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तिब्बत, शिनजियांग पर जासूसी करने वाली छठी आंख
भारत और अमेरिका ने आज यानी बुधवार को नई दिल्ली में अपने विदेश और रक्षा मंत्रियों के बीच एक ख़ुफिया-साझाकरण समझौते पर हस्ताक्षर कर दिये हैं।
एम. के. भद्रकुमार
28 Oct 2020
विवादित भारत-चीन सीमा,लद्दाख पर स्थित सड़क
विवादित भारत-चीन सीमा,लद्दाख पर स्थित सड़क (फ़ाइल फोटो)

मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक़, भारत और अमेरिका 27 अक्टूबर को नई दिल्ली में अपने विदेश और रक्षा मंत्रियों के बीच ‘2+2’ सुरक्षा संवाद के दौरान एक ख़ुफिया-साझाकरण समझौते पर हस्ताक्षर करने के लिए तैयार हो गये (आज, बुधवार को इस पर हस्ताक्षर कर दिये गये हैं।) इस बेसिक एक्सचेंज एंड कोऑपरेशन एग्रीमेंट (BECA) से भारत को अमेरिका के उन भू-स्थानिक नक्शे और उपग्रह चित्रों तक अपनी पहुंच बनाये देने की उम्मीद है, जो हथियारों और ड्रोन की सटीक स्थिति को सुनश्चितता को बढ़ाने में मदद करेगा।

इसे भारतीय सशस्त्र बलों के लिए एक 'ताक़त बढ़ाने वाले घटक' के तौर पर देखा जा रहा है। सब कुछ को इतने गोपनीय तरीक़े से अंजाम दिया गया है कि बड़े पैमाने पर जनता को इसका कोई सुराग़ तक नहीं लगा पाया है कि आख़िर हो क्या रहा है। कुछ सैन्य विश्लेषकों ने आगाह किया है कि यह नया नेटवर्क भारतीय सैन्य प्रतिष्ठान में रक्षा योजना और उसके संचालन के बेहद संवेदनशील तंत्रिका केंद्रों तक अमेरिका की पहुंच को मुमकिन बना देगा।

सवाल है कि हमारे रूसी दोस्त इन सब बातों को किस तरह से देखते हैं। अगर अमेरिकियों का कोई ठिकाना हमारे सिस्टम के अंदर तक हो जाता है, तो क्या वे भारत को उन्नत सैन्य तकनीक हस्तांतरित करे पायेंगे? अमेरिका का मक़सद दो सशस्त्र बलों के बीच उस "अंतर-सक्रियता" को गहरा करना है, जो यूएस-भारतीय सैन्य गठबंधन को एक दूसरे के साथ जोड़ती है।

बेशक, ये प्रक्रियायें भारत-चीन सीमा के बीच के गतिरोध को समय से पहले दूर करती हुई दिखती हैं। लेकिन,यह गतिरोध अमेरिका-भारतीय सैन्य गठबंधन को आगे बढ़ाने का एक बहाना देता है। भारतीय विश्लेषक इस बीईसीए को रक्षा सहयोग के मामले के तौर पर देखते हैं। लेकिन, दौरे पर गये अमेरिकी रक्षा मंत्री, मार्क एस्पर ने पिछले हफ़्ते मशहूर फ़ाइव आइज़ गठबंधन के साथ-साथ एक समानांतर चल रहे प्रयासों की तरफ़ भी ध्यान खींचा था।

एस्पर ने कहा था कि फ़ाइव आइज़ गठबंधन "हिंद-प्रशांत की चुनौतियों" को भी संबोधित करने जा रहा है और इसकी महत्वपूर्ण बात यह है कि "हम एक साथ कैसे सहयोग कर सकते हैं?" उन्होंने आगे कहा, "ऐसे में आप चल रहे सहयोग को बहुत ज़्यादा नज़दीकी से देखते हैं। और जब हम नई दिल्ली के दौरे पर होंगे,तब वहां अगले हफ़्ते होने वाली हमारी बैठकों में भी दिखायी देगा।” इसे और स्पष्ट करने की ज़रूरत है।

