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मृतक को अपमानित करने वालों का गिरोह!
हम लोगों ने जब पत्रकारिता शुरू की थी, तब इमरजेंसी के दिन थे। लोगों में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के प्रति ग़ुस्सा था और लोग आंदोलन कर रहे थे। किंतु धार्मिक आधार पर बँटवारे की कोई बात नहीं थी। कोई किसी राजनीतिक दल के साथ है या सहानुभूति रखता है इसे लेकर उसे राष्ट्रविरोधी अथवा टुकड़े-टुकड़े गैंग जैसे दुष्प्रचार नहीं होता था।
शंभूनाथ शुक्ल
06 Dec 2021
vinod dua

पत्रकार विनोद दुआ की मृत्यु के बाद जिस तरह से एक विशेष विचारधारा के लोग ख़ुशी जता रहे हैं, वह हमारे समाज के निरंतर गिरते जाने का द्योतक है। उनकी बेटी ने पिता की मृत्यु के बाद अपने इंस्टाग्राम में लिखा था कि ‘उनके पिता अब माँ के साथ स्वर्ग में हैं!’ यह एक बेटी की व्यथा थी। किंतु कुछ लोगों ने बेटी मल्लिका दुआ की इस बात पर मखौल उड़ाया और सोशल मीडिया में इतनी नफ़रत में बज़बजाती पोस्ट लिखीं कि एक सभ्य समाज शर्मा जाए। मगर आजकल जैसा माहौल है, उसमें इसे कुछ लोगों ने सही बताया। और इसे सही बताने वाले लोग एक विशेष विचारधारा के वाहक हैं। अगर सोशल मीडिया में उनका प्रोफ़ाइल खोला जाए तो पता चलता है, ये वही लोग हैं, जो धर्म की राजनीति करते हैं।

कई बार मुझे लगता है, कि हम लोगों ने जब पत्रकारिता शुरू की थी, तब इमरजेंसी के दिन थे। लोगों में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के प्रति ग़ुस्सा था और लोग आंदोलन कर रहे थे। किंतु धार्मिक आधार पर बँटवारे की कोई बात नहीं थी। कोई किसी राजनीतिक दल के साथ है या सहानुभूति रखता है इसे लेकर उसे राष्ट्रविरोधी अथवा टुकड़े-टुकड़े गैंग जैसे दुष्प्रचार नहीं होता था। हिंदू, मुसलमान सब लोग हर आंदोलन में कंधे से कंधा मिला कर जुटे थे। किसी के मन में किसी के धर्म या आस्था को लेकर कोई सवाल नहीं करते थे। मगर आज व्यक्ति का धर्म और उसकी आस्था ही उसके राष्ट्रवादी होने की पहचान बनता जा रहा है। इसी वजह से लोगों में ऐसी नफ़रत पनप रही है।

मुझे याद है, मेरे एक मुस्लिम दोस्त के बहनोई लखनऊ में सीबीआई के डीआईजी थे। एक बार उन्होंने मुझे अपने घर पर खाने को बुलाया। खाने के बाद जब वे अपना घर मुझे दिखा रहे थे तब एक बंद कमरे को देखकर मैंने पूछा कि इसमें क्या है तो उन्होंने उसे फौरन खोल दिया। कमरा खुलने पर मैंने देखा कि वहां एक मंदिर है उस पर दिया जल रहा है। मुझे आश्चर्य हुआ। मैंने कहा कि यहां दिया कौन जलाता है तो वे बोले पास के मंदिर से पुजारी बुला लेता हूं। वही जला जाता है। फिर वे विस्तार से बताने लगे कि मेरे से पहले यहां जो अधिकारी रहते थे वे पंडित बिरादरी के थे। उनके जाने के बाद मैंने देखा कि इस कमरे में तो मंदिर है। अब मुझे दो कमरे से ज्यादा की जरूरत है नहीं और इस कोठी में चार कमरे हैं। इसलिए यह कमरा मैंने मंदिर के लिए बना रहने दिया और यहां का दिया निरंतर जलते रहने देने के लिए पास के पुजारी जी को बुलवा लिया।

वे सज्जन कालपी की एक रियासत बावनी के नवाब परिवार से थे। उन्होंने बताया कि हमारी रियासत से मस्जिद के लिए भी दान जाता था तो अपने इलाके के मंदिरों के लिए भी। यह थी उस समय में लोगों की सदभावना। किसी भी तरह के धार्मिक पक्षपात से परे हम हर एक को बराबर के भाव से देखते थे। उन्होंने कहा कि मंदिर में दीपक जलने से मस्जिद की शान और निखरती है।

