NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
राजनीति
अंतरराष्ट्रीय
ऐसा न हो कि हम भूल जाएं : साम्राज्यवाद के चौंकाने वाले अपराध
अफ़ग़ानिस्तान के घटनाक्रम से पता चलता है कि उदारवादी सोच कैसे साम्राज्यवाद, स्वतंत्रता, नागरिक अधिकारों और लोकतंत्र पर अपने विचारों के माध्यम से उनका ग़ैर-राजनीतिकरण कर रही है।
संजय कुमार
24 Sep 2021
Translated by महेश कुमार
The Shocking Crimes of Imperialism
Image Courtesy: US National Archives

अफ़ग़ानिस्तान के लोग एक आपदा से दूसरी आपदा में धंसते जा रहे हैं। विदेशी कब्जे और नागरिक संघर्ष समाप्त होने के बाद, एक कट्टरपंथी तालिबान, जो बुनियादी राजनीतिक समझ की कमी और विविध जातीय और धार्मिक समूहों को एक साथ लाने की इच्छा के हर संकेत को धोखा दे रहा हा वह आज देश पर शासन कर रहा है। सबसे गरीब और सबसे कम विकसित देशों में घटी त्रासदी वर्तमान विश्व व्यवस्था में व्याप्त राजनीतिक अंतर्विरोधों के लिए एक खिड़की प्रदान करती है।

तत्कालीन अफ़गान राष्ट्र में इस तरह का विस्फोट और युद्ध, जिसे पश्चिमी उदार पूंजीवादी देशों ने दो दशकों तक बनाए रखा, वह समकालीन साम्राज्यवाद की सीमाओं को दर्शाता है। यह कि साम्राज्यवाद अपने द्वारा की गई हिंसा को मानवीय आड़ में ढकता है लेकिन हमेशा की तरह सैन्यवादी और नस्लवादी बना रहता है। अफ़ग़ानिस्तान में सामाजिक-राजनीतिक मंथन से पता चलता है कि तीसरी दुनिया के लोगों के लिए राष्ट्र-राज्यों की मुक्ति की क्षमता शायद खत्म हो गई है। आज जब तीसरी दुनिया का अभिजात वर्ग अपने हितों को साम्राज्यवादी महानगरों के साथ जोड़ कर देख रहा है, तो राष्ट्र के लिए एक काल्पनिक राजनीतिक समुदाय, जो जनता को सशक्त बनाता है, वह किसी संभावना के बजाय धोखा अधिक लगता है।

अमेरिकी क़ब्ज़े की ज़मीनी हक़ीक़त

अफ़ग़ानिस्तान की वर्तमान स्थिति पर मीडिया की कहानियां न्यूयॉर्क में हुए 9/11 के हमलों के बाद 2001 में संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा आक्रमण के साथ शुरू होती हैं। यह देश के वर्तमान  इतिहास का जानबूझकर किए जाने वाला चयनात्मक पाठ है या समझ है। पश्चिमी साम्राज्यवादी शक्तियों ने इसमें कम से कम 1979 से सैन्य रूप से निवेश किया है। जैसा कि जॉन पिल्गर ने हाल में लिखे एक लेख में जिक्र किया है, कि जिमी कार्टर प्रशासन ने 3 जुलाई 1979 को तत्कालीन पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ अफगानिस्तान (पीडीपीए) के नेतृत्व वाली अफ़गान सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए 500 मिलियन डॉलर के गुप्त सीआईए ऑपरेशन कोड-ऑपरेशन साइक्लोन को अधिकृत किया था। ऐसा 24 दिसंबर 1979 को अफ़ग़ानिस्तान पर सोवियत आक्रमण से छह महीने पहले किया गया था। योजना के तहत इस्लामिक जिहादियों को धर्मनिरपेक्ष और वामपंथी अफ़गान सरकार के खिलाफ हथियार देने की थी, जिसके लिए पाकिस्तान में जिया-उल-हक शासन का वैचारिक और सऊदी राजशाही का गहरा वित्तीय समर्थन शामिल था। पिल्गर ने काबुल में अमेरिकी दूतावास से मिली अगस्त 1979 की एक विज्ञप्ति का जिक्र किया है: "...संयुक्त राज्य अमेरिका के बड़े हितों को... पीडीपीए सरकार के पतन से ही पूरी किए जा सकता हैं, भले ही ऐसा करने से अफगानिस्तान में भविष्य के सामाजिक और आर्थिक सुधारों को कितना भी बड़ा झटका लगे उन्हे इसकी कोई परवाह नहीं थी।"

