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भारत
राजनीति
आज़ादी का पहला नायक आदिविद्रोही– तिलका मांझी
ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना के बाद प्रथम प्रतिरोध के रूप में पहाड़िया आदिवासियों का यह उलगुलान राजमहल की पहाड़ियों और संथाल परगना में 1771 से लेकर 1791 तक ब्रिटिश हुकूमत, महाजन, जमींदार, जोतदार और सामंतों के विरुद्ध अनवरत चलता रहा।
जीतेंद्र मीना
13 Jan 2022
Tilka Majhi

अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ भारत की आज़ादी के आन्दोलन में तिलका मांझी को आदिविद्रोही का दर्जा प्राप्त हैं, जिन्होंने ईस्ट इण्डिया कंपनी के बिहार, बंगाल और उड़ीसा में राजस्व वसूली और जमीन पर कब्जे के खिलाफ पहाड़िया आदिवासियों के आन्दोलन को नेतृत्व प्रदान किया। ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना के बाद प्रथम प्रतिरोध के रूप में पहाड़िया आदिवासियों का यह उलगुलान राजमहल की पहाड़ियों और संथाल परगना में 1771 से लेकर 1791 तक ब्रिटिश हुकूमत, महाजन, जमींदार, जोतदार और सामंतों के विरुद्ध अनवरत चलता रहा। लेकिन आदिवासियों की क़ुर्बानियों और संघर्षों को इतिहासकारों ने किताबों से बेदखल किया हुआ हैं। 

18वीं सदी के उत्तरार्ध में जंगल तराई इलाके (संथाल परगना, भागलपुर, मुंगेर, हजारीबाग, राजमहल, खड़गपुर) में पहाड़िया आदिवासी मुख्यत: आखेटक, खाद्य (अनाज) संग्रहक,  झूम खेती एवं जंगल के उत्पादों-लकड़ी, फल-फूल, पत्तों, जड़ी-बूटी पर निर्भर समुदाय थे। जंगल के इस सम्पूर्ण भू-भाग पर उनका कब्जा था और यही आदिवासियों की जीविका के साधन और जीने का उद्देश्य था और मैदानी भागों के जमींदार इन पहाड़िया आदिवासी सरदारों को नियमित नजराना और व्यापारी चुंगी देते थे। बदले में आदिवासी सरदारों द्वारा  सुरक्षा की गारंटी दी जाती थी। 

ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कंपनी ने जमींदारों के साथ मिलकर आदिवासी क्षेत्रों की जमीनों  पर कब्ज़ा कर राजस्व वसूली, भू-बंदोबस्त और शोषण का कार्य शुरू कर अपना मालिकाना हक़ जताना शुरू कर दिया था। कोर्ट ऑफ़ डायरेक्टर्स के आदेश के अनुसार इस क्षेत्र में अगले दस साल के लिए जमींदारी बंदोबस्त लागू कर दिया गया था। झूम खेती और जंगलों को काटकर स्थायी खेती करने के आदेश दिए। भू-बंदोबस्त, दिकु (जमीदार, साहूकार) और नई प्रशासनिक व्यवस्था ने इस क्षेत्र के सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक संतुलन को गड़बड़ा दिया। 1769-70 के अकाल ने इस संकट को अधिक गहरा कर दिया। लिहाजा दोनों के बीच टकराव  बढ़ने लगा था। कंपनी और उसके सहयोगियों ने सैनिक दमन तेज कर दिया और आदिवासी सरदारों को  लालच दिया। 

दूसरी तरफ वारेन हेस्टिंग्ज़ ने 1772 में 800 सिपाहियों की एक शस्त्र सेना का गठन कप्तान रोबर्ट ब्रुक के नेतृत्व में किया। ईस्ट इंडिया कंपनी अधिकारियों ने रोबर्ट ब्रूक के अधिकार क्षेत्र विस्तार करते हुए राजमहल, खड़गपुर और भागलपुर को मिलाकर के एक मिलिट्री कलेक्टरी नवम्बर 1773 में गठित की। ब्रूक के बाद मेजर जेम्स  ब्राउनी ने भी लालच की निति को अपनाया। लेकिन पहाड़िया आदिवासियों एवं उनके छापामार संघर्ष के खिलाफ वो असफल रहे।

