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बिजली क्षेत्र में सुधार का दिवालियापन
प्रबीर पुरुकायास्थ
14 Sep 2015

दिल्ली में सी.ए.जी. के मसौदे के अनुसार बिजली वितरण में शामिल कंपनियों ने उपभोक्ताओं से 8000 करोड़ रूपु लूट लिए हैं, इसका हश्र भी उड़ीसा बिजली नियमन आयोग के आदेश के जैसा ही होगा जिसके तहत उड़ीसा में अनिल अम्बानी की तीन कंपनियों के लाइसेंस रद्द कर दिए गए थे. ओ.ई.आर.सी. ने हर मामले पर विफल और लगातार इसके आदेशों का उलंघन करने के लिए रिलायंस की कंपनियों के सभी लाइसेंस मार्च 2015 में रद्द कर दिए थे. इस के साथ देश में बिजली के क्षेत्र का निजीकरण कर जो सुधार लाना चाहते थे उसका कुदरती चक्र पूरा हो गया है. बिजली वितरण के दो उदहारण हमारे सामने हैं और दोनों ही (उड़ीसा व दिल्ली) पूरी तरह विफल रहे हैं. अब केवल इतना बाकी रह गया है कि कम्पनियाँ औपचारिक रूप से अपना बोरिया बिस्तर बांधे और इस महकमे को सार्वजनिक क्षेत्र के हवाले करें. उड़ीसा में इसकी शुरुवात पहले से ही हो चुकी है.

विश्व बैंक ने 90 के दशक में बिजली की पैदावार और उसके वितरण का निजीकरण शुरू किया यह योजना उसके बड़े एजेंडे जिसमें सार्वजनिक उपकर्मों का निजीकरण शामिल था को शुरू किया. इसका सबसे “बड़ा” उदहारण विश्व बैंक ने इंग्लॅण्ड की मार्गरेट थेचर का दिया जो इंग्लॅण्ड में सार्वजनिक सेवाओं जैसे टेलिकॉम, बिजली और रेलवे का निजीकरण करना चाहती थी ताकि इन क्षेत्रों में से ट्रेड यूनियनों के प्रभुत्व को ख़त्म किया जा सके. विश्व बैंक ने जो किया उसकी सार्वजनिक तौर पर चर्चा नहीं होती है, लेकिन यह कहा जाता है कि थेचर के “सुधार” कोई पहले बिजली सुधार नहीं थे. यह “उपाधि” बदनाम पिनोशे निजाम से सम्बंधित है. जिसने इन सुधारों को पिनोशे द्वारा चिली पर खुनी कब्ज़े के बाद बिजली क्षेत्र में पूर्णतया निजीकरण को लागू किया था.

बिजली क्षेत्र के निजीकरण की मुख्य समस्या यह है कि यह एक जरूरत वाला क्षेत्र हैं और यह एकाधिकार वाला क्षेत्र भी है. एकाधिकार सुपर लाभ कमाने के लिए लगातार कीमते बढाने पर जोर देता है. लोग अक्सर ऐसे क्षेत्र को निजी हाथो में देने से कतराते हैं क्यंकि उनका एक ही काम होता है कि वे जनता की जेब से कितना मुनाफा बटोर सकते हैं. इसलिए विश्व बैंक और उसके विचारकों के लिए यह समझाना एक कठिन कार्य था कि इस क्षेत्र में यह नहीं होगा.

विश्व बैंक और उनके विचारकों ने इस सम्बन्ध में दो उत्तर दिए. पहला उन्होंने बताया की बिजली की पैदावार, ट्रांसमिशन और वितरण को अलग करना संभव है – यानी के जिसे सर्वत्र एकीकृत उपयोगिताओं के रूप में माना जाता था को अलग-अलग करना. दूसरा उत्तर में उन्होंने विश्वास दिलाया कि बिजली नियामकों के द्वारा बाज़ार का सृजन किया जा सकता है और एकाधिकार को तोड़ा जा सकता है.