ऐतिहासिक रूप से फ़ाइव आइज़ गठबंधन द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान फ़र्ज़ी जासूसी व्यवस्था से सामने आया था और यह अमेरिका, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा और न्यूजीलैंड के बीच सिग्नल इंटेलिजेंस (SIGINT) को साझा करने की सुविधा मुहैया कराता है। इस फ़ाइव आइज़ का मक़सद बिना किसी बाधा के इकट्ठा किये गये सभी सिग्नल इंटेलिजेंस (SIGINT) को लगातार साझा करना है,साथ ही सिग्नल इंटेलिजेंस (SIGINT) संचालन से जुड़े विधियों और तकनीकों को भी साझा करना है।इसके तहत "लगातार, मौजूदा और बिना अनुरोध के" दोनों तरह की ख़ुफ़िया सूचनायें साझा की जाती हैं,चाहे वे "कच्ची" ख़ुफिया सूचनायें हों या "पक्की सूचनायें हों" (अर्थात, ख़ुफ़िया सूचनाओं पर आधारित विश्लेषण या व्याख्या)।

सोवियत प्रभाव का मुक़ाबला करना ही इस फ़ाइव आइज़ का मूल घोषणापत्र था, लेकिन शीत युद्ध के ख़त्म होने के साथ ही इसका ध्यान चीन के उभार पर केंद्रित हो गया। 2018 की शुरुआत के बाद से इस फ़ाइव आइज़ ने अन्य समान विचारधारा वाले देशों के साथ चीन के ख़िलाफ़ मोर्चे को व्यापक बनाने के लिहाज़ से गोपनीय जानकारी का आदान-प्रदान करना शुरू कर दिया। यह बढ़ता हुआ सहयोग चीन और रूस से जुड़े विशिष्ट मुद्दों पर फ़ाइव आईज़ ग्रुप के अनौपचारिक विस्तार को बढ़ाता गया।

इस साल की शुरुआत में ब्रिटिश प्रेस ऐसी रिपोर्टों से भरा हुआ था कि चीन के साथ प्रतिस्पर्धा में बढ़त हासिल करने के लिए जापान को शामिल करके राजनीतिक और आर्थिक गठबंधन बनाने को लेकर इस फ़ाइव आइज़ का विस्तार किया जा सकता है। अनिवार्य रूप से ख़ास चर्चाओं के तौर पर शुरू हुई उस चर्चा का विस्तार अब चीन को लेकर ज़्यादा विस्तृत सोच-विचार तक हो गया है।

इस महीने की शुरुआत के सप्ताहांत में फ़ाइव आइज़ के सदस्यों ने कथित तौर पर जापान और भारत के प्रतिनिधियों के साथ बैठक की। फ़ाइव आइज़ के लिहाज़ से भारत पर उसकी नज़र के कई वजह हैं। भारत के पास असरदार ख़ुफ़िया जानकारी वाले नेटवर्क हैं। भारत विशिष्ट रूप से तिब्बत और शिनजियांग की सीमा पर स्थित है।

भारत का तिब्बत के घटनाक्रम की निगरानी करने का एक लंबा इतिहास रहा है। चीन के साथ हालिया सीमा संघर्ष ने पारंपरिक तिब्बती लड़ाकों के उस छद्म घटकों पर से पर्दा उठा दिया है, जिन्हें भारत में प्रशिक्षित किया गया है। यह सब बातों की अनदेखी फ़ाइव आईज़ गठबंधन नहीं कर सकता है। इसके अलावा, अगर नेपाल को भी सहयोग के लिए "राज़ी" किया जा सकता है, तो विवादित 4000 किलोमीटर की भारत-चीन सीमा के साथ चीन के "नाज़ुक इलाक़े" का एक बहुत लंबा विस्तार क्षेत्र फ़ाइव आइज़ के लिए शिकार स्थल बन सकता है।

दरअसल, इस विदेश नीति के निहितार्थ बहुत गहरे हैं। अमेरिका अपने इस चीन विरोधी पश्चिमी गठबंधन के साथ भारत को लाने के लिए अप्रत्याशित रूप से बेताब है। अमेरिकी चुनाव से ठीक एक सप्ताह पहले ‘2+2' सुरक्षा संवाद की तारीख़ तय करने की हड़बड़ी एकदम साफ़-साफ़ दिखती है।