नई नीति के तहत कंपनी अधिकारियों ने पहाड़िया सरदारों और गांव वालों को अंग्रेजी कैंपों में बुलाना, उपहार, नगदी, अनाज और सम्मान में पगड़ी पहनाना शुरू किया। साथ ही साथ गैर आदिवासियों अथवा गैर-पहड़िया लोगों को मैदानी भागों में स्थायी रूप से बसने के लिए बाहर से बुलाया गया। कंपनी के सेवानिवृत और विकलांग अथवा पूर्व नौकरशाहों को 'इनवैलिड जागीर' के नाम से ज़मीनों पर मालिकाना हक़ देना शुरू किया ताकि आदिवासी बहुल क्षेत्र की जनसांख्यिकी को तब्दील किया जा सके। पहाड़िया सरदारों के उत्तराधिकारियों को कंपनी ने मान्यता देना और निर्धारित स्थानों पर हाट (साप्ताहिक बाजार) लगाने की अनुमति दी गयी। आदिवासियों से मुचलके (शपथ पत्र) भरवाये गए जिनमें अंग्रेजी हुकूमत के प्रति वफादार रहने का वादा लिया गया लेकिन सफलता नहीं मिली। 

फलस्वरूप कंपनी ने 1779 में आगस्टस क्लीवलैंड (चिलमिल साहेब) को भागलपुर मजिस्ट्रेट और कलेक्टर की जिम्मेदारी के साथ भेजा। क्लीवलैंड ने  लालच  और  भय   के साथ उनकी सैनिक क्षमता और युद्धकला का इस्तेमाल अंग्रेजी साम्राज्य के विस्तार के लिए करते हुए “हिलरेंजर्स” (अनियमित सेना) का गठन किया। जिसे कुछ समय बाद  ‘भागलपुर हिल रेंजर्स” तब्दील कर दिया गया, लेकिन 1857 के बाद इसे भंग कर दिया। इसी तरह 1782 में ‘हिल असेंबली’ और एक नयी प्रशासनिक इकाई "दामिन-ए-कोह" का गठन किया गया।

आदिवासियों के आरक्षित क्षेत्रों में दिकुओं के प्रवेश, राजस्व उगाही, इनवैलिड जागीर की  उपस्थिति ने तिलका मांझी एवं अन्य पहाड़िया आदिवासियों के उलगुलान की प्रष्टभूमि तैयार की। तिलका मांझी ने भागलपुर में बनचरीजोर नामक स्थान पर अंग्रेजों पर हमला करके उलगुलन की शुरुआत की। अंग्रेजी खजाने और  गोदामों को लूट कर आदिवासियों में बांट दिया गया।  

तिलका मांझी का जन्म 11 फरवरी 1750 को राजमहल पहाड़ियों के मध्य बसे सेंगारसी/ सिंगारसी पहाड़ (संथाल परगना) नामक गांव में हुआ था, पिता सुगना मुर्मू गांव के मांझी (मुखिया) थे। संथाल परगना गजेटियर्स में जबरा/जौराह पहाड़ियों का जिक्र ही हिल रेंजर्स के सरदार, कुख्यात डकैत, गुस्सेल मांझी के रूप में जिक्र किया गया हैं जो बाद में तिलका मांझी नाम से विख्यात हुआ। डॉ सुरेश कुमार सिंह ने अपनी पुस्तक ''ट्राइबल सोसाइटी ऑफ़ इंडिया'' में Jaora/Jourah/Jabra/Jaurah पहाड़िया और तिलका मांझी को एक ही व्यक्ति के रूप में स्वीकार किया है। धीरेन्द्रनाथ बास्की ने अपनी बंगाली भाषा में  लिखित अपने ‘संथाल गणसंग्रामर’ इतिहास 1781 -1785 के संथाल विद्रोह और तिलका मुर्मू द्वारा कलेक्टर की हत्या और तिलका का संथाल आदिवासी के रूप में जिक्र किया हैं। राकेश कुमार सिंह ने अपने उपन्यास ''हूल पहाड़िया'' में तिलका मांझी को जबरा पहाड़िया के रूप में चित्रित किया है। उसी तरह महाश्वेता देवी का उपन्यास 'शाल गिरर की पुकार' में तिलका मांझी/ जबरा पहाड़िया/ जौराह पहाड़िया के जीवन और उलगुलान के बारे में लिखा है। 

तिलका मांझी ने जंगल को लुटते हुए और आदिवासियों पर दिकुओं के अत्याचार को देखा था, आदिवासियों की जमीनों पर दिकुओं का कब्जा था। दिकुओं और पहाड़िया आदिवासियों के मध्य अक्सर इसी को लेकर लड़ाइयां होती रहती थी। जमींदार तबका अक्सर अंग्रेजों के साथ मिला हुआ होता था। तिलका मांझी के नेतृत्व में चले इस उलगुलान का मुख्य उद्देश्य आदिवासियों की ज़मीनों पर राजस्व वसूली, आदिवासियों की जमीनों पर गैर आदिवासियों को मालिकाना हक़,  फूट डालो-राज करो की नीति और सैनिक कारवाईयों का विरोध करना तथा दिकुओं  की सत्ता को समाप्त करना था।

‘झारखण्ड इनसाइक्लोपीडिया: हुलगुलानों की प्रतिध्वनी’ में सुधीर पॉल और रणेन्द्र लिखते हैं कि गंगा-ब्राह्मी के तराई वाले क्षेत्र- मुंगेर, भागलपुर और संथाल परगना में कई लड़ाइयां हुई। जिसमें एक तरफ भागलपुर कलेक्टर आगस्टस क्लीवलैंड और सेनापति जनरल सर आयर कूट और अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार किए हुए सरदारों का गठबंधन था, तो वहीं दूसरी तरफ तिलका मांझी उर्फ जबरा/जौराह पहाड़िया। 

तिलका मांझी ने 1780-85  के मध्य ब्रिटिश हुकूमत के ऊपर लगातार हमले किये। इसके लिए आदिवासियों और अन्य लोगों को एकजुट करना शुरू किया। शाल के पेड़ की छाल में गांठ बांध कर गांव-गांव आदिवासियों को एकजुट होने का निमंत्रण भेजा गया।

मारगो दर्रा, तेलिया गढ़ी और कहलगावं में अंग्रेजी खजाने को लूटकर आदिवासियों में बांट दिया। अंग्रेजी हुकूमत, सामंतों, जमींदार, साहूकार, महाजन, दिकुओ पर आदिवासियों के हमले जारी रहे। 1780 में पहाड़िया सरदारों- रमना अहाडी, अमड़ापाड़ा प्रखंड (पाकुड़/ संथाल परगना) के आमगाछी पहाड़ निवासी करिया पुजहर के साथ मिलकर अंग्रेजों से रामगढ़ (हजारीबाग) कैंप छीन लिया।

आदिवासियों के इन हमलों, आवागमन को रोक देने की कार्रवाई के विरोध में अंग्रेजी हुकूमत और उसके सानिध्य प्राप्त जमींदारों ने भागलपुर हिल रेंजर्स के साथ सैनिक दमन तेज कर दिया, जिसमें आदिवासी गांवों को जला देना, हत्या करना, गिरफ्तारी, संपत्ति को नुकसान पहुंचाना जैसी कार्यवाहिया की गई।

13 जनवरी 1784 में तिलका मांझी के नेतृत्व में आदिवासियों ने भागलपुर में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के हिल रेंजर्स के मुख्यालय पर हमला किया। जहर लगे तीरों से तत्कालीन भागलपुर कलेक्टर आगस्टस क्लीवलैंड घायल हो गया। तिलका के हमले के बाद इलाज के लिए इंग्लैंड लौटते वक़्त एटलस इंडिआना नमक जहाज पर कलकत्ता में हुगली नदी के तट पर ही इनकी मौत हो गई और बाद में इन्हें पार्क स्ट्रीट कोलकाता सिमेट्री में दफना दिया गया। 

क्लीवलैंड की मौत के बाद ब्रिटिश सरकार ने अपना दमन चक्र और तेज  कर दिया। तिलका और उसके साथियों को पकड़ने के लिए खोजी ऑपरेशन चलाये जाने लगे। आदिवासी गावों को आग लगा दी गई। आदिवासियों को मौत के घाट उतार दिया गया, लेकिन तिलका किसी तरह बचकर के पहाड़ पर चला गया। कलेक्टर की मौत ने अंग्रेजी हुकूमत को अंदर तक हिला दिया था। यह घटना कंपनी के लिए गहरा सदमा थी। 

1784-1785 में आदिवासियों पर ब्रिटिश फ़ौज ने हमला किया। फूट डालो-राज करो की नीति के तहत अंग्रेजों ने आदिवासियों को लालच देना और भड़काना शुरू कर दिया अंततः किसी ने मुखबिरी की। अंग्रेजी सेनापति जनरल सर आयर कूटने रात के अंधेरे में आदिवासियों के ठिकानों पर जबरदस्त हमला किया। अधिकांश लोग मारे गए। लेकिन तिलका ने भाग कर सुल्तानगंज की पहाड़ियों में शरण ली।

अंग्रेजी फ़ौज ने पूरे पहाड़ की घेराबंदी करके रसद आपूर्ति एवं अन्य दैनिक उपयोग की चीजों पर रोक लगा दी। कई महीनों कि घेराबंदी के बाद आदिवासी लड़ाकों को पहाड़ी ठिकानों से निकलकर बाहर मैदानों में आना पड़ा। जहां दोनों पक्षों के मध्य संघर्ष के बाद अंतत : तिलका मांझी को गिरफ्तार करके घोड़ों से बांधकर घसीटते हुए भागलपुर ले जाया गया। जहां एक चौराहे पर बरगद के पेड़ के नीचे उन्हें 1785 में फांसी पर लटका दिया गया। कहा जाता हैं कि इस समय तिलका-‘हांसी-हांसी, चढवो फांसी’ गीत गुनगुना रहे थे। इस घटना के बाद में हजारों आदिवासियों ने उनकि परंपरा का अनुसरण किया।

तिलका के बाद 

तिलका की मौत के बाद अंग्रेजी हुकूमत और उसके दिकु सहयोगियों ने उलगुलान को स्थायी रूप से समाप्त करने के लिए कई तरह के उपाय किये। लेकिन आदिवासियों ने तिलका की मशाल को जलाए रखा। 1788 में बीरभूम जिले में पहाड़िया आदिवासियों ने ब्रिटिश कचहरी और कोठियों पर,  महाजन, व्यापारी और जमींदारों के ऊपर हमले करना शुरू कर दिया। इसी तरह जनवरी 1789 के पहले सप्ताह में 500 आदिवासियों ने बांकुरा जिले के जमींदार के बाजार और अनाज गोदामों पर हमला किया। जून 1789 में बांकुरा जिले के आलम बाजार पर आदिवासियों ने कब्ज़ा कर लिया। 1789  में विष्णुपुर के राजनगर कस्बे पर कब्ज़ा कर लिया।  धीरे धीरे पूरा वीरभूम जिला आदिवासियों के कब्जे में आ गया। जिसके कारण अंग्रेजों ने वीरभूम और बांकुरा क्षेत्र के लिए अलग अलग कलेक्टर नियुक्त कर दिये गए। 

सांगठनिक कमजोरी, आंतरिक मतभेद और आधुनिक हथियारों के मुक़ाबले परंपरागत हथियारों कि कमियों के कारण 1791 तक पहाड़िया उलगुलान ख़त्म हो गया। लेकिन कुछ समय पश्चात उसी क्षेत्र के आसपासतिलका मांझी की प्रेरणा से भूमिज विद्रोह (1798 मानभूम), चेर (1810 पलामू), मुंडा (1819 -20 ), कोल (1833 ), भूमजी (1834 ), संथाल (1855), मुंडा (1895-1900) इत्यादि के रूप में उलगुलान की मशाल को आदिवासियों ने जलाए रखा।

ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ आदिवासियों का संघर्ष 1947 तक जारी रहा। लेकिन दिकुओं के खिलाफ आज भी जल, जंगल और जमीन को बचाने की लड़ाई आदिवासी समाज लड़ रहा है। तिलका मांझी आज भी पहाड़िया आदिवासियों की कहानियों, स्मृतियों और गीतों में  जिन्दा है। किसी अज्ञात कवि का लिखा हुआ एक लोक गीत आज भी पहाड़िया आदिवासियों के मध्य काफी प्रचलित है-

तुम पर कोड़ों की बरसात हुई, 

तुम घोड़ों से बांधकर घसीटे गए,

फिर भी तुम्हें मारा न जा सका। 

तुम भागलपुर में सरेआम फांसी पर लटका दिए गए,

फिर भी डरते रहे जमींदार और अंग्रेज 

तुम्हारी तिलका (गुस्सैल) आंखों से 

मरकर भी तुम मारे नहीं जा सके

मंगल पांडे नहीं 

तुम आधुनिक भारत के पहले विद्रोही थे। 

आज़ादी के पहले लड़ाके के नाम पर भागलपुर चौराहा, पुलिस अधीक्षक (भागलपुर) का निवास स्थान और 1992 में लालू प्रसाद यादव के नेतृत्व में बिहार सरकार ने भागलपुर विश्वविद्यालय का नाम बदलकर तिलका मांझी भागलपुर विश्वविधालय कर दिया था।

Tilka Majhi
British empire
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