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भारत
राजनीति
“कश्मीरी पंडितों के बारे में क्या कहना है” से उनका संकट हल होने नहीं जा रहा है
कश्मीरी पंडितों के पलायन के प्रश्न को कश्मीर नीति में भारी-रद्दोबदल के जरिये भी हल नहीं किया जा सका है। वास्तविक लोकतंत्र के जरिये इसे अभी भी हल किया जा सकता है।
राम पुनियानी
22 Feb 2020
jammu and kashmir

इस जनवरी को कश्मीरी पंडितों के कश्मीर घाटी से पलायन के तीस वर्षों के पूरे होने के रूप में याद किया गया। कश्मीर घाटी में अपने सामाजिक और सांस्कृतिक जड़ों से पलायन करने से पहले उन्हें घोर अन्याय, हिंसा और अपमान को सहन करने पर मजबूर होना पड़ा था।

उनका यह पलायन 1980 के दशक में कश्मीर में उग्रवाद के बढ़ते साम्प्रदायिकीकरण की वजह से हुआ था। हैरत की बात तो यह है कि जहाँ किसी भी सत्तारूढ़ दल ने पंडितों के इस प्रकार से अपनी जड़ों से उखाड़ दिए जाने के सवाल को हल करने को लेकर अपनी तरफ से किसी भी पहल की जरूरत को नहीं समझा, वहीं दूसरी ओर जब कभी मानवाधिकार की लड़ाई लड़ रहे लोग या अन्य लोग भारत में मुस्लिम अल्पसंख्यकों की बदहाली के सवालों को उठाते हैं तो ये सांप्रदायिक तत्व अपनी पूरी ताकत के साथ “कश्मीरी पंडितों के बारे में आपको क्या कहना है” के प्रश्न को उठाने से नहीं चूकते। जबकि आज यह अल्पसंख्यक तबका अपने समूचे नागरिकता के अधिकारों के खत्म होने के सवालों से जूझ रहा है।

हर बार और खासतौर पर साम्प्रदयिक हिंसा की घटना के बाद मानवाधिकार समूह, पीड़ित अल्पसंख्यकों के लिए न्याय और पुनर्वास की माँग उठाता रहा है। इनकी विपदा पर कान देने के बजाय, संगठित रूप से खासतौर पर हिंदू राष्ट्रवादियों ने ही नहीं बल्कि कुछ अन्य लोग भी अपने नित्यकर्म के रूप में इसके जवाब में कश्मीरी पंडितों के पलायन के सवाल को उठाना शुरू कर देते हैं – बताइए तब आप कहाँ थे, जब घाटी से कश्मीरी पंडितों को खदेड़ा जा रहा था? 

एक तरह से देखें तो यह पंडितों के साथ हुई त्रासदी के नाम पर किसी दूसरे अल्पसंख्यक पर किये जा रहे अत्याचारों को उचित ठहराए जाने की कोशिश होती है, और इस पूरी प्रक्रिया में जारी हिंसा के सामान्यीकरण करने में इसकी भूमिका को चिह्नित किया जा सकता है। यह कुछ इस प्रकार से है जैसे किसी दो गलतियों को आपस में मिला दें तो वे सही हो जाती हों। ऐसा लगता है कि जैसे कश्मीरी पंडितों की पीड़ा के लिए सताय गए ये मुसलमान ही जिम्मेदार हों या वे लोग जो अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा में जुटे हैं।

इन पिछले तीन दशकों के दौरान सत्ता में कई राजनीतिक गठबंधन बनकर सामने आये जिनमें बीजेपी, कांग्रेस, तीसरा मोर्चा और अन्य शामिल हैं। अगर शुरू से देखें तो जबसे पलायन की शुरुआत हुई, उस समय वहां राष्ट्रपति शासन के तहत केंद्र में वी. पी. सिंह की सरकार सत्ता में थी। उस समय इस सरकार को बीजेपी की ओर से बाहर से समर्थन हासिल था। बाद में बीजेपी के नेतृत्व वाला राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) सत्ता में स्थापित हुआ जिसने 1998 से लेकर करीब 6 साल तक अटल बिहारी वाजपेयी के रूप में प्रधानमंत्री पदभार सम्भालने का काम किया था।