तथाकथित सुधारों कैसे धर्मशास्त्र में बदल गए आइये देखे. उनके विचारों में राज्य जो ढांचागत सेवा मुहैया करा रहा है वह वह काफी कम है. जरूरत है कि हम एक निजी क्षेत्र को इस क्षेत्र में लाये और नियामक के जरिए एक प्रतियोगिता पैदा करें और तब बाज़ार के “खुदा” यह सुनिश्चित कर देंगे की सब कुछ सही सलामत है. अब तक हमने जो देखा है, निश्चित तौर पर सब सही है, लेकिन केवल उन लोगों के लिए जिन्हें बिजली क्षेत्र के विभिन्न हिस्सों को “दान’ दे दिया गया है.

बिजली क्षेत्र को निजी क्षेत्र में लाने की शुरुवात कांग्रेस ने सबसे पहले 90 के दशक में की थी. नरसिम्हाराव की सरकार जिसमें मनमोहन सिंह वित्त मंत्री थे, ने एक नीति की घोषणा की जिसके तहत बिजली पैदा करने के लिए निजी कंपनियों को विभिन्न लालचों के साथ न्यौता दिया. इन लालचों में सस्ता कोयला प्रदान करवाना तथा गारंटी शुदा बढ़ी हुए दामों पर बिजली खरीदना शामिल था. एनरॉन दाभोल असफलता इसी का नतीजा था कि न केवल उसने महाराष्ट्र राज्य बिजली बोर्ड को तबाह कर दिया बल्कि महाराष्ट्र राज्य को भी दिवालियापन की तरफ धकेल दिया. महाराष्ट्र के लिए अच्छा रहा है कि एनरोन अमरिका में उस वक्त तबाह हो गया जब यह खुलासा हुआ कि वह कई अन्य कंपनियों के जरिए अमरिका में बड़ी पोंजी योजनायें चला रहा था, और उनके जरिए बाज़ार में बिजली की कीमते तय करवा रहा था.

एनरोन ने न केवल प्रारंभिक निजी बिजली परियोजनाओं की ह्त्या की जोकि उसी की अर्थव्यवस्था पर आधारित थी बल्कि उसने अमरिका में उभरती बिजली के व्यापार को भी ध्वस्त कर दिया जिसने कैलिफ़ोर्निया को परीक्षा के धरातल पर लाकर खडा कर दिया.

ऐसा नहीं है कि हमने महारष्ट्र ओर कैलिफ़ोर्निया में एनरोंन द्वारा की गयी धांधली से सीख हासिल की. विश्व बैंक के विचारक, जो भारत में तब नीतिगत फैंसले लेने वालों की ज़मात में शामिल हो चुके थे, पहले नरसिम्हाराव सरकार और बाद में वाजपेयी सरकार में, ने लगातार देश के सार्वजनिक बिजली क्षेत्र को नेस्तानाबूद करने कोशिश जारी रखी, और यह दावा करते रहे कि सरकार द्वारा बिजली क्षेत्र को चलाने से एक तो घाटा हो रहा है और दुसरे यह काफी अकुशल है. बिजली कानून के तहत राज्य बिजली बोर्ड को तीन हिस्सों यानी असंख्य कंपनियों में बाँट दिया – जिसमे बिजली की पैदावार, ट्रांसमिशन और वितरण शामिल था- इस नीति को एन.डी.ए. ने बढ़ाया और कांग्रेस ने पूरा समर्थन दिया. 2003 में केवल वामपंथ ने इसका विरोध किया.

