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भारत
राजनीति
1993 की वो नौ मौतें जिन्होंने मुंबई को दहला दिया था
सुलेमान बेकरी केस की पिछले 27 साल से सुनवाई जारी है।
मीना मेनन
07 Dec 2019
Suleman Bakery case
Photo Courtesy: Mumbai Mirror

कोर्ट के लिए निकलते वक़्त ग़ुलाम मोहम्मद फ़ारूक़ शेख़ अपनी जेब में 500 रुपये का एक नोट डाल रहे हैं। दूसरे हाथ से वे उजले हरे रंग के एक धब्बेदार प्लास्टिक बैग को बंद करते हैं। शेख़, लोक अभियोजक रतनावली पाटिल से कहते हैं कि वे अगली सुनवाई में नहीं आ पाएंगे, क्योंकि उन्हें अम्बेजोगोई में एक शादी में जाना है। 1993 के सुलेमान बेकरी केस में वे तीसरी बार गवाही देने आए हैं। अब केस में केवल कुछ पत्रकारों और संबंधित पक्षों को छोड़कर किसी की रुचि नहीं है।

68 साल के शेख़ के मुताबिक़ उन्हें दिल की बीमारियाँ हैं, इसके चलते उन्हें सेशन कोर्ट की पुरानी बिल्डिंग की सीढ़ियां चढने में दिक़्क़त होती है। वे जज के फ़ैसले के इंतज़ार में बैठे-बैठे ज़ुखाम की गोलियां ले रहे हैं। सुनवाई में जज, बचाव पक्ष की 26 नवंबर को होने वाली सुनवाई को स्थगित करने की मांग पर विचार कर रहा है। जज ने स्थगन के लिए 1500 रुपये भरने और आगे कोई देरी न करने का फ़ैसला दिया। शेख़ और दो और गवाहों का वक़्त तो नहीं लौटाया जा सकता, लेकिन उनका यात्रा भाड़ा दे दिया गया। बाक़ी दो गवाह पुलिसवाले हैं।

उस दिन सात आरोपी पुलिसकर्मियों के वकील श्रीकांत शिवड़े मौजूद नहीं थे। इससे पहले भी गवाहों को अलग-अलग कारणों के चलते वापस भेजा जा चुका है। एक बार गवाहों को देर से आने की वजह से वापस भेजा गया। तो दूसरी बार आरोपी पुलिसवालों में से एक बीमार हो गया और कोर्ट नहीं आ सका। उस वक़्त जो शख़्स गवाही देने आया था, उसने फ़ायरिंग में अपने पिता को खोया था। एडिशनल सेशन जज यू एम पडवाड देरी होने का रोना रोते रहते हैं और चीज़ों में वक़्त लगता जाता है। 

दक्षिण मुंबई की मोहम्मद अली सड़क पर मशहूर बेकरी और उसके पास वाले मदरसे में घटी घटना को अब 27 साल हो चुके हैं। 1992-93 के दंगों पर आई जस्टिस श्रीकृष्णा की रिपोर्ट में तथ्यों को रिकॉर्ड किया गया था। मामले में दोषी ठहराए गए लोगों से ज़्यादा लोग बरी हुए हैं।

अभी तक पांच गवाह, गवाही दे चुके हैं। मौक़ा-ए-वारदात का पंचनामा भी 2001 में बनाया गया। इस केस में घटना का पहला गवाह भी अब पलट चुका है। इसकी वजह सबूतों के परीक्षण में हो रही देरी है। क्योंकि पुलिस कंट्रोल रूम से संबंधित पुराने टेप को सुनने के लिए कोर्ट में टेप रिकॉर्डर नहीं था। जब तक ने जज ने फटकार नहीं लगाई, तब तक कंट्रोल रूम की लॉग बुक्स को कोर्ट में नहीं लाया गया। गवाहों के लिए इतने सालों के बाद घटनाओं को हूबहू याद करना या उन संदेशों को दोहराना कई बार मुमकिन नहीं होता। बतौर वॉयरलैस ऑपरेटर उन्होंने जो संदेश और दूसरी जानकारी लिखी थी, उसे याद करना भी मुश्किल होता है।

पहले गवाह मोहम्मद फ़ारूक़ मोहम्मद फ़ाज़िल ने कोर्ट में कहा था कि वे जूते-चप्पल बेचते हैं। उन्होंने केवल यही बात कोर्ट में मानी। उनके मुताबिक़, जब एक जून 2001 को पुलिस उनसे पंचनामा पर दस्तख़त करवाने आई, तब उन्हें पंचनामा में लिखी सामग्री की जानकारी नहीं थी। ना ही उन्हें यह जानकारी है कि बेकरी में 1993 में क्या हुआ। उन्होंने अपने बयान में हर चीज़ से इनकार कर दिया। 

एक दूसरे गवाह 64 साल के दिलीप वामनराव निकाले उस वक्त कंट्रोल रूम में बतौर वायरलेस ऑपरेटर काम करते थे। उस दिन वे ड्यूटी पर भी थे। उन्होंने लॉग बुक में एंट्रियों की पहचान भी की, जिसे कोर्ट में लाया गया था। निकाले के मुताबिक़, उस दौरान 100 से 150 गुना ज़्यादा तेज़ी से संदेश आए। कमरे में आठ या नौ वायरलेस थे। डोंगरी और पायढोनी इलाक़ों में दंगों के वक़्त कुछ अस्थायी वॉयरलैस सेट भी लगाए गए थे। इसमें लोगों द्वारा पुलिस पर फ़ायरिंग करने के कुछ संदेश थे। निकाले और अन्य वायरलेस ऑपरेटर्स इस अभूतपूर्व स्थिति के गवाह थे।

9 जनवरी 1993 को सुलेमान बेकरी फ़ायरिंग हुई थी। बाबरी मस्ज़िद गिराए जाने के बाद 1992 के दिसंबर में शहर दंगों की गिरफ़्त में था। तक़रीबन 500 लोगों की मौत हो चुकी थी। दिसंबर के अंत में पायोढीन इलाके में एक मथाड़ी और जनवरी में चार लोगों की हत्या के बाद फिर से हिंसा भड़कने की स्थिति बन गई। इन हत्याओं को सांप्रदायिक रंग शिवसेना ने दिया था।

9 जनवरी की सुबह रिपोर्ट आई कि सुलेमान बेकरी इलाक़े में कुछ लोगों ने फ़ायरिंग की है, इसके बाद ज्वाइंट कमिश्नर रामदेव त्यागी के नेतृत्व में एक पुलिस टीम और भारी हथियारों के साथ स्पेशल ऑपरेशन स्कवॉड घटनास्थल की ओर बढ़ा। पुलिस के पहुंचने के बाद घटनास्थल पर हुई फ़ायरिंग में नौ लोगों की मौत हो गई। श्रीकृष्णा आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा, ''सबूतों का बारीक़ी से परीक्षण करने के बाद आयोग को लगता है कि पुलिस की कहानी में विश्वसनीयता नहीं है।''

त्यागी ने बेकरी में घुसने और गोली चलाने से इनकार किया था। 2001 में महाराष्ट्र सरकार की स्पेशल टास्क फ़ोर्स (एसआईटी) ने सुलेमान बेकरी केस में 18 पुलिसवालों के ख़िलाफ़ मामला दर्ज किया। लेकिन ट्रॉयल कोर्ट ने 2003 में त्यागी समेत 9 पुलिसवालों को बरी कर दिया। तब लोक अभियोजक ने कहा था कि पुलिसवालों को बरी किए जाने के फ़ैसले को चुनौती देने के लिए पर्याप्त सबूत नहीं हैं। ट्रॉयल कोर्ट ने बाक़ी पुलिसवालों के ख़िलाफ़ कार्रवाई आगे बढ़ाने को कहा और फ़िलहाल इस मामले में सात लोगों पर सेशन कोर्ट में मामला चल रहा है। इनमें से दो की मौत हो चुकी है। 

बेकरी से सटे मदरसे में पढ़ाने वाले शिक्षक नुरूल हुदा मक़बूल अहमद भी उस फ़ायरिंग में पीड़ित थे। उन्होंने त्यागी को बरे किए जाने के ख़िलाफ़ हाईकोर्ट में अपील की। कोर्ट ने कहा कि गोली चलाना ग़ैर-ज़रूरी था, लेकिन पुलिसवालों के ख़िलाफ़ सबूतों की कमी है। इसके बाद अहमद 2011 में सुप्रीम कोर्ट पहुंचे। यहां भी सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के फ़ैसले को बरक़रार रखा। 2012 में अहमद की मौत हो गई। उनके बेटे अब्दुल समद एक मोबाइल सुधारने की दुकान चलाते हैं। उन्हें केवल इतना याद है कि फ़ायरिंग में अहमद के पैर में चोट आई थी, जो पूरी ज़िंदगी उनके साथ रही।

वहीं बेकरी के मालिक मोहम्मद अब्दुल सत्तार इस मामले से आगे बढ़ चुके हैं। घटना में उनके पांच कर्मचारियों की मौत हुई थी। उनके कई कर्मचारियों पर दंगा-फ़साद के आरोप लगे थे, हालांकि बाद में सभी बरी हो गए। सत्तार दो सालों में अपना व्यवसाय फिर खड़ा करने में सफल हो गए। वो आमतौर पर शाम को बेकरी के पास सड़क किनारे अपने दोस्तों के साथ बैठते हैं।

इतने साल गुज़रने के बाद भी घटना की याद पीड़ितों के ज़ेहन में ताज़ा है। पीड़ितों को 6 दिसंबर 1992 के दंगों से प्रभावित लोगों की तरह अब इंसाफ़ की उम्मीद भी कम ही है। इस बीच 16 दिसंबर को मामले की अगली सुनवाई है, जहां और गवाहों को हाज़िर किया जाएगा।

मीना मेनन स्वतंत्र पत्रकार हैं। यह उनके निजी विचार हैं।

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

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