दुर्भाग्य से भारतीय नीति निर्धारक इस अमेरिकी तैयारी को लेकर भी तैयार दिखते हैं, जबकि अंतर्राष्ट्रीय प्रणाली शीत युद्ध के बाद का यह एकध्रुवीय विश्व,दूसरे द्विध्रुवीय विश्व के संक्रमण काल में है। हालांकि, सही मायने में चीन के उदय से एक लगातार बदल रहे बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था का उभार पैदा हो रहा है, क्योंकि कुछ पूर्व अमेरिकी सहयोगियों सहित कई देशों ने अमेरिका और चीन के बीच प्रतिद्वंद्विता में पक्ष लेने से इनकार करना शुरू कर दिया है।

ऐसे देशों में शामिल हैं- तुर्की, इंडोनेशिया, फ़िलीपींस, दक्षिण अफ़्रीका, जर्मनी, मैक्सिको- इन देशों को अलग से अपने राष्ट्रीय हितों की तलाश करना पसंद है,ये देश अपने राष्ट्रीय स्वायत्तता, ख़ासकर आर्थिक आज़ादी को अधिकतम रखना चाहते हैं। ऐसे में साफ़ है कि सैन्य प्रभाव या क्षेत्रीय आर्थिक समूह बनाये जाने के किसी भी तरह के प्रयास ऐसे अंतरराष्ट्रीय स्थिति में स्थायी नतीजे नहीं दे पायेंगे।

जैसा कि साफ़ है कि चीन की अर्थव्यवस्था वास्तविक रूप से बढ़ रही है और अपने पड़ोसियों को आर्थिक अवसर प्रदान कर रही है, यहां तक कि अमेरिका के दो पूर्वी एशियाई संरक्षित देश भी इस तरह की कठिन परिस्थितियों का सामना कर रहे हैं। जापान का शीर्ष व्यापार भागीदार आज अमेरिका (निर्यात का 19.9 प्रतिशत) है, लेकिन इसका दूसरा शीर्ष व्यापारिक साझेदार चीन (19.1 प्रतिशत) है। दक्षिण कोरिया का अमेरिका (13.6 प्रतिशत निर्यात) के साथ जितना कोराबार है, उससे दोगुना कारोबार चीन (निर्यात का 25.1 प्रतिशत) के साथ है।

यह प्रवृत्ति ज़्यादा सुनी-सुनायी वाली हो सकती है। मगर, सवाल है कि अमेरिका के इन पूर्वी एशियाई सहयोगी देशों को चीन के साथ अपने व्यापार और निवेश को ख़त्म करने के लिए क्यों सहमत होना चाहिए? आख़िर,उस देश के आर्थिक अलगाव के बिना चीन की सैन्य दबाव की रणनीति कैसे सफल हो सकती है ?

साफ़ तौर पर अमेरिका के साथ चलने के जोखिम भरे जुआ खेलने के बजाय, भारत के पास "बिना किसी के साथ होने" की नीति अपनाकर अपनी विकास की ज़रूरतों को पूरा करने वाले अंतर्राष्ट्रीय परिवेश में बेहतर बदलाव लाने का एक वैकल्पिक विकल्प है।

भारतीय रणनीतिक योजना इस बात को बेपरवाही से नज़रअंदाज़ कर देती है कि जब भारत और अमेरिका के बीच अपनी-अपनी कंपनियों के लिए बाज़ार, कच्चे माल और अनुबंधों के लिए अवसरवादी प्रतिस्पर्धायें शुरू होंगी, तो भविष्य में अमेरिका-भारतीय रिश्तों में विरोधाभास पैदा हो सकता है।

परामर्श देने वाली कंपनी,पीडब्ल्यूसी के मुताबिक़, 2050 तक,यानी अब से महज़ तीस साल के भीतर (चीन के बाद) भारत दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाला देश हो सकता है,अमेरिका, इंडोनेशिया, ब्राजील, रूस, मैक्सिको और जापान का क्रम इसके बाद होगा। आज अमेरिका और मैक्सिको के बीच की अर्थव्यवस्थाओं के बीच जितना फ़ासला है,उसकी तुलना में चीन और जापान की अर्थव्यवस्थाओं के बीच का फ़ासला कहीं ज़्यादा हो सकता है !

एक कल्पनीय भविष्य में दुनिया के सबसे ज़्यादा आबादी वाले देश के तौर पर चीन को पीछे छोड़ते हुए भारत दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था हो सकता है। अब,ऐसी स्थिति में सोचा जा सकता है कि एक या दो पीढ़ी के बाद 'हिंद-प्रशांत' के बारे में भारत का नज़रिया क्या होगा ?

जिस तरह चीन आज अमेरिका को पूर्वी एशिया से बाहर निकल जाने की उम्मीद करता है, उसी तरह भारत के राष्ट्रवादियों के भी सेशेल्स में उभरते हुए द्वीप से डिएगो गार्सिया पर नज़र रखते हुए हिंद महासागर में अपनी "नाइन-डैश लाइन" हो सकती है। अपने मौजूदा मतभेदों को अलग रखते हुए अमेरिका और चीन का हिंद महासागर में "नौवहन की स्वतंत्रता" के साझा हित भी हो सकते हैं।

आधुनिक इतिहास से भी सबक लिया जा सकता है। द्वितीय विश्व युद्ध में अमेरिका ने जर्मनी और जापान को हराने के लिए यूएसएसआर के साथ गठबंधन किया था और उसके बाद शीत युद्ध के दौर में सोवियत संघ को क़ाबू में रखने के लिए अमेरिका ने जर्मनी और जापान के साथ हाथ मिला लिये थे। इसी तरह, शीत युद्ध के दौरान ही बाद के काल में अमेरिका ने सोवियत संघ के ख़िलाफ़ चीन के साथ गठबंधन कर लिया था, लेकिन जैसे ही शीत युद्ध ख़त्म हुआ, तब उसके बाद अमेरिका ने बढ़ते हुए चीन और पुनरुत्थानवादी रूस के ख़िलाफ़ दोहरी नियंत्रण रणनीति बनायी।

अफ़सोस की बात है कि भारत में सामरिक संस्कृति का अभाव है। भारत की सामरिक योजना अब भी शीत युद्ध के मॉडल पर ही आधारित है, जबकि भारत को जिस दौर की तैयारी करनी चाहिए, वह तंग शीत-युद्ध के गठबंधनों वाली द्विध्रुवीय दुनिया का दौर नहीं है, बल्कि ऐसी बहुध्रुवीय व्यवस्था का दौर है,जहां चीन का उदय हो रहा है और उसी अनुपात में अमेरिकी आधिपत्य घटता जा रहा है। यह दौर ऐसी विश्व-व्यवस्था को प्रेरित कर रहा है, जिसमें शक्ति का फैलाव हो रहा है, और ज़्यादा से ज़्यादा देश अमेरिका-चीन प्रतिद्वंद्विता में किसी भी देश का पक्ष लेने से बचना चाहते हैं।

20 अक्टूबर को अटलांटिक काउंसिल में एस्पर की बात से जो बात सामने आती है, वह यह है कि एकतरफ़ा अमेरिकी सैन्य सुरक्षा और एक साझा अर्थव्यवस्था के आधार पर अमेरिकी युद्ध की रणनीति अभी भी मौलिक रूप से शीत युद्ध के मॉडल पर ही आधारित है। लेकिन, मुश्किल यही है कि शीत युद्ध के दौर के भू-राजनीतिक परिदृश्य को फिर से नहीं पैदा किया जा सकता है। सहयोगियों का गहरा एकीकृत कोर ब्लॉक की पुरानी व्यवस्था ग़ायब हो रही है।

इसे समझ पाने में नाकामी की क़ीमत भारत के लिए बहुत गंभीर हो सकती है। आगे का आने वाला दौर विस्फ़ोटक, अस्थिर और खंडित होने वाला है और इसे छोटी शक्तियों और बड़ी शक्तियों द्वारा निर्मित और प्रबंधित किये जाने वाले प्रभावों और व्यापारिक समूहों के क्षेत्रों के ज़रिये संचालित किये जाने की ज़रूरत है। चीनी हमले और कब्ज़े वाले एक बड़े पैमाने के काल्पनिक ख़तरे से अमेरिकी सुरक्षा पाने की मानसिक विकृति को साफ़ तौर पर नकारे जाने की ज़रूरत है।

(इस लेख का पहला भाग अंग्रेज़ी में Emerging Contours of the US-Indian Military Alliance शीर्षक से 24 अक्टूबर और हिंदी में अमेरिकी-भारतीय सैन्य गठबंधन की उभरती रूपरेखा शीर्षक से 26 अक्टूबर, 2020 को प्रकाशित हुआ था।)

अंग्रेज़ी में प्रकाशित इस मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

A Sixth Eye to Spy on Tibet, Xinjiang

United States
Basic Exchange and Cooperation Agreement
Indian Military
India-China Border
US-Indian military
Five Eyes alliance

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