नब्बे के दशक में ही बिजली क्षेत्र को बड़े स्तर पर फण्ड मुहैया कराने से मना कर दिया गया. केंद्र ने राज्यों को दी जा रही सहायता में कटौती कर ली. भारत जबकि हर पांच वर्षीय योजना में 40 प्रतिशत की बढ़ोतरी कर रहा था वह घटकर 8वें, 9वें और 10वीं योजना तक आते-आते मात्र 20 प्रतिशत रह गया. इस क्षेत्र के लिए बजटीय आवंटन में भयानक कटौती की गयी, ज्यादातर निवेश सर्वाजनिक उद्योग से उधार लेकर किया गया. जैसे-जैसे राज्य बिजली बोर्डों का घाटा तेज़ी से बढ़ता गया वैसे ही बिजली के दामों में भारी बढ़ोतरी होती गयी.

बिजली कानून ने यह संभव बनाया कि निजी कम्पनियां उत्पादन स्टेशनों को स्थापित करें और वे फिर वितरण कंपनियों को बिजली की सप्लाई दें. यूपीए सरकार जिसने एनडीए से कमान संभाली थी ने भी अन्य प्रलोभान इन निजी कंपनियों को दिए. मनमोहन सिंह जो खुद कोयला मंत्रालय संभाल रहे थे ने निजी बिजली पैदा करने वालों को कोयला बहुत ही सस्ती कीमतों पर इस वायदे के साथ उपलब्ध करवाया कि वे बिजली सस्ती दरों पर उपलब्ध करवाएंगे. जैसा कि हमने कालगेट पर सी.ए.जी. रपट में पाया.....इन कंपनियों ने भी वही जो २जी स्पेक्ट्रम पाने के लिए टेलिकॉम कंपनियों ने किया था; या तो उन्होंने अपनी लाइसेंस ऊँचे दामों पर बेच दिये या फिर उन्हें सरकार से बिजली बनाने के सस्ते दामों पर उपलब्ध कोयले को ऊँचे दामों पर बाज़ार में बेच दिया और अपने लिए सुपर लाभ कमा लिया.

दूसरा इनाम इन कंपनियों को सस्ते पैसा उपलब्ध कराने के रूप में दिया गाया – उस वक्त के वित्त मंत्री पी.चिदंबरम के द्वारा इन कंपनियों को राष्ट्रीयकृत बैंकों से प्राथमिक क्षेत्र के नाम पर पैसा मुहैया करवाया गया. जैसा कि हमने एनरोंन के मामले में देखा कि निजी कंपनिया मुख्यता नकली पूँजी लेकर आती हैं. ये कर्जा लेती हैं, यंत्र उपलब्ध करवाने वाले या निर्माण में जुटी कंपनियों को ज्यादा पैसा अदा किया जाता है और इस पैसे को फिर अन्य साधनों का इस्तेमाल कर इस पैसे को अपने हिस्से के तौर पर वापस कंपनी में लाया जाता है. निजी निवेश के नाम पर जो आता है केवल वही पैसा आता है जिसे यह ज्यादा अदायगी के जरिए गलत चेनलों से अपने खातों में ले आते हैं. इसलिए, निजी खिलाड़ी अपनी कम्पनी के संकट के बारे में कभी भी कद्र नहीं करते हैं. क्योंकि वे अपना पैसा पहले ही बाहर कर चुके होते हैं. आखिर में जिन पर सबसे बड़ी मार पड़ती है वे देश के सार्वाजनिक बैंक होते हैं जो इनके चलते असहनीय घाटा खाते हैं.

आज निजी कंपनियों को बैंकों को काफी पैसा देना है. इंडियन एक्सप्रेस ने 2012 (अक्तूबर, 25) की एक खबर में बताया कि “ एक अंदाज़े के मुताबिक़ निजी खिलाड़ियों पर 36 थर्मल बिजली प्रोजेक्ट में करीब 2 लाख 9 हज़ार करोड़ रुपए का क़र्ज़ है और जो अब संभव मंदी का शिकार बने हुए हैं.” यहाँ संभव मंदी का अर्थ क़र्ज़ के अनुमान से है जिसे संभवत बुरा क़र्ज़ भी कहा जाता है या फिर बैंकिंग क्षेत्र में इसे – नॉन परफोर्मिंग एसेट कहा जाता है. वर्ष 2015 में यह आंकड़ा ओर ज्यादा बढ़ गया है.

ये आखिर कौन सी कम्पनियाँ हैं? ये वही कम्पनियाँ हैं जिनके “कप्तानों” से मोदी हाल में मिले ताकि भारत को वैश्विक खिलाड़ी बनाया जा सके. वे अम्बानी हैं, टाटा हैं और अदानी हैं और उन्ही के अन्य सगे सम्बन्धी हैं. ये वही लोग हैं जिन्होंने मनमोहन सिंह सरकार के काल में कोलगेट से काफी मुनाफ़ा बटोरा है, और अब ये लोग मोदी के चहेते हैं. इंडियन एक्सप्रेस उनकी पहचान यहाँ करता है “जो परियोजनाएं संभावित मंदी झेल रही हैं उसमें अदानी की (चार परियोजनाएं शामिल हैं जिनका क़र्ज़ करीब 24,100 करोड़ रुपए) लेंको की 5 परियोजनाओं 22,100 करोड़ का क़र्ज़, रिलायंस एडीएजी की 3 परियोजनाओं पर 32, 600 करोड़ का क़र्ज़, टाटा पॉवर की एक परियोजना पर 14,400 करोड़ का क़र्ज़, इंडियाबुल्स पर 4 परियोजना पर 21,200 करोड़ का क़र्ज़, और एस्सार की 7 परियोजनाओं पर 21,900 करोड़ रुपए का क़र्ज़ जारी है. इस सूचि में हमें आज सेसा स्टरलाइट (या वेदान्ता) और जिंदल, जी.एम्.आर. तथा हिंदुजा को भी जोड़ना चाहिए जिन्होंने बैंकों से काफी बड़ी मात्रा में धन लिया है.

निजी कंपनियों द्वारा बिजली पैदा करने से भी कठिन रास्ता बिजली वितरण में सुधार का लाना था. इसके कुछ पहले से ही विदित कारण मौजूद हैं. वितरण एक बड़े हिस्से में फैला क्षेत्र है, और इसमें आपको उपभोक्ता से सीधे तौर पर डील करना होता है, और बिजली को ग्रामीण क्षेत्र में भी वितरण करना होता है. दिल्ली और उड़ीसा को वितरण सुधार के लिए चुनने का मुख्य कारण था कि दोनों ही राज्यों में कृषि का दबाव कम है. दिल्ली में तो कृषि बहुत ही कम है, और उड़ीसा अभी तक ढंग से ग्रामीण उड़ीसा में बिजली नहीं पहुंचा पाया है.

वर्ष 1991 में चक्रवात आने के बाद से ही वितरण सुधार औंधे मुहं गिर पड़े, जब ए.इ.एस. जोकि अमरिका की एक बहुराष्ट्रीय निगम है, ने बिजली को चक्रवात प्रभावित क्षेत्र में स्थापित करने से साफ़ मना कर दिया. इसने सफलतापूर्वक चार बिजली वितरण कंपनियों से एक को अपने में मिला लिया और अन्य तीन जिन्हें अनिल अम्बानी रिलायंस ने ले लिए था ने अगले 15 सालों तक अपना वितरण कार्य जारी रखा – 2015 तक जब तक की ओ.इ.आर.सी. के धेर्य नहीं टूट गया. यह अब सामने आ रहा है कि अनिल अम्बानी रिलायंस वितरण व्यापार को छोड़ रहा है, न कि बिजली क्षेत्र.