मैं अपने बचपन से अब तक देखता हूं तो पाता हूं कि समाज में परस्पर वैमनस्य और धार्मिक पाखंड बढ़ा है। क्या यह नई शिक्षा नीति का असर है अथवा हमारे इतिहास और समाज बोध के लगातार कुंद होते जाने का नतीजा। मेरे बचपन में हम इतने हिंदू-मुसलमान नहीं थे जितने कि आज हैं। कोई ऐसा नहीं कि हमें अपनी धार्मिक या सामाजिक पहचान की समझ नहीं थी, सब समझ थी पर तब आज की तरह धार्मिक पहचान हमारे सामाजिक संबंधों में आड़े नहीं आया करती थी। तब मुस्लिम मेहमान हमारे घरों में आते थे तो बैठक में उनके मर्दों को चाय जरूर काँच के गिलासों में दी जाती और चीनी मिट्टी के बर्तनों में परोसी भोजन। लेकिन उसी मुस्लिम मेहमान की महिलाएं जब घर के अंदर जातीं तो यह सारा भेदभाव दूर हो जाता। परस्पर एक दूसरे की साड़ी और गहनों की तारीफ की जाती और नेग-न्योछावर होती। पर क्या मजाल कि एक दूसरे के धर्म को लेकर कोई टीका टिप्पणी हो। हिंदू घरों में आया मुस्लिम मेहमान नमाज के समय जाजम बिछाकर नमाज पढ़ लेते और हिंदू तीज-त्योहार के दिनों में मुस्लिम घरों से मंदिर के लिए या रामलीला अथवा श्रीमदभागवत कथा के आयोजन पर चढ़ावा आता।

रामलीला के अधिकतर पात्र, खासकर राम, लक्ष्मण और परशुराम ब्राह्मण ही होते। पर दशरथ, विभीषण, सुग्रीव, जामवंत और रावण गैर ब्राह्मण। पर राम बारात निकलती और गाँव में घूमती तो अपनी-अपनी अटरिया से मुस्लिम महिलाएं भी न्योछावर फेंकती और हाथ जोड़ा करतीं। हमें पता रहता कि मुस्लिमों का शबेबरात कब है, मुहर्रम कब है और रमजान कब शुरू होगा। इसी तरह मुस्लिम भी जानते कि निर्जला एकादशी कब है और पंचक कब लगे। हमारे यहां एक मुसलमान खटिया बिनने वाले ने खटिया बिनने से इसलिए मना कर दिया था कि पंचक लगे हुए थे।

किवाड़-दरवाजे मुसलमान ही बनाते और चौखट पर लगी गणेश जी की मूर्ति भी। हम मुस्लिम घरों में जाते तो चाय व शरबत कहीं और से आती पूरी-सब्जी पास के ठाकुर जी के यहां से। पर खानपान की कुछ भी कहें बैर-भाव कतई नहीं था। कुछ आर्यासमाजी परिवारों में जरूर मुस्लिमों के प्रति सत्यार्थ प्रकाश वाला गुस्सा रहता लेकिन सनातनी परिवारों में कतई नहीं। न मुसलमान हिंदुओं का मजाक उड़ाते न हिंदू धार्मिक आधार पर मुसलमानों पर टिप्पणी करते। ड्राई फ्रूट्स खानबाबा ही लाते और उनकी अटपटी हिंदी-उर्दू मजेदार होती जिसमें लिंगभेद का आलम यह था कि खानबाबा सबको स्त्रीलिंग से ही संबोधित करते।

एक बार साल 1985 में पाकिस्तान से आए एक खान हमारे साथ कानपुर जा रहे थे। वहां पर बीच शहर में स्थित प्रयाग नारायण के शिवाले में दिसम्बर के आखिरी रविवार को रामायण के विभिन्न पाठ को लेकर एक सम्मेलन करते हैं जिसे मानस संगम कहा जाता है, उसमें देश-विदेश से राम कथा के मर्मज्ञ बुलाए जाते हैं। वे खान भाई पाकिस्तान के पंजाब प्रान्त की किसी यूनिवर्सिटी से राम कथा पर पीएचडी कर रहे थे इसलिए उन्हें भी वहां बुलाया गया था। पूरे रस्ते वे पाकिस्तान में खान लोगों की सिधाई और उनके पहरावे को लेकर जो मज़ाक चला करते हैं उनके किस्से सुनाते रहे। ऐसे मज़ाक अगर आज कोई कर दे तो शायद लठ चल जाएं। ट्रेन में पूरा कोच उन खान भाई से दोस्ती करने को आतुर था। उनसे बात करने में और उनसे मिलने-जुलने और उनसे संवाद का अलग आनंद था। कानपुर पहुँच कर शहर के मध्य स्थित उस वैष्णव मदिर, जिसे महाराज प्रयाग नारायण का शिवाला कहा जाता है, के प्रांगण में खान भाई ने रामायण की प्रासंगिकता पर जो भाषण दिया उससे हर कोई उनका मुरीद हो गया।

