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भारत
राजनीति
केन्द्रीय विषय के रूप में भ्रष्टाचार और व्यवस्था
24 Aug 2015

गत दिनों संसद को लम्बे समय तक स्थगन झेलना पड़ा। इस स्थगन के मूल में भ्रष्टाचार की कुछ बड़ी बड़ी घटनाओं का एक साथ उद्घाटन होना है। भ्रष्टाचार निश्चित रूप से आज गम्भीर स्थिति तक फैल चुका है और इसकी वृद्धि का हाल यह है कि हमारा देश ट्रांसपरेंसी इंटर्नेशनल के पायदान पर भ्रष्टाचार में तीन सीड़ियां और ऊपर चढ चुका है। यह विधायिका, कार्यपालिका के साथ तो पहले से ही जुड़ा हुआ था पर अब यह सेना और न्यायपालिका में भी प्रकट होने की हद तक उफान ले चुका है। किसी देश की व्यवस्था पाँच तत्वों पर निर्भर करती है, राजनीति, पुलिस, प्रशासन, सेना, और न्यायपालिका। आज इनमें से कोई भी भ्रष्टाचार की अन्धी दौड़ से मुक्त नहीं है। पुलिस और नौकरशाही तो अंग्रेजों के समय से ही बदनाम रही है किंतु स्वतंत्रता संग्राम से जन्मा नेतृत्व क्रमशः भ्रष्टाचार की गिरफ्त में आता गया। नेहरूजी के समय में टी टी कृष्णमाचारी को बहुत छोटी सी भूल के कारण पद से हाथ धोना पड़ा था। पर आज हालात यह हो गये हैं कि विधायिका में ईमानदार ढूंढना मुश्किल हो रहा है। सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश पर महाभियोग लगने की तैयारी है। सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस स्वयं स्वीकार चुके हैं कि तीस प्रतिशत जज भ्रष्ट हैं। प्रशांत भूषण ने तो सुप्रीम कोर्ट के आठ जजों के भ्रष्ट होने के बारे में सार्वजनिक बयान दिया है। सेना के अधिकारियों द्वारा किये गये भ्रष्टाचार के समाचार यदा कदा आते रहे हैं किंतु अब तो इसमें बड़े और महत्वपूर्ण पदों पर बैठे अधिकारियों के नाम आने से देश का आम जन देश की सबसे महत्वपूर्ण और सम्मानित संस्था की ओर सन्देह की दृष्टि से देखता हुआ स्वयं को भयभीत महसूस कर रहा है। विदेश विभाग में कार्यरत अधिकारी पाकिस्तान की जासूस निकलती है और गृह मंत्रालय का अधिकारी उद्योगपतियों व्यापारियों का जासूस पाया जाता है। अर्ध सैनिक बल का एक जवान अपने परिवार को बड़ा मुआवजा दिलाने के लिए एक बेरोजगार नौजवान को धोखा दे, अपनी ड्रैस पहिना कर उसका गला काट देता है और सिर गायब कर देता है। बाद में इसे नक्सलवादियों द्वारा की गयी हत्या प्रचारित करवा देता है। स्टिंग आपरेशन में पुलिस का थाना प्रभारी हत्या की सुपारी लेता हुआ और उस हत्या को एनकाउंटर में बदलने की योजना बनाता कैमरे में कैद कर लिया जाता है। सांसद पैसे के बदले में केवल दल बदल ही नहीं करते, अपितु सवाल पूछने, सांसद निधि स्वीकृत करने, और अपनी पत्नी के नाम पर दूसरी महिलाओं को कबूतरबाजी से विदेश भिजवाने के लिए भी कैमरे की कैद में आते हैं और फिर भी उनका कुछ नहीं बिगड़ता वे समाज में ससम्मान मुस्काराते हुए घूमते हैं। एक देश भक्ति का त्रिपुण्ड धारण करने वाली सत्तारूढ पार्टी का अध्यक्ष देश की सेना के लिए ऐसे उपकरण खरीदवाने में मददगार होने की रिश्वत लेता हुआ कैमरे की कैद में आता है जो उपकरण अस्तित्व में ही नहीं है और वही अगली बार डालर में देने का आग्रह कर रहा होता दिखाई देता है। इतना ही नहीं वही पार्टी उसे उसकी गैरराजनीतिक पत्नी को सुरक्षित सीट से टिकिट देकर सांसद बना कर तुष्ट करती है। संसद में सबसे मह्त्वपूर्ण न्यूक्लीयर डील पर बहस के दौरान एक करोड़ रुपये रिश्वत की रकम बता रुपये सदन के पटल पर पटक दिये जाते हैं पर उसकी आमद और उनके सदन में आने के रास्ते की जाँच हुए बिना ही मामला ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता है। कोई नहीं जानना चाहता कि वे रुपये कहाँ से आये थे और किसके थे। आज सदन में गतिरोध पैदा करने वालों में से न किसी सांसद को सदन की गरिमा की चिंता सताती है और ना ही सुरक्षा की चिंता, इसलिए भ्रष्टाचार की उक्त घटना की जाँच के लिए कोई उत्सुक नहीं दिखता। 

                                                                                                                         

सरकारी अफसरों के घरों में जब छापा पड़ता है तो रुपये ऐसे निकलते हैं जैसे कि उसके घर में छापाखाना लगा हो। यह सारा पैसा उन सशक्तिकरण और विकास की योजनाओं में से चुराया हुआ होता है जिनके बड़े बड़े पूरे पेज के विज्ञापन छपवा कर विभिन्न सरकारें गरीबनवाज दिखने का भ्रम पैदा करती रहती हैं। सरकार में सम्मलित मंत्री की अनुमति और हिस्सेदारी के बिना तो अफसर इतनी अटूट राशि एकत्रित नहीं कर सकते पर मंत्रियों पर छापा नहीं मारा जा सकता। किंतु जब मंत्रियों के निकट के रिश्तेदारों और नौकरों के यहाँ छापे डाले जाते हैं तो ड्राइवरों तक के लाकरों में करोड़ों रुपये निकलते हैं। आज जब भी भ्रष्टाचार के खिलाफ कोई प्रशासनिक कदम उठाया जाता है तो आम आदमी को अच्छा लगता है। शायद यही कारण है कि राजनीति में प्रवेश करने के लिए उतावले बाबा रामदेव जैसे लोकप्रिय व्यक्ति इस मुद्दे को पकड़ लेते हैं। पिछले दिनों लोकसभा चुनावों के दौरान बामपंथियों, जेडी[यू] के बाद भाजपा ने भी स्विस बैंक में जमा भारतियों की धनराशि को वापस मँगाने का मुद्दा उठाया था जो केवल चुनावी मुद्दा भर बन कर रह गया। इसका कारण यह रहा कि बामपंथी यह मानते हैं कि भ्रष्टाचार तो पूंजीवाद का स्वाभाविक दुष्परिणाम है और यह पूंजीवाद के समाप्त होने के बाद ही समाप्त होगा, वहीं भाजपा समेत दूसरे पूंजीवादी दल स्वयं ही उसके हिस्से हैं इसलिए वे जनभावनाओं को देखते हुए इसे केवल चुनावी मुद्दे तक ही सीमित रख सकते हैं उसके खिलाफ कोई प्रभावी आन्दोलन नहीं चला सकते। बिडम्बना यह है कि जब प्रैस और जनहित याचिकाओं के माध्यम से न्यायपालिका को अपना काम करना पड़ता है तो मजबूरन विपक्ष में बैठे लोगों को भी अपना राजनीतिक हित सधने का मौका नजर आता है और स्वयं की सुरक्षा भी नजर आती है। संसद में ताजा गतिरोध राजनीतिक लाभ के लिए सरकारी पार्टी के भ्रष्टाचार तक ही सीमित है और वह देश से पूर्ण भ्रष्टाचार उन्मूलन तक नहीं पहुँचता क्योंकि उसके लिए व्यवस्था के चरित्र को समझ कर उसे बदलने की दिशा में काम करना होगा। विरोध के लिए मजबूर सर्वाधिक सक्रिय विपक्षी दल जब केन्द्रीय सत्ता में था तो उसके मंत्रियों के खिलाफ भी ऐसे ही आरोप लगते रहे हैं तथा अब भी जहाँ जहाँ राज्यों में उनकी सरकारें हैं वे इसी अनुपात में भ्रष्टाचार में लिप्त हैं तथा कमजोर विपक्ष के कारण मध्यप्रदेश के मंत्री तो रिकार्ड तोड़ रहे हैं।

भ्रष्टाचार का फैलाव इस हद तक हो गया है कि इसे रोकने के लिए व्यवस्था के किसी एक अंग को अपनी सीमाएं लांघनी पड़ेंगीं और बाकी सारे अंगों की चुनौती झेलना पड़ेगी। स्मरणीय है कि इमरजैंसी लागू होने की पृष्ठभूमि में जयप्रकाश नारायण का सम्पूर्ण क्रांति आन्दोलन था जो गुजरात में चिमनभाई पटेल के विरुद्ध भ्रष्टाचार विरोधी क्षात्र आन्दोलन से विकसित हुआ था। स्मरणीय है कि उस क्रांति की परिणति भी सरकार बदलने तक ही सीमित रही थी और इस बदलाव के बाद जो विकल्प उभरा था वह भी नख से शिख तक भ्रष्टाचार में लिप्त रहा। गठबन्धन की मजबूरी ने एक संगठित साम्प्रदायिक दल को अपनी जड़ें देशव्यापी फैलाने का मौका मिल गया और जिसे हाशिये पर होना चाहिए था वह विपक्ष के केन्द्र में बैठा है। भ्रष्टाचार का हल सरकारें बदलने में नहीं व्यवस्था बदलने से मिलेगा और यह काम किसके नेतृत्व में होगा इसके संकेत नहीं मिल रहे हैं। ताजा हालात में तो कुँए और खाई के विकल्प हैं। राजनीतिक दल इस हद तक भ्रष्टाचार पर निर्भर हो गये हैं कि लोग भ्रष्टाचार के लिए राजनीतिक दलों में आने लगे हैं और ऐसे लोग ही अपेक्षित विधायिका के स्थान घेरते जा रहे हैं। सुप्रसिद्ध कवि मुकुट बिहारी सरोज के शब्दों में कहा जाये तो- 

मरहम से क्या होगा ये फोड़ा नासूरी है 
अब तो इसकी चीरफाड़ करना मजबूरी है 

डिस्क्लेमर:- उपर्युक्त लेख में वक्त किए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत हैं, और आवश्यक तौर पर न्यूज़क्लिक के विचारों को नहीं दर्शाते ।

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