फिर देखें तो 2014 से पीएम के रूप में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा ने पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता संभाल रखी है। एनडीए के सहयोगी भी सत्ता का कुछ सुख तो भोग ही रहे हैं, लेकिन सरकार के फैसलों को लेकर उनकी भूमिका कुछ नहीं रही है। सम्पूर्ण सत्ता का केन्द्रीकरण गृह मंत्री के साथ मोदी के पास है, जबकि अमित शाह कभी-कभार मोदी के दृष्टिकोण को प्रस्तुत करते रहते हैं।

“कश्मीरी पंडितों के बारे में भी कुछ बोल दो ज़रा” टाइप जो लोग आदतन जुमले उछालते रहते हैं, वे इसका इस्तेमाल सिर्फ मामले को सांप्रदायिक रंग देने के लिए करते हैं। कश्मीर का मामला बेहद चिंतित करने वाला है, और इसके लिए भारतीय मुसलमानों को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है, जैसा कि इसे खुलकर या बेहद महीन ढंग से प्रोजेक्ट किया जाता रहा है। मोदी सरकार ने जिस प्रकार से अनुच्छेद 370 को निरस्त करने, 35A के क्लॉज़ को खत्म करने, जम्मू-कश्मीर की राज्य की स्थिति को निचले स्तर पर दो केंद्र शासित प्रदेशों में तब्दील कर देने जैसे क़दमों ने निश्चित रूप से ऐसी स्थिति पैदा कर दी है जिसने कश्मीरी पंडितों की घर वापसी के प्रश्न को कहीं और अधिक जटिल बना डाला है।

आज कश्मीर में माहौल कहीं अधिक दमघोंटू हो चला है। यहाँ पर लोकतांत्रिक संभावना वाले जितने राजनैतिक नेता मौजूद थे, उनके ऊपर सार्वजनिक सुरक्षा अधिनियम (PSA) ठोंक दिया गया है, जो उन्हें बिना किसी अदालती प्रक्रिया की जवाबदेही के लम्बे समय तक जेलों की काल-कोठरी में रखने के लिए स्वतंत्र है। इंटरनेट बंद पड़े थे, संचार की सभी सुविधाओं का गला घोंट दिया गया और आजादी से जीने के अधिकारों में कटौती का माहौल अभी भी बना हुआ है। ऐसी स्थितियाँ कश्मीर की समस्याओं के किसी भी समाधान को और अधिक कठिन बना देती हैं।

कश्मीर हमेशा से समस्याग्रस्त स्थिति में रहा है – यह उस क्लॉज़ के कुचलने के चलते हुआ है जो इस इलाके को इसकी स्वायत्तता प्रदान करता है, और जिसके चलते यहाँ के लोगों में अलगाव की भावना घर कर हुई और इस क्षेत्र में उग्रवाद को पनपने का मौका मिल सका। इस असंतोष को पाकिस्तान की ओर से हवा दी गई और इसका फायदा उठाने की भरपूर कोशिश की गई। इसने कश्मीर में अल-कायदा जैसी ताकतों के प्रवेश की जगह बनाई, जिसने 1980 के दशक में सोवियत सेना के खिलाफ अपनी भूमिका निभाई थी, और जिसके आने के बाद से क्षेत्र को सांप्रदायिकता में रंग डाला। कश्मीर में कश्मीरी पंडितों को सताने की शुरुआत इन्हीं कट्टरपंथियों के प्रवेश के साथ शुरू हुई। जबकि शुरूआती दौर में कश्मीर में उग्रवाद का दौर कश्मीरियत के सवाल से शुरू हुआ था। कश्मीरियत का सम्बन्ध इस्लाम से नहीं है, बल्कि इसका सम्बन्ध बुद्ध, वेदांत दर्शन और सूफी उपदेशों की शिक्षा के संश्लेषण से है।

उस दौरान घाटी के अभिन्न अंग के रूप रहे पंडितों को घाटी में बने रहने की अपील कश्मीर के कई प्रतिष्ठित कश्मीरियों की ओर से सद्भावना मिशन के तहत की गई थी। यहाँ तक कि स्थानीय कश्मीरी मुसलमानों ने पंडितों के खिलाफ बन रहे माहौल के खिलाफ लड़ने का वायदा भी किया था। लेकिन उस समय के राज्यपाल जगमोहन ने, जो बाद में एनडीए सरकार में केन्द्रीय मंत्री तक बनाये गए, ने पंडितों को सुरक्षा प्रदान कराने के बजाय उनके सामूहिक पलायन को सुनिश्चित कराने के सारे प्रयास किये, और उन्हें निर्वासित करने तक मुस्तैदी से इस काम में जुटे रहे। वे चाहते तो उग्रवाद-विरोधी अभियान को तेज कर सकते थे और असहाय हालत में रह रहे पंडितों की सुरक्षा की व्यवस्था करा सकते थे। ऐसा क्यों नहीं किया गया, इसको लेकर कोई सवाल आजतक नहीं किये जाते, क्यों?

आज ज़रूरत इस बात की है कि “कश्मीरी पंडितों के बारे में आपका क्या कहना है” के प्रश्न पर गंभीरता से विचार किया जाये, और इसे हथौड़े के रूप में मुसलमानों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को पीटने के औजार के रूप में इस्तेमाल से बाज आना चाहिए। 2014 में जब एनडीए सरकार सत्ता में आई, तो उसने सोचा कि घाटी में पंडितों के लिए सुरक्षित दड़बे बनाकर उन्हें पुनर्वासित कर लिया जाएगा।

क्या ये कोई समाधान है? समाधान तो तब होगा जब उन्हें न्याय दिलाया जाएगा। जरूरत इस बात की है कि दोषियों की पहचान के लिए एक न्यायिक आयोग का गठन हो और पंडित बिरादरी को आश्वस्त करने के कानूनी उपाय तलाशे जाएँ। यदि इसी प्रकार की जोर-जबरदस्ती और दमघोंटू माहौल बना रहता है, जिसमें भारी संख्या में सेना तैनात कर रखी गई है तो क्या ऐसी स्थिति में वे घाटी वापस आना चाहेंगे? ज़रूरत इस बात की है कि पंडितों के सांस्कृतिक और धार्मिक स्थलों को पुनर्जीवित किया जाये और किसी भी प्रकार के सुलह की कोशिश के लिए कश्मीरियत को इसका आधार बनाया जाये।

निश्चित रूप से इस बात को कहा जा सकता है कि अल-कायदा किस्म के तत्व किसी भी सूरत में स्थानीय कश्मीरियों के अलगाव का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं। कश्मीर में शांति के लिए स्थानीय लोगों को इस वार्ता में शामिल किये जाने की आवश्यकता है, जोकि इस पूर्व में राज्य रहे कश्मीर के हालात सुधारने के सबसे बड़े गारंटर साबित होंगे। सांप्रदायिक सौहार्द का माहौल जो कश्मीर की पहचान रहा है, को यदि पुनर्जीवित करना है तो इस क्षेत्र में बाहरी लोगों को लाकर बसाने और इसकी जनसांख्यिकीय संरचना को बदलकर रख देने से वह कत्तई नहीं होने जा रहा है। आज कश्मीर को लेकर एक ईमानदार आत्मनिरीक्षण की आवश्यकता है।

पंडितों के पलायन के मसले को हल करने का रास्ता सिर्फ और सिर्फ लोकतंत्र के जरिये ही सम्भव हो सकता है, और साथ ही भारी संख्या में पलायन कर चुके उन मुसलमानों को भी साथ में लेने की जरूरत है, जो उग्रवाद और सशस्त्र बलों की भारी तैनाती के भय के चलते घाटी छोड़ने पर मजबूर हुए थे। टाइम्स ऑफ इंडिया ने अपनी रिपोर्ट में घोषित किया था कि जनवरी 1990 से लेकर अक्टूबर 1992 के बीच में आतंकवादियों ने कुल 1,585 लोगों की हत्या को अंजाम दिया था, जिनमें 982 मुस्लिम और 218 हिंदू थे।

आज हमने एक ऐसे रास्ते को चुना है जिसमें लोकतांत्रिक मानदंडों का गला घोंटा जा रहा है, और स्वायत्तता का जो वायदा था, जो कि कश्मीर अधिग्रहण के समय उसका प्रमुख आधार रहा था, कि लगातार अनदेखी की जा रही है। क्या इस तौर-तरीकों को अपनाकर हम पंडितों का भला करने वाले हैं?

(लेखक एक सामाजिक कार्यकर्ता और टिप्पणीकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं। )

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

“What about Kashmiri Pandits” Will Not Solve Their Crisis

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