यह केन्द्रीय प्रश्न खडा करता है कि क्या निजीकरण का मार्ग बंद होने के रास्ते पर हैं? नहीं, अगर मोदी सरकार की चलती है तो यह रास्ता अभी बंद नहीं हुआ है. पियूष गोयल कह रहे कि बिजली क्षेत्र की बीमारियों की दवा “ओपन एक्सेस” में है. यह ओपन एक्सेस हर उपभोक्ता को कहीं भी और किसी भी बिजली निर्माता से बिजली खरीद की छूट देता है. निश्चित तौर पर यह तथाकथित ओपन एक्सेस एक झूठ है मिथ्या है. बिजली बाज़ार के नियमों को गौर से नहीं देखता है. बिजली तो भौतिक विज्ञान के नियम पर चलती है. टाटा और रिलायंस की बिजली सप्लाई को घरों तक पहुंचाने के लिए फ्लिप्कार्ट नहीं है. ओपन एक्सेस के मीटर महंगे मीटर हैं, इसका तब पता चलेगा जब आप इसके तहत बिजली का इस्तेमाल करेंगे और बिल भुगतान अपने तथाकथित खरीदार से तुलना करेंगे. यह सब विशाल लेखा प्रणाली के आधार पर होगा, जो कि इसी लेखा प्रणाली के तहत आवंटन करेगा, और जिसने आपको बिजली सप्लाई की है और उस अकाउंट को कैसे तय करना है यह भी उसमें होगा. यह व्यवस्था हर कदम को ध्यान में रखेगी या उसकी गनणा करेगी – जैसे आप कितनी बिजली खर्च करते हैं, वितरण कंपनी ने अपने तारों के जरिए कितनी बिजली सप्लाई की है, ट्रांसमिशन कंपनी ने जिसने की किसी जनरेटर से बिजली ली है और उसे फिर किसी वितरण कंपनी को सप्लाई किया है और फिर जिस जनरेटर से आपने सफलतापूर्वक बिजली ली है. इस तरह की हरेक सप्लाई और स्थानान्तरण के हर कदम का खाता बनाया जाएगा, हर महीने अप्प जो बिल अदा करेंगे उसका साथ इसका भे हिसाब-किताब किया जाएगा. जहाँ तक विशेषज्ञों का सवाल है उनका मानना है कि यह लेखा प्रणाली बिना किसी वाजिब मुनाफे के मीटरिंग और लेखा-जोखा रखने का भार भी बिजली क्षेत्र पर बढ़ा देगी.

क्या यह ओपन एक्सेस कही और काम कर रहा है? कुछ देशों ने इस प्रक्रिया को अपने यहाँ चलाया, इसने केवल बड़े उपभोक्ताओं को ही फायदा पहुंचाया, जो सस्ती बिजली खरीदने में कामयाब रहे. क्योंकि जो बिजली सप्लाई की गयी उसकी दर मुख्यतः बराबर ही थी, अगर बड़े उपभोक्ता को फायदा होता है, तो फिर नुकसान कौन उठाएगा? निश्चित तौर पर नुकसान छोटे उपभोक्ता को होगा. तो यह भी एक तरीका है कि सारा बोझ जनता पर डाल दो और उसे पूँजी के हित में कर दो; पुरानी नीति अमीरों को सब्सिडी दो और गरीबों का खून चूस लो. 

यह कोई दुर्घटना नहीं है कि बिजली की कीमत 2002 में 1.37 रु. से बढ़कर 2013 में 5.87 रु. प्रति इकाई हो गयी थी. सुधारों की शुरुवात सस्ती बिजली और काफी बिजली मुहैया करवाने के मकसद से की गयी थी, इसके उलट इसने लोगों, समृद्ध भारतीय पूंजी और बैंकों को तबाह कर दिया और सभी को जोखिम में डाल दिया. ओपन एक्सेस जैसी गलतियों को दोहराने के बजाय हमें बिजली क्षेत्र में बोर्ड के गठन और नेटवर्क में सुधार लाने पर जोर देना चाहिए. हमें समाधान चाहिए न कि अर्थविहीन नारे.

डिस्क्लेमर:- उपर्युक्त लेख में वक्त किए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत हैं, और आवश्यक तौर पर न्यूज़क्लिक के विचारों को नहीं दर्शाते ।

 

 

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