अफ़ग़ानिस्तान पर साम्राज्यवादी समझ के विपरीत, जो अपने इतिहास को विशुद्ध रूप से 'महान शक्ति' के खेल के रूप में देखता है, अप्रैल 1978 की सौर क्रांति उस अवधि के आंतरिक राजनीतिक संकटों में निहित थी। वह क्रांति एक सामंती विरोध, धर्मनिरपेक्ष और सामाजिक कल्याण कार्यक्रम से प्रेरित थी, जिसमें भूमि सुधार, शिक्षा और स्वास्थ्य के सार्वजनिक प्रावधान और महिलाओं के धर्म-आधारित पारंपरिक उत्पीड़न का निषेध शामिल था। पीडीपीए ने 1970 के दशक के अंत में निकारागुआ, अंगोला, मोजाम्बिक या इथियोपिया जैसे देशों में कई सरकारों के साथ इस विचारधारा को साझा किया था, जहां वामपंथी क्रांतिकारियों ने सशस्त्र संघर्षों के बाद सत्ता हासिल की थी। इन सभी देशों में पूर्ववर्ती विशेषाधिकार प्राप्त तबकों ने सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन के लिए क्रांतिकारियों के कार्यक्रम का विरोध किया था। सामराजी हस्तक्षेप के कारण स्थिति और खराब हो गई थी।

सभी मामलों में, पश्चिमी साम्राज्यवाद सबसे प्रतिक्रियावादी, हिंसक और नस्लवादी तत्वों को सशस्त्र और गठबंधन के साथ: निकारागुआ में कॉन्ट्रास, दक्षिण अफ्रीका के रंगभेद शासन और अफ़ग़ानिस्तान में इस्लामी कट्टरपंथियों का साथ दे रहा था। पश्चिमी उदार शासन के लोकतांत्रिक और उदारवादी ढोंगों के लिए यह बहुत कुछ था। पश्चिमी देशों में लोकप्रिय सोच के ज़रीए शीत युद्ध के चश्मे के माध्यम से ऐसे विकल्पों को सही ठहराया जाता रहा है। लेकिन यही साम्राज्यवादी विचारधारा का मूल मंत्र है, जो पूरी तरह से साम्राज्यवाद की सैन्य, राजनीतिक और आर्थिक ताक़त के माध्यम से दुनिया के प्रभुत्व वाले हिस्सों को देखती है। मानो वर्चस्व वाले समाजों का कोई आंतरिक इतिहास और राजनीति नहीं है।

पीडीपीए सरकार का ग्रामीण अफ़ग़ानिस्तान में सीमित प्रभाव था। इसका मुख्य आधार मुख्य रूप से शहरी पेशेवर तबकों तक सीमित था। आंतरिक विरोध और बाहरी रूप से वित्त-पोषित और सशस्त्र मुजाहिदीन की संयुक्त ताकत के खिलाफ क्रांति का कोई मौका नहीं था। पीडीपीए के भीतर गुटीय संघर्षों ने स्थिति को और खराब कर दिया था। मध्य एशिया में अपनी नाक के नीचे एक दक्षिणपंथी इस्लामी शासन के डर से, यूएसएसआर ने तेजी से सशस्त्र कब्जा करना शुरू कर दिया था, जिसने पीडीपीए शासन को जनता से अलग-थलग कर दिया था। हालाँकि, 1989 में सोवियत वापसी और यहाँ तक कि यूएसएसआर के विघटन के बाद भी पीडीपीए सरकार तीन साल तक जीवित रही। यह उनके राष्ट्र की शक्ति के सामाजिक चरित्र और अमेरिकी कब्जे के बाद स्थापित अफ़गान सरकार के बीच मतभेदों के लिए शिक्षाप्रद सुराग प्रदान करता है।

पीडीपीए सरकार ने हथियार डालने से इनकार कर दिया था, और उसके पदाधिकारियों ने अंत तक लड़ाई लड़ी क्योंकि उसके राजनीतिक आधार ने अफ़ग़ानिस्तान के भविष्य में एक गहरी हिस्सेदारी महसूस की थी। दूसरी तरफ, आज जब अमेरिकी सशस्त्र बलों की वापसी हुई तो अमेरिका प्रायोजित अफ़गान सरकार ताश के पत्तों की तरह ढह गई। इसके पदाधिकारियों ने अफ़ग़ानिस्तान में बहुत कम हिस्सेदारी महसूस की और शासन द्वारा समर्थित किसी भी मूल्य की रक्षा के प्रति खड़े होने के बजाय उन्होने संयुक्त राज्य अमेरिका की सहायता से भागना तय किया। 

जब से यूएस-नाटो अफ़गान आक्रमण समाप्त हुआ है, अमरीकी गठबंधन के आक्रमणकारियों ने स्टॉक लेने के उपाय के रूप में, संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा अफगानिस्तान में युद्ध और पुनर्निर्माण पर खर्च किए गए ट्रिलियन डॉलर के बारे में तफ़सील से नहीं बताया।

अफ़ग़ानिस्तान पुनर्निर्माण पर विशेष महानिरीक्षक की ऑडिट रिपोर्ट विस्तृत आंकड़े प्रस्तुत करती है। संयुक्त राज्य अमेरिका के रक्षा विभाग ने अफ़ग़ानिस्तान में अपने संचालन पर 816 अरब डॉलर खर्च किए है। इस राशि की तुलना में, ज़्यादातर धन अमेरिकी युद्ध मशीन, सैनिकों और हथियारों पर खर्च किया था जबकि तथाकथित पुनर्निर्माण पर खर्च किया गया धन केवल 130 बिलियन डॉलर था। यहां तक ​​कि 'अफ़ग़ानिस्तान' में खर्च किए गए इस पैसे में से भी 83 अरब डॉलर अफ़गान रक्षा बलों को दिए गए थे। इसके अलावा, इसका एक बड़ा हिस्सा हथियारों की खरीद, प्रशिक्षण खर्च, ठेकेदारी शुल्क आदि के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका में वापस चला गया था। कोलंबिया विश्वविद्यालय के एक विकास अर्थशास्त्री जेफरी सैक्स के अनुसार, केवल 21 बिलियन डॉलर को "आर्थिक सहायता" के रूप में गिना जा सकता है। जोकि अफ़ग़ानिस्तान पर खर्च और देश पर युद्ध करने पर खर्च किए गए लगभग एक ट्रिलियन डॉलर का मात्र 0.2 प्रतिशत है (जिसका सैक्स ने मूल संस्करण में जिक्र किया है)। यह आर्थिक सहायता लगभग 30 डॉलर प्रति अफ़गान प्रति वर्ष बैठती है। यदि अमेरिकी शासकों को लगता था कि वे अफ़गानों की स्वतंत्रता की भावना को इस थोड़े से पैसे में खरीद सकते हैं, तो वे निश्चित रूप से मूर्खों के स्वर्ग में रह रहे थे।

राजनीतिक-आर्थिक दृष्टि से, 2001 के बाद का अफ़गान राष्ट्र संप्रभुता या यहां तक कि संप्रभुता की इच्छा के बिना एक नव-उदारवादी राष्ट्र था। अमेरिकी और नाटो सैनिकों ने जैसा चाहा वैसा ही किया, अपनी इच्छानुसार किसी को भी गिरफ्तार किया और मार डाला। समाज सेवा से जुड़े कार्यक्रम पहली दुनिया के गैर सरकारी संगठनों की स्थानीय शाखाओं को आउटसोर्स किए गए, उनके पहले पालतू विशेषज्ञ सबसे गरीब देशों में से एक में सबसे बड़ा वेतन पा रहे थे। यहां तक ​​कि 3,00,000-मजबूत अफ़गान राष्ट्रीय रक्षा और सुरक्षा बल (ANDSF), जिस पर 83 बिलियन डॉलर खर्च किए गए थे, को यूएस-नाटो हवाई युद्ध की तुलना में उन्हे जमीन पर लड़ने वाले  सैनिक बनाया गया था, और उन्हे इसके लिए सशस्त्र दिए गए और प्रशिक्षित किया गया था। इसका उद्देश्य जमीनी ज़ंग से यूएस-नाटो के नुकसान को कम करना था। जबकि यूएस-नाटो सेनाएं अपने हवाई जहाजों और ठिकानों की सुरक्षा के लिए ड्रोन मिसाइलों सहित मिसाइलों को दागते थे, और अफ़गान राष्ट्रीय बलों को जमीन पर सशस्त्र विद्रोह का खामियाजा भुगतना पड़ता था।

यूएस-नाटो सैनिकों और अफ़गान बलों के बीच हुए हताहतों का भी अंतर चौंका देने वाला है। ब्राउन यूनिवर्सिटी के कॉस्ट ऑफ वॉर प्रोजेक्ट द्वारा दिसंबर 2019 तक एकत्र किए गए आंकड़ों के अनुसार, अफ़गान युद्ध में लगभग 2,300 अमेरिकी सैनिकों की जानें गई थी। उस समय तक मारे गए अफ़गान रक्षा और पुलिस बलों की संख्या 64,000 पर थी जोकि अट्ठाईस गुना अधिक थी, यदि इसमें युद्ध के अंतिम महीनों के हताहतों को शामिल करेंगे तो यह संख्या ओर भी बढ़ जाएगी।

यूएस-नाटो बल अफगान राज्य और उसके रक्षा बलों को अपने मातहतों से अधिक नहीं मानते हैं। तालिबान के साथ हुई दोहा वार्ता में अफ़गान सरकार को पूरी तरह से दरकिनार कर दिया गया था, उनका एकमात्र उद्देश्य सुरक्षित अमेरिकी सैनिकों की वापसी था। सबसे शर्मनाक घटना तो ये थी कि 2 जुलाई 2021 की आधी रात को बगराम के अपने सबसे बड़े सैन्य अड्डे से अफ़ग़ानों को बताए बिना अमेरिका वावहां से चला गया था। बेशक, यह केवल अफ़गान-अमेरिका संबंधों को दर्शाता है। अमेरिकी खुद को मालिक मानते थे; इसलिए न तो अफ़गान खुद को मेजबान समझते थे, और न ही अमेरिकियों में कभी मेहमानों के रूप में व्यवहार करने की शालीनता थी।

लोकतंत्र की कल्पना का संकट

इससे भी अधिक विडंबना यह है कि पश्चिमी शक्तियों का दावा है कि उन्होंने एक लोकतांत्रिक अफ़ग़ानिस्तान बनाने की कोशिश की। विडंबना यह है कि अमेरिका के आधिपत्य को और उसके दावे को, रूस और चीन जैसे प्रतिद्वंद्वी भी स्वीकार करते हैं। एक प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान, रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने यूएस-नाटो के साहसिक कार्य का आकलन करते हुए कहा, "यह विदेशी मूल्यों को थोपने की गैर-जिम्मेदार नीति को छोड़ने का समय है, विदेशी मानकों के तहत लोकतंत्र को लागू करने की कोशिश है, और ऐतिहासिक, या जातीय, या धार्मिक विशिष्टताएँ को न समझना है।” दूसरे शब्दों में, लोकतंत्र का मॉडल ठीक है; लेकिन लोकतंत्र को थोपना गलत है।

बेशक, पुतिन लोकतंत्र के जानकार नहीं हैं और रूस और चीन के खिलाफ पश्चिमी उदार देशों के वैचारिक हमले का मुकाबला करने के लिए अफ़ग़ानिस्तान में यूएस-नाटो पराजय का इस्तेमाल कर रहे हैं। चूंकि बहुसंख्यक और सत्तावादी राजनीतिक ताकतों को कई देशों में स्वीकृति मिलती है, इसलिए प्रगतिशील लोगों को कम अवसरवादी और अधिक आलोचनात्मक और सावधान रहने की जरूरत है।

अफ़गान उदाहरण दिखाता है कि उदारवादी सोच के भीतर मानव स्वतंत्रता, नागरिक अधिकारों और लोकतंत्र पर चर्चा किस हद तक गैर-राजनीतिक हो गई है। हम जानते हैं कि तालिबान शासन अफ़गानों को स्वतंत्रता और लोकतंत्र की व्यवस्था नहीं देगा। हमें अमेरिकी कब्जे के तहत अफ़गानों की स्वतंत्रता और लोकतंत्र के प्रकार के एक महत्वपूर्ण मूल्यांकन की भी जरूरत है। दूसरे से कतराते हुए पहले से हार मान लेना उदार स्वभाव की पहचान है। दो वैचारिक गलत मान्यताएं समाज की उदार समझ को रेखांकित करती हैं। पहला, स्वतंत्रता और लोकतंत्र की सामाजिक नींव की गलत मान्यता और व्यक्तिगत अधिकारों के एक खंडित ढांचे में उनकी कमी को दर्शाता है। दूसरा, इस ढांचे की बुतपरस्ती को दर्शाता है ताकि लोगों के सामाजिक जीवन के  स्पष्ट पहलू भी दिखाई न दें।

उदाहरण के लिए, कब्जे वाली ताकतों के साथ अपेक्षाकृत अच्छी तरह से संपन्न शहरी अफगानों का गठबंधन था जो केवल एक छोटा हिस्सा है और जिसे तालिबान शासन द्वारा छीनी जाने वाली स्वतंत्रताओं का आनंद न उठा पाने का डर था। इस तरह की स्वतंत्रता निस्संदेह इन लोगों के लिए महत्वपूर्ण है, और वे तालिबान के अधीन रहने के बजाय कहीं और रहना पसंद करेंगे। हालांकि, उनके भविष्य के बारे में उनकी चिंताएं जायज़ है जो हमें 95 प्रतिशत ग्रामीण और शहरी गरीब अफ़गानों की दुर्दशा के बारे में बहुत कम बताती हैं। कोई भी स्वतंत्रता उस स्वतंत्रता की गारंटी देने वाली राजनीतिक शक्ति के चरित्र से सीमित हो जाती है। तथ्य यह है कि एक विदेशी सेना ने उनके देश पर कब्जा कर लिया, इसका मतलब था कि अफ़गान लोग स्वतंत्र नहीं थे।

उदारवाद की अवधारणात्मक गलत मान्यता विचारों के क्षेत्र में 'त्रुटियां' नहीं हैं। जिस हद तक उदारवाद का आधिपत्य है, वह आर्थिक और राजनीतिक रूप से शक्तिशाली विचारधारा है। स्वतंत्रता और लोकतंत्र को निजी अधिकारों तक सीमित करना और उन्हें बुत बनाना वास्तव में सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक असमानताओं की मान्यता को कमजोर करता है। स्वतंत्रता और लोकतंत्र पर उदारवादी सोच वर्तमान साम्राज्यवाद की न्यायोचित सोच है, जिसे साम्राज्यवादी देशों की जन विचारधारा में 'गोरे आदमी के बोझ' के रूप में स्वीकार किया जाता है। कई प्रभुत्व वाले देशों में अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार एनजीओ और यहां तक कि सामाजिक अभिजात वर्ग भी स्वतंत्रता और लोकतंत्र की इस उदार धारणा को पूरा करते हैं।

लोग समान नागरिकों के समुदाय के भीतर ही स्वतंत्रता और लोकतंत्र का आनंद ले सकते हैं। पूंजीवादी विश्व व्यवस्था वाले देशों में दोनों की हालत गंभीर है। सभी पूंजीवादी राष्ट्र नव-उदारवादी नीतियां और वैश्वीकृत पूंजी के युग में श्रम और पेशेवर लोगों के अंतर्राष्ट्रीय प्रवासन के महत्वपूर्ण कारक हैं। इनमें से कई देशों में उपनिवेशवाद-विरोधी संघर्षों ने एक ऐसे राजनीतिक समुदाय का निर्माण किया, या कम से कम उसके बीज बोए थे, जिसने खुद को एक राष्ट्र के रूप में कल्पना की थी।

स्वतंत्रता के बाद राष्ट्र-राज्यों के निजीकरण, सामाजिक कल्याण के अवमूल्यन और वैश्विक पूंजी के संस्थानों को अपनी आर्थिक संप्रभुता सौंपने के नव-उदारवादी रुख ने समुदाय को खंडित कर दिया है। आर्थिक रूप से कमजोर लोगों में से अधिकांश को अनिश्चितता के दैनिक जीवन में धकेल दिया गया है। इसके साथ ही, पूंजी, संस्कृति और पेशेवर स्तर के वैश्वीकरण, महानगरीय देशों के आसपास केंद्रित एक प्रक्रिया का मतलब है कि इन राष्ट्रों के सामाजिक रूप से प्रभावशाली वर्ग जब चाहे अपना बैग पैक करके देश छोड़ सकते हैं।

बहुसंख्यकवादी हिंसा का सहारा लेकर, और राष्ट्र को उसके विकृत चेहरे के इर्द-गिर्द फिर से संगठित करने का प्रयास, राष्ट्रों के इस संकट में राजनीतिक रूप से शक्तिशाली लोगों की प्रतिक्रिया है ज्सिमेन आम जनमानस की कोई भूमिका नहीं है। तालिबान इस प्रतिक्रिया का एक रूप है। अन्य प्रतिक्रियाएं भारत सहित अधिकांश तीसरी दुनिया के देशों में, सफलता के विभिन्न चरणों में दिखाई दे रही हैं।

उन्नीस सौ सत्तर के दशक के अंत में एशिया, अफ्रीका से लेकर लैटिन अमेरिका तक, अफ़ग़ानिस्तान की सौर क्रांति सहित, प्रतिरोध और क्रांति के आंदोलन, तीसरी दुनिया में राष्ट्र-आधारित सशस्त्र प्रगतिशील आंदोलनों का अंतिम प्रगतिशील रास्ता बन गया था। हर जगह साम्राज्यवादी हस्तक्षेप इन आंदोलनों को कमजोर और नष्ट करने में कामयाब रहे हैं। इस सब के मद्देनजर, इन हस्तक्षेपों ने अफ़ग़ानिस्तान की तरह, स्वतंत्रता और समानता के कब्रिस्तान छोड़ दिए हैं। दो चीजें स्पष्ट होनी चाहिए, कि जबकि इन देशों में प्रगतिवादियों के हाथ में एक तत्काल संघर्ष जरूरी है। लोकतंत्र का एक वर्ग-आधारित मॉडल जो सामाजिक अभिजात वर्ग की आकांक्षाओं के बजाय सीधे आम लोगों के संघर्षों से जुड़ा हो उसकी एक खास जरूरत है। दूसरा, यह याद रखना चाहिए  कि उदारवादी ढोंग साम्राज्यवाद के अपराधों को नहीं धो सकते हैं।

लेखक, दिल्ली विश्वविद्यालय के सेंट स्टीफ़न्स कॉलेज में भौतिकी पढ़ाते हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

अंग्रेजी में मूल रूप से प्रकाशित लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें

Lest We Forget: The Shocking Crimes of Imperialism

Afghanistