NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
भारत
राजनीति
अंतरराष्ट्रीय
अर्थव्यवस्था
'लोकलुभावन' शब्द के अनेक इस्तेमाल
विश्व बैंक की ओर से सुव्यवस्थित तौर पर विशिष्ट वामपंथी अवधारणाओं को बेअसर किया जा रहा है। यहाँ तक कि वामपंथी बुद्धिजीवियों के खेमे में भी मार्क्सवादी विश्लेषण की अनदेखी और उदार बुर्जुआ शर्तों को स्वीकार करने की प्रवृत्ति दिखाई पड़ती है।
प्रभात पटनायक
29 Feb 2020
World Bank

विचारों के दायरे में भी वर्ग संघर्ष चलता रहता है। उदाहरण के लिए, विश्व बैंक की ओर से वाम अवधारणाओं की काट के लिए एक नई रणनीति ईजाद की गई है। उसमें वामपंथी अवधारणाओं को ही अपने इस्तेमाल में लाना शामिल है, लेकिन कुछ इस तरह कि उसका अर्थ ही पूरी तरह से बदल जाए। जिसके नतीजे में होता ये है कि जैसा कि मूल रूप से वाम ने इसके बारे में अंदाजा लगा रखा था, उससे बिलकुल विपरीत इसे पेश किया जाता है, इतना कि सबकुछ बेहद धुंधला नजर आता है, जोकि वामपंथियों के लिए बेकार हो जाता है। दोनों ही स्थितियों में वामपंथी विचारों की ताकत को बेअसर कर दिया जाता है।

अब जैसे उदाहरण के लिए "ढांचागत" शब्द हमेशा से वामपंथी शब्दकोश का अभिन्न अंग हुआ करता था। जहाँ दक्षिणपंथी बुर्जुआ की कोशिश थी कि तीसरी दुनिया के देशों को सब कुछ “बाजार पर छोड़ देना चाहिए”, वहीँ तीसरी दुनिया के देशों में वाम शक्तियों ने ज़मीन पर इसका हमेशा विरोध किया, क्योंकि उनका मानना था कि इन देशों की मुख्य समस्या “ढांचागत” है, जो उनके ढ़ांचे में है, और जिसे बदलने की जरूरत थी। और इसे भूमि सुधारों जिसमें भूमि का पुनर्वितरण शामिल है, के ज़रिये बदलना परमावश्यक होगा।

अब मज़े की बात देखिये कि विश्व बैंक ने अपनी शैतानी चालों से इसी शब्द “ढांचागत समायोजन” को अपने शब्दकोश में समाहित कर लिया है, और विडंबना यह है कि वह इसका इस्तेमाल कृषि ढाँचे में सुधार लाने के बजाय बाजारोन्मुखी “सुधारों” को बढ़ावा देने के लिए धड़ल्ले से इस्तेमाल कर रहा है।

इसी तरह "उदारीकरण" शब्द पर भी जरा विचार करें। अपने सुधार के एजेंडे को यह नाम देकर दक्षिणपंथी बुर्जुआ सिद्धांत इस बात को सिद्ध करने लगा है कि जो कोई इसके विरोध में है वह असल में “अनुदारवादी” है, और इसलिये कहीं न कहीं “निरंकुशता" में यकीन रखता है और इसका मतलब “लोकतंत्र-विरोधी” है। इस तथ्य के बावजूद कि “उदारीकरण" के ज़रिये पूंजी के उन्मुक्त आदिम संचय पर इसका ठीक विपरीत प्रभाव पड़ता है, और यह आबादी के बड़े हिस्से को बड़े पैमाने पर हाशिये पर धकेलने के काम आता है, छोटे-मोटे उत्पादकों के अधिकारों के दमन को अंजाम देता है, और कुल मिलाकर अपने आप में विषाक्तपूर्ण लोकतंत्र विरोधी है। और यही विडम्बना तब देखने को मिलती है, जब हमें ऐसे बयानों से दो-चार होना पड़ता है जैसे कि “बोल्सोनारो तो “उदारवादी नीतियों” को लागू कर रहे हैं (जबकि वास्तविकता में वह निर्मम रूप से लोकतंत्र विरोधी है)!"

लेकिन इस “लोकलुभावन” शब्द के जबरिया धड़ल्ले से इस्तेमाल के ज़रिये, जो कि अपने आप में इसकी शैतानी प्रवृत्ति को जाहिर करता है, और यहाँ तक कि यह वामपंथ के अच्छे खासे हिस्से तक को प्रभावित करता है। पहले पहल इस शब्द का इस्तेमाल रूसी सामाजिक जनवादी दल, लेबर पार्टी की ओर से किया गया था, और विशेष रूप से इसके बोल्शेविक धड़े के सदस्यों की ओर से देश में क्रन्तिकारी परिवर्तनों की रणनीति के बारे में नारोदनिकी के विचारों को अपनी बहस में उल्लेख के लिए।

नारोदनिकी चाहते थे कि गाँवों में कम्यून (मिर) जो कि रूस में पहले से ही मौजूद थे, को सीधे समाजवाद में रूपांतरित कर दिया जाये। वहीँ दूसरी ओर, बोल्शेविकों का तर्क था कि मिर अपनेआप में अब कोई अपरिवर्तनीय ईकाई के रूप अस्तित्व में नहीं है, क्योंकि रूस में पूँजीवाद का विकास काफी तेजी से हो रहा था, और इस प्रक्रिया में मिर तहस-नहस हो चुके थे, और इसलिए क्रांति का अगुआ नव-निर्मित शहरी श्रमिक वर्ग होने जा रहा है। लेनिन की पुस्तक, द डेवलपमेंट ऑफ़ कैपिटलिज़्म इन रशिया, ने इस मुद्दे को रेखांकित किया था।

"लोकलुभावनवाद" शब्द का उपयोग उस प्रवृत्ति का वर्णन करने के लिए किया गया था, जिसने "लोगों" को एक अविभाज्य इकाई के रूप में देखता था। और "लोकलुभावनवाद" के मार्क्सवादी आलोचकों का कहना था कि उनकी ओर से इसका इस्तेमाल उस समय किया गया जब “लोगों” के बीच में विभेदीकरण की प्रवृत्ति काफी बढ़ रही थी। अपनेआप में तो निश्चित तौर पर मार्क्सवादी, "जनता” शब्द को इस्तेमाल में लाते हैं, जैसे कि "जनता की लोकतांत्रिक तानाशाही।" लेकिन यहाँ पर वे “जनता” के बारे में जब कह रहे होते हैं तो उसका संदर्भ विशिष्ट वर्गों से होता है, न कि अविभाज्य जन के रूप में।

काफी बाद में जाकर 1920 के दशक में, इस दृष्टिकोण को पुनर्जीवित किया गया था कि रूसी ग्रामीण इलाकों में जिसमें मुख्य रूप से किसान थे, और जो वर्गों के तौर पर अविभाज्य बने हुए थे। इसमें यह माना गया कि किसानों के बीच अन्तर उनके परिवार के आकार के अनुरूप हैं, इसलिये उनके बीच प्रति व्यक्ति ज़मीन के आकार में कोई अधिक अंतर नहीं है। इस दृष्टिकोण के प्रमुख प्रतिपादक ए वी च्यानोव थे, जिन्हें "नव-लोकलुभावन" के रूप में जाना जाता है, क्योंकि वे कृषक वर्ग की उसी पुरानी लोकलुभावन अवधारणा को पुनर्जीवित कर रहे थे, जिसमें उनके अंदर वर्ग विभाजन को दर्शाया नहीं जा रहा था।

लेकिन आज के दिन में जिस अर्थ में "पॉपुलिज्म" शब्द को अक्सर उपयोग में लाया जा रहा है, वह अपने आप में पूरी तरह से अलग अर्थ लिए हुए है। इसके अनुसार “जनता” शब्द को "अभिजात वर्ग" के विरोध में देखा जाता है, और “जनता” को आकृष्ट करने के लिए जिन उपायों को अपनाया जाता है, वे "अभिजात वर्ग" के विचारों के साथ तालमेल नहीं खाते,  और वांछनीय के रूप में उनकी वकालत की जाती है। "लोकलुभावनवाद" की यह अवधारणा इतनी धुंधलकी है कि यह व्यापक पैमाने पर अर्थव्यवस्था के दायरे में पुनर्वितरण के उपायों से लेकर अल्पसंख्यक समूह के खिलाफ व्याप्त सांप्रदायिक घृणा की भावना तक को छुपाने में इस्तेमाल किया जाने लगा है।

पूरी तरह से इस लोचदार और किसी भी विचार के प्रति आकृष्ट हो जाने की संभावना को देखते हुए "वामपंथी लोकलुभाववाद" और "दक्षिणपंथी लोकलुभाववाद" के बीच एक अंतर खींचा गया है: अर्थव्यवस्था के दायरे में पुनर्वितरण के उपायों को "वाम लोकलुभावनवाद" के रूप में वर्गीकृत किया जाता है, जबकि सांप्रदायिक घृणा को भड़काने को "दक्षिणपंथी लोकलुभावनवाद" कहा जाता है।

इस प्रकार के "वाम लोकलुभावनवाद" और "दक्षिणपंथी लोकलुभावनवाद" के बीच, जो कि दोनों ही ख़ारिज कर दिए गए, और इनके मध्य से कोई पवित्र सा रास्ता निकाला गया, जिसे किसी भी प्रकार के "लोकलुभावनवाद" से मुक्त बताया गया। लेकिन जब हम इसके गहन परीक्षण में जाते हैं, तो इस मध्य के बारे में तो पाते हैं कि अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में यह क्लासिक नव-उदारवादी नीतियों को लागू करने और राजनीति के दायरे में यह उदार बुर्जुआ विचारधारा के अंतर्गत के रूप में सामने आता है। संक्षेप में कहें तो इस अर्थ में  "लोकलुभावन" शब्द लिबरल बुर्जुआ डिस्कोर्स के भीतर ही खुद को समाहित किये हुए है।

पुनर्वितरण के उपायों को "लोकलुभावन" बताना, जो कि पूरी तरह से गलत है, क्योंकि इसमें आर्थिक विकास की कीमत पर संसाधनों की लूट को अंजाम दिया जाता है। यह डिस्कोर्स ज़ाहिर तौर पर घोषणा करता है कि जो भी आर्थिक विकास किया जा रहा है, इससे अंततः ग़रीबों का ही भला होने जा रहा है, और संक्षेप में संचालन के दौरान विकास का प्रभाव “ट्रिकल डाउन” होने जा रहा है, इसमें इसका विश्वास है। जबकि सारे सुबूत इस बात की ओर इशारा करते हैं कि ऐसे "ट्रिकल डाउन" अपने आप में बेफिजूल अवधारणा हैं।

लेकिन इस सबके बावजूद बड़ी संख्या में लोग इस “लोकलुभावन” शब्द का उपयोग उदारवादी बुर्जुआ अर्थों में इस्तेमाल करते रहते हैं, यहाँ तक कि सारी दुनिया में वे लोग भी जो वामपंथी खेमे से जुड़े हुए हैं। वे इस शब्द का इस्तेमाल खास तौर पर दक्षिणपंथी उभार को चिन्हित करने के लिए करते हैं, जो आज के समय में वैश्विक स्तर पर देखने को मिल रही है। और इस प्रकार सभी प्रकार के फासीवादी, अर्ध-फासीवादी, आभासी-फासीवादी आंदोलनों, के साथ ही वे आन्दोलन भी जो इस या उस धार्मिक या जातीय समूह के वर्चस्व को बनाए रखने में लगे हैं, को बेहद शिष्ट रूप से "लोकलुभावन" बता कर पारित कर दिया जाता है। और इस प्रकार पूर्ण तौर पर इन्हें प्रगतिशील आंदोलनों और सरकारों, जिनकी मुख्य माँग या क्रियान्वयन ही ग़रीबों के पक्ष में पुनर्वितरण की होती है, दुर्भाग्य से उनके समतुल्य आदर-सत्कार दिया जाने लगता है।

इस तरह के वर्गीकरण का एक परिणाम तो यह है कि इस तरह के आँदोलनों के वर्ग चरित्र को पूरी तरह से नष्ट कर दिया जाता है, और इस प्रकार के आंदोलनों या शासनों की वर्ग प्रकृति को धुंधलके में डालकर, वास्तव में यह किसी भी प्रकार के वर्ग विश्लेषण को हतोत्साहित करने में जुट जाता है। तथ्यात्मक रूप से हम पाते हैं कि धार्मिक या जातीय समूह जब प्रमुखता में उभरने लगते हैं और समाज में घृणा फैलाना शुरू कर देते हैं, तो इसे अचानक से और समझ से बाहर करार दिया जाता है। कई बार तो बड़ी खूबसूरती से इसे आकस्मिक प्रसंग, परिघटना के रूप में स्वीकार लिया जाता है, और मान लिया जाता है कि इसका पूँजीवाद से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं है, या प्रचलित वर्गों की अवस्थिति से इसका कोई लेना-देना नहीं है।

इस प्रकार के आंदोलनों का एक समानांतर चरित्रीकरण भी है, जिन्हें "राष्ट्रवादी" आन्दोलन का नाम दिया गया है। यहाँ पर फिर से एक बार बेहद महत्वपूर्ण अन्तर को खत्म कर दिया जाता है, विशेष रूप से उपनिवेशवाद विरोधी राष्ट्रवाद और वर्चस्ववादी राष्ट्रवाद के बीच के अंतर को नष्ट करने के रूप में।

“राष्ट्रवाद” शब्द को इस प्रकार के आंदोलनों के लिए सुरक्षित रखकर "राष्ट्रवाद" शब्द को वर्चस्ववादी स्वरूप में समाहित कर, इस प्रकार के दृष्टिकोण उपनिवेशवाद विरोधी या साम्राज्यवाद-विरोधी राष्ट्रवाद को भी खारिज कर डालते हैं। और इस प्रकार यह स्पष्ट रूप से साम्राज्यवादी वैश्वीकरण को महिमामंडित करने में जुट जाता है। इस तरह के वैश्वीकरण से किसी भी प्रकार के सम्बन्ध-विच्छेद या अंतर्राष्ट्रीय वित्त पूंजी के अधिपत्य से अलग स्वतंत्र नीतियों के एक सेट को आगे बढ़ाने के किसी भी अन्य प्रयास को, चूँकि खुद को यह "राष्ट्रवादी" मानता है इसलिये दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है, अपने प्रतिक्रियावादी रूप में सामने आता है।

हालांकि "राष्ट्रवाद" को एक सजातीय श्रेणी के रूप व्यवहार में लाना बेतुका होगा। उदाहरण के लिए हिटलर का "राष्ट्रवाद" गांधी के "राष्ट्रवाद" से मौलिक रूप से भिन्न था। हमारे पास एक सजातीय श्रेणी उदाहरण प्रस्तुत करने के लिए एक उदाहरण मौजूद है, जिसमें इसके विविध और विरोधाभासी परिघटना को विश्लेषित किया जा सकता है, और जिसके चलते मुक्तिकामी प्रगतिशील आंदोलनों के लिए बहुत मुश्किलें खड़ी होती हैं। लेकिन इसके बावजूद बुद्धिजीवियों का एक बड़ा हिस्सा, जिनमें वामपंथी भी शामिल हैं, अपने प्रयासों में सभी "राष्ट्रवादों" को एक ही ब्रश से तारकोल में डुबोने में जुटे रहते हैं।

दक्षिणपंथी वर्चस्ववादी आँदोलनों की दुनियाभर में जो बाढ़ आई हुई है, के वर्णन के लिए कभी-कभी “राष्ट्रवादी-लोकलुभावन” हाइफ़न से संयुक्त शब्द का उपयोग किया जाता है। यह दोगुना आपत्तिजनक है, क्योंकि यह विभेदीकरण के दोनों उदाहरणों की कमियों को, "राष्ट्रवाद" के रूप में अविभेदित बुराई के रूप में और "लोकलुभावनवाद" के रूप में एक और अविभेदित बुराई के रूप एक साथ ठूंस देना हुआ।

इस तरह कह सकते हैं कि "लोकलुभावन" शब्द अपने मूल अर्थ को खो चुका है, जिसमें "जनता" को वर्ग दृष्टि से न देख उसे अविभेदित दृष्टि से देखना, कुछ इस तरह से देखना हुआ जो दक्षिणपंथी वर्चस्ववाद की विद्रूपता को ढांपने का काम करती है, और जो इसे ग़रीबों के पक्ष में पुनर्वितरित आर्थिक उपायों के साथ आगे बढ़ाने के रूप में ठूंस कर दिखाने का काम करती है, और उसके दयालु प्रवृत्ति को प्रदर्शित करती है।

इसी प्रक्रिया के दौरान यह समृद्ध मार्क्सवादी परंपरा को भी नेपथ्य में धकेलने का काम करती है, जो अपने विश्लेषण में पूँजीवाद के तहत फासीवादी, फासीवादी, अर्ध-फासीवादी,  फासीवाद की शैशवावस्था और वर्चस्ववादी प्रवृत्तियों के पैदा होने को जो तीक्ष्ण आर्थिक संकट के समय में पूंजीवाद के उभार के रूप में इस तरह की प्रवृत्तियों के उत्कर्ष को चिन्हित करने में पूरी तरह से सक्षम है। 

कहने की आवश्यकता नहीं है कि लिबरल बुर्जुआ किसी भी सूरत में मार्क्सवादी विश्लेषण को स्वीकार नहीं करने जा रहा, लेकिन वामपंथियों के एक अच्छे-खासे धड़े को यह ज़रूर सोचना चाहिए कि वे मार्क्सवादी विश्लेषण को नज़रअंदाज़ कर लिबरल बुर्जुआ शब्द को स्वीकार कर किस प्रकार से वैचारिक रूप से खुद को अक्षम सिद्ध करने में जुटे हुए हैं।

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

The Many Uses of the Term ‘Populism’

Populism
World Bank Terminology
Left Intelligentsia
Marxist Analysis
capitalism
Nationalism
Right Wing Supremacy

Related Stories

वित्त मंत्री जी आप बिल्कुल गलत हैं! महंगाई की मार ग़रीबों पर पड़ती है, अमीरों पर नहीं

भारत की राष्ट्रीय संपत्तियों का अधिग्रहण कौन कर रहा है?

श्रीलंका का संकट सभी दक्षिण एशियाई देशों के लिए चेतावनी

आर्थिक असमानता: पूंजीवाद बनाम समाजवाद

क्यों पूंजीवादी सरकारें बेरोज़गारी की कम और मुद्रास्फीति की ज़्यादा चिंता करती हैं?

सामाजिक कार्यकर्ताओं की देशभक्ति को लगातार दंडित किया जा रहा है: सुधा भारद्वाज

पूंजीवाद के अंतर्गत वित्तीय बाज़ारों के लिए बैंक का निजीकरण हितकर नहीं

कैसे मोदी का माइक्रो-मैनेजमेंट मॉडल अराजकता में बदल गया

गांधी तूने ये क्या किया : ‘वीर’ को कायर कर दिया

क्या पनामा, पैराडाइज़ व पैंडोरा पेपर्स लीक से ग्लोबल पूंजीवाद को कोई फ़र्क़ पड़ा है?


बाकी खबरें

  • blast
    न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    हापुड़ अग्निकांड: कम से कम 13 लोगों की मौत, किसान-मजदूर संघ ने किया प्रदर्शन
    05 Jun 2022
    हापुड़ में एक ब्लायलर फैक्ट्री में ब्लास्ट के कारण करीब 13 मज़दूरों की मौत हो गई, जिसके बाद से लगातार किसान और मज़दूर संघ ग़ैर कानूनी फैक्ट्रियों को बंद कराने के लिए सरकार के खिलाफ प्रदर्शन कर रही…
  • Adhar
    अनिल जैन
    ख़बरों के आगे-पीछे: आधार पर अब खुली सरकार की नींद
    05 Jun 2022
    हर हफ़्ते की तरह इस सप्ताह की जरूरी ख़बरों को लेकर फिर हाज़िर हैं लेखक अनिल जैन
  • डॉ. द्रोण कुमार शर्मा
    तिरछी नज़र: सरकार जी के आठ वर्ष
    05 Jun 2022
    हमारे वर्तमान सरकार जी पिछले आठ वर्षों से हमारे सरकार जी हैं। ऐसा नहीं है कि सरकार जी भविष्य में सिर्फ अपने पहनावे और खान-पान को लेकर ही जाने जाएंगे। वे तो अपने कथनों (quotes) के लिए भी याद किए…
  • न्यूज़क्लिक डेस्क
    इतवार की कविता : एरिन हेंसन की कविता 'नॉट' का तर्जुमा
    05 Jun 2022
    इतवार की कविता में आज पढ़िये ऑस्ट्रेलियाई कवयित्री एरिन हेंसन की कविता 'नॉट' जिसका हिंदी तर्जुमा किया है योगेंद्र दत्त त्यागी ने।
  • राजेंद्र शर्मा
    कटाक्ष: मोदी जी का राज और कश्मीरी पंडित
    04 Jun 2022
    देशभक्तों ने कहां सोचा था कि कश्मीरी पंडित इतने स्वार्थी हो जाएंगे। मोदी जी के डाइरेक्ट राज में भी कश्मीर में असुरक्षा का शोर मचाएंगे।
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License