इलाके का गुंडा ही इलाके का नेता ना बन जाए, नियम कानून तोड़ने वाले लोग ही नियम कानून ना बनाने लगें, यह समस्या भारतीय राजनीति की सबसे बड़ी समस्याओं में से एक है।
इसी चिंता का हल निकालने के लिए साल 2020 में सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिया था कि सभी राजनीतिक दल अपने उम्मीदवारों के बारे में लोगों को व्यापक तौर पर बताएं जिन पर आपराधिक मुक़दमे चल रहे हैं. कोर्ट ने निर्देश दिया कि प्रतिष्ठित अखबारों में राजनीतिक दलों द्वारा इन सूचनाओं का प्रकाशन करवाया जाए। साथ में राजनीतिक दल यह भी बताएं कि उन्होंने बेदाग व्यक्ति की जगह राजनीतिक व्यक्ति को उम्मीदवार क्यों बनाया?
बिहार चुनाव के दौरान राजनीतिक दलों ने सुप्रीम कोर्ट के इन निर्देशों को पूरी तरह से नजरअंदाज किया। इसके पीछे कई तरह के जायज और नाजायज कारण थे। जैसे जिन राजनीतिक दलों के पास भाजपा की तरह बेईमानी का अकूत पैसा नहीं है वह कैसे प्रतिष्ठित अखबारों में अपने उम्मीदवारों के बारे में बताएं? इसमें लगने वाला पैसा कहां से आएगा? इसलिए कुछ राजनीतिक दल सुप्रीम कोर्ट के इन निर्देशों को नहीं अपना पाने के लिए मजबूर हुए।
लेकिन फिर भी नाजायज कारण अधिक थे। इसलिए सुप्रीम कोर्ट में फिर से इसी मसले पर दायर याचिका को लेकर सुनवाई हुई। सुप्रीम कोर्ट ने देश के नौ राजनीतिक दलों पर एक लाख से लेकर 5 लाख रुपए तक का फाइन लगाया है।
जस्टिस आर एस नरीमन और जस्टिस बीआर गवई की बेंच ने निर्देश दिया है कि राजनीतिक दलों को अपनी वेबसाइट पर 'आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवार' नाम से कॉलम बनाना होगा। कोर्ट ने चुनाव आयोग को एक ऐसे मोबाइल एप्लीकेशन को बनाने का निर्देश दिया है जिससे नागरिकों को आसानी से किसी भी उम्मीदवार की पृष्ठभूमि का पता चल सके, जिसमें आपराधिक पृष्ठभूमि का ब्यौरा भी शामिल हो। आपराधिक इतिहास बताने के लिए जिन विवरणों को बताने की जरूरत है उन्हें उम्मीदवारों के चयन के 48 घंटे के भीतर वेबसाइट पर दर्ज करना होगा ना कि नामांकन दाखिल करने की पहली तारीख से हफ्ते भर पहले।
यह कोई नई बात नहीं है। चुनाव आयोग की वेबसाइट पर हर उम्मीदवार की पृष्ठभूमि दर्ज होती है। जिसमें आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवार भी शामिल हैं। इसलिए असली सवाल तो यह है कि क्या इस तरह के कदम से राजनीति में अपराधीकरण रुक सकता है?
एक लाइन में समझिए तो यह ऐसे है कि कैंसर की बीमारी को ठीक करने के लिए कैंसर की बीमारी को तो स्वीकारा गया लेकिन दवा हल्की फुल्की बीमारी की दे दी गई।
हम सबको लगता है कि अगर लोग यह जान जाएंगे कि अमुक व्यक्ति का आपराधिक इतिहास है तो लोग उसे वोट नहीं देंगे। लेकिन राजनीति बहुत ही जटिल और उलझाऊ किस्म के समीकरणों के सहारे ऊर्जा लेती रहती है। वह इतनी आसान नहीं कि लोगों को उम्मीदवारों की आपराधिक चरित्र के बारे में पता हो तो उसे वोट ना दें।
हमारे राजनीति में अपराधीकरण को लेकर बनी धारणाओं में दिक्कत कहां है? हम यह मानकर चलते हैं कि अगर राजनीति में अपराधीकरण है तो उसका लेना देना केवल चुनावी राजनीति से है. चुनावी राजनीति का एक बड़ा हिस्सा अपराधी किस्म के कार्यकर्ताओं के बलबूते चल रहा है, इस पर हमारी नजर नहीं जाती है। अगर किसी व्यक्ति के खिलाफ थाने में केस दर्ज हो जाता है तो हम उसे अपराधी मान लेते हैं. आरोपी होने और अपराधी होने के बीच का अंतर हम नहीं समझ पाते हैं।
समाज और संस्कृति विशेषज्ञ चंदन श्रीवास्तव कहते हैं कि राजनीति नाम के कंधे पर सवारी करती है और पसरती है। जिसका नाम जितने लोगों के बीच फैला उसकी कामयाबी की संभावना उतनी ही अधिक विकासशील देशों की लोकतांत्रिक राजनीति में किसी व्यक्ति का अपराधी होना दरअसल प्राथमिक तौर पर नाम कमाने का जरिया होता है। भारत के जर्जर सामाजिक ढांचे के भीतर बदनामी बिल्कुल अलग तरह से काम करती है। किसी व्यक्ति के बारे में हवा उड़े कि उसने हत्या, अपहरण, बलात्कार जैसे जघन्य कर्म किये हैं या ऐसे अपराध के आरोपों में अदालत और जेल के चक्कर लगा रहा है तो लोगों के बीच उसका नाम पहले तो भय के एक प्रतीक-चिन्ह में बदलता है लेकिन फिर तुरंत ही लोगों को ये भी समझ में आ जाता है कि ऐसे कर्म करने के पीछे उस व्यक्ति का कुछ ना कुछ तो ‘विवेक’ रहा ही होगा. फिर लोग अपने से ही उसके पक्ष में तर्क गढ़ने लगते हैं: ‘किसी की हत्या की या अपहरण किया तो क्या बुरा किया, अपनी जाति वाले की तो हत्या नहीं की ना! और, जो अपनी जाति वाले की ही हत्या की है तो वैसा कौन सा बुरा काम कर दिया, जाति के ‘मान-सम्मान’ से दगा करने वाले ‘जयचंदों’ को ऐसी सजा तो एक ना एक दिन मिलनी ही थी।
