका अहम

न्यायिक हस्तक्षेप से रुड़की में धर्म संसद रद्द और जिग्नेश मेवानी पर केस दर केस


बाकी खबरें

  • न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    छत्तीसगढ़ः 60 दिनों से हड़ताल कर रहे 15 हज़ार मनरेगा कर्मी इस्तीफ़ा देने को तैयार
    03 Jun 2022
    मनरेगा महासंघ के बैनर तले क़रीब 15 हज़ार मनरेगा कर्मी पिछले 60 दिनों से हड़ताल कर रहे हैं फिर भी सरकार उनकी मांग को सुन नहीं रही है।
  • ऋचा चिंतन
    वृद्धावस्था पेंशन: राशि में ठहराव की स्थिति एवं लैंगिक आधार पर भेद
    03 Jun 2022
    2007 से केंद्र सरकार की ओर से बुजुर्गों को प्रतिदिन के हिसाब से मात्र 7 रूपये से लेकर 16 रूपये दिए जा रहे हैं।
  • भाषा
    मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने चंपावत उपचुनाव में दर्ज की रिकार्ड जीत
    03 Jun 2022
    चंपावत जिला निर्वाचन कार्यालय से मिली जानकारी के अनुसार, मुख्यमंत्री को 13 चक्रों में हुई मतगणना में कुल 57,268 मत मिले और उनके खिलाफ चुनाव लड़ने वाल़ कांग्रेस समेत सभी प्रत्याशियों की जमानत जब्त हो…
  • अखिलेश अखिल
    मंडल राजनीति का तीसरा अवतार जाति आधारित गणना, कमंडल की राजनीति पर लग सकती है लगाम 
    03 Jun 2022
    बिहार सरकार की ओर से जाति आधारित जनगणना के एलान के बाद अब भाजपा भले बैकफुट पर दिख रही हो, लेकिन नीतीश का ये एलान उसकी कमंडल राजनीति पर लगाम का डर भी दर्शा रही है।
  • लाल बहादुर सिंह
    गैर-लोकतांत्रिक शिक्षानीति का बढ़ता विरोध: कर्नाटक के बुद्धिजीवियों ने रास्ता दिखाया
    03 Jun 2022
    मोदी सरकार पिछले 8 साल से भारतीय राज और समाज में जिन बड़े और ख़तरनाक बदलावों के रास्ते पर चल रही है, उसके आईने में ही NEP-2020 की बड़ी बड़ी घोषणाओं के पीछे छुपे सच को decode किया जाना चाहिए।
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License