हिंदू-मुसलमान के भाव एक हैं, उनके बीच एथिनिक और क्षेत्र व वाणी तथा बोली की समानता हैं। दोनों के रस्मो रिवाज़ सामान हैं तब फिर दुराव कैसा! यह दुराव नकली है। पर लोग इसे ही असली समझ रहे हैं।

अब जरा आज देखिए, खानपान का भेद भले न हो। हम मुसलमान के साथ एक थाली में भले खा लें पर एक-दूसरे पर तंज कसने का कोई मौका नहीं छोड़ते। जब आप हिंदू धर्म या हिंदू रीति-रिवाजों की खिल्ली उड़ाते हो तो मुसलमान खुश होता है और जब इस्लाम को आड़े हाथों लेते हो तो हिंदू गदगदायमान हो जाता है। तब गांव में सभी जातियों के लोग रहते और जातीय भेदभाव भी था, लेकिन कभी यह नहीं हुआ कि अमुक बिरादरी के लोगों का बॉयकाट कर दो। उनमें परस्पर अन्योन्याश्रित सम्बन्ध थे। दलित खासकर जाटवों का मोहल्ला अलग होता था पर आज भी वही हाल है। लेकिन तब सब एक दूसरे पर सब निर्भर थे। जातीय भेदभाव था लेकिन दलितों के साथ ही और वह आज और तीखा हो गया है। वाल्मीकि तब भी जाटवों के मोहल्लों में नहीं बसते थे और आज भी वही हाल है। सवर्ण तब भी लाठी चलाते थे और कुछ मध्यवर्ती जातियों के लठैत उनके इशारे पर दलितों को खदेड़ते थे। आज वे इशारे पर लाठी भले नहीं चलाते हों मगर उन्होंने अब अपने वास्ते वही सब करना सीख लिया है। उलटे आज वे खुद अपनी प्रभुता के लिए दलितों पर लाठी चलाते हैं और फिर स्वांग भी करते हैं।

गाँवों में फैलते कुछ परिवारों ने अपने-अपने क्षेत्र में दबंगई शुरू कर दी है। और उन्होंने अपने परिवार का विस्तार किया है। यह परिवारवाद का ही प्रतिफलन है कि अपने परिवार के अलावा सभी को खारिज़ करो। परिवारवाद समाज को फलने-फूलने से रोकता है। लेकिन परिवार का फैलाव भी परिवार को साध कर नहीं रख पाता। परिवार टूटता है और उस टूटन का फायदा वह एकल परिवार उठा लेता है जो सक्षम होता है। इस तरह एक नया परिवार बन जाता है। हर नया परिवार अपने पुराने परिवार को तिरस्कृत करता है। तिरस्कार के लिए लामबंदी की जाती है और यह लामबंदी ही नफ़रत की जनक है।

आज हम जो समुदायों के मध्य और जातियों के बीच तथा अलग-अलग धर्म के अनुयायियों के मध्य जो दूरी देखते हैं वह इसी परिवारवाद के कारण ही पनपा है। एक स्वस्थ, लोकतान्त्रिक और जनहितकारी समाज के अभ्युदय के लिए परिवारवाद की ज़कड़न तोड़नी होगी। परिवारवाद से निपटने का एक ही उपाय है और वह यह कि परिवार को संकुचित मत करो उसको फैलाओ। परिवार फैलेगा तो वह बड़ा बनेगा और यह उसका बड़ा बनना ही उसके लोकतान्त्रिक बनने की निशानी है। क्योंकि परिवार फैलता है तो वह एक समाज का रूप लेता है। परिवार बड़ा होगा तो उसको सहेजे रखने के लिए उसके अंतर्विरोधों को भी सहन करना होगा। पारस्परिक मतभेदों को स्वीकार करना ही समन्वयवाद है। जब यह समन्वय बनेगा तब निश्चय ही हम सच्चे अर्थों में डेमोक्रेट बनेंगे। तब हमारे लिए मंदिर भी श्रद्धा के स्थल होंगे और मस्जिद भी समान रूप से आस्था केंद्र होंगे। एक डेमोक्रेट समाज बनाने के लिए हर व्यक्ति को प्रयास करना होगा कि मतभेद का सम्मान करना सीखे। पारस्परिक मतभेदों को मनभेद न बनाए और मान कर चले की मतभेदों को सुलझाने से ही स्वस्थ, निर्भय और लोकतान्त्रिक समाज बनता है।

परिवारों और गिरोहों को तोड़ने के लिए ज़रूरी है, कि ऐसी सोच फैलाने वालों का बॉयकाट करें।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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