वे आगे कहते हैं कि ऐसे में जातिगत-धर्मगत पहचानों को पोसते हुए कोई अपराधी बेखटके अपराध-कर्म कर सकता है और समान रुप से अपने समुदाय का दुलरुआ बनकर राजनीति में ‘दूल्हा’ भी बन सकता है क्योंकि पार्टियां महंगे होते जा रहे चुनावों में सिर्फ ये ही नहीं देखतीं कि कौन सा टिकटार्थी कितने पैसे खर्चे कर सकता है, वे ये भी देखती हैं कि किसी टिकटार्थी की लोगों में नाम-पहचान किस हद तक है।
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि राजनीतिक पार्टियों को यह बताना होगा कि वह आपराधिक पृष्ठभूमि वाले लोगों को उम्मीदवार क्यों बना रही हैं? इस सवाल का जवाब देते हुए अधिकतर राजनीतिक पार्टियां यही बताती हैं कि उम्मीदवार के ऊपर गलत और बेबुनियाद आरोप लगाए गए हैं। विपक्षी उम्मीदवारों ने झूठे आरोप में फंसा कर चुनाव हराने के लिए आरोप लगाए हैं। राजनीतिक दलों द्वारा दिए जाने वाली इस दलील को पूरी तरह से खारिज भी नहीं किया जा सकता। हर मामले में तो नहीं लेकिन कुछ मामले में यह साफ-साफ दिखता है कि झूठे आरोप लगाकर उम्मीदवार को फंसाने की कोशिश की जाती है।
जमीन पर लड़ने वाले कार्यकर्ताओं पर तो ढेर सारे झूठे आरोप लगे होते हैं। इसलिए अगर कोई यह कहता है कि ऐसा नियम बना देना चाहिए कि किसी भी व्यक्ति पर आरोप लगते ही वह चुनाव लड़ने का हकदार नहीं होगा तो वह अपनी सतही समझ को ही प्रस्तुत कर रहा होता है। यहीं पर राजनीति में अपराधीकरण की चुनौती का सबसे गहरा समाधान दिखता है। जिसके बारे में राजनीतिक जानकार कहते हैं असली परेशानी है भारत का क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम। यह बहुत अधिक कमजोर है। इस पर भरोसा नहीं पैदा होता। बहुत ज्यादा वक्त लेता है। न्याय की छानबीन और फैसला करने से जुड़ी सारी संस्थाएं जब तक कारगर नहीं होंगी तब तक यह परेशानी बहुत गहरे तौर पर मौजूद रहेगी।
चुनाव में पारदर्शिता पर काम करने वाली ‘एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स के संस्थापक जगदीप छोकर एनडीटीवी को दिए अपने बयान में साफ साफ कहते हैं कि सुप्रीम कोर्ट का यह दिशानिर्देश राजनीति से अपराधीकरण खत्म करने के मोर्चे पर बिल्कुल कारगर नहीं होगा। यह परेशानी जस के तस बनी रहेगी। कानून बनाने वालों के जरिए बहुत गहरे स्तर पर चुनाव सुधार की जरूरत है।
राजनीति में अपराधीकरण की चुनौती से जुड़ी एक और याचिका में सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की बेंच ने सुनवाई करते हुए फैसला दिया कि सांसदों और विधायकों पर लगे आरोप को बिना उच्च न्यायालय की अनुमति के वापस न लिया जाए।
असल में यह हो रहा था कि जैसे ही सरकार बदलती थी वैसे ही वह अपने दल के नेताओं से जुड़े आरोपों को खारिज कर देती थी। जैसे हाल-फिलहाल में उत्तर प्रदेश राज्य कथित तौर पर मुजफ्फरनगर दंगों से संबंधित मामलों में विधायक संगीत सोम, सुरेश राणा, कपिल देव, साध्वी प्राची के खिलाफ मुकदमा वापस लेने की मांग कर रहा है। इसी प्रवृत्ति को रोकने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला सुनाया है। इस फैसले का तकरीबन सभी राजनीतिक जानकार और कानूनी विशेषज्ञों ने स्वागत किया है। सब का मानना है कि सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से कुछ ना कुछ अंकुश तो जरूर लगेगा। बस दिक्कत यही है कि अगर सरकार ऐसी है जो घृणा, नफरत फैलाने और दंगे कराने को अपराध नहीं मानती है,वह ऐसे नियमों का कहां तक पालन करेगी।
चलते-चलते आपको इतना बता दें कि साल 2004 में संसद के 24 फ़ीसदी सदस्यों पर आपराधिक मामले दर्ज थे। 2009 की संसद में आपराधिक मामले दर्ज सांसदों की संख्या बढ़कर 30 फ़ीसदी हो गई। साल 2014 में बढ़कर यह संख्या 34 फ़ीसदी हो गई और साल 2019 में यह संख्या बढ़कर 43 फ़ीसदी हो गई। कहने का मतलब यह है कि समय के साथ आपराधिक मामले वाले सांसदों की संख्या कम होनी चाहिए थी लेकिन यह बढ़ती चली गई।