‘इतवार की कविता’ में पढ़ते हैं कवि-पत्रकार उपेंद्र चौधरी की एक नई कविता...जिसमें वे दीन-दुनिया के मामूल का ज़िक्र करते हुए बता रहे हैं कि कैसे “इस साल भी…, जलता रहा दीया, दरकती रही छाती”।
प्रतीकात्मक तस्वीर। साभार: एनडीटीवी
इस साल भी !
मस्जिदों में इस साल भी
होती रही अज़ान
चलती रही नमाज़
मंदिरों में इस साल भी
होती रही प्रार्थना
चलती रही प्रदक्षिणा
गुरुद्वारों में इस साल भी
होता रहा अरदास
चलता रहा लंगर
गिरिजाघरों में इस साल भी
होती रही स्वीकारोक्ति
चलता रहा पश्चाताप
दुनिया में इस साल भी
होता रहा युद्ध
भभकता रहा दुख
रिसती रही भूख
बनता रहा ब्योरा
घना रहा अंधेरा
जाती रही जान
जारी रहा गान
मोटा हुआ सेठ
खदबदाता रहा खेत
रिसता रहा तेल
टीसती रही बाती
जलता रहा दीया
दरकती रही छाती
मगर,
धर्मगुरुओं ने धर्मभिरुओं से कह दिया है
हर साल की तरह इस साल भी
रौशनी को मज़हब से ये हुक़्म है
छतों और दीवारों पर लटकेंगे
सबके अपने-अपने शब-ए-बारात
कैंडिल से रिस-रिसकर पिघलेगी
एक-एक कुकर्मों की मुक्ति
दरवाज़ों पर सजेगी दीयों की क़तार
फेंटे जायेंगे ताश के पत्ते
फटेगी बारूद
गूंजेगा धमाका
पत्तों, बारूद और धमाकों के बीच
रौशनी को जगमगाना होगा
ताकि
फ़रमान जारी किया जा सके
मज़हब के हरम में
धर्म के भरम में
सबकुछ है दुरुस्त !
कवि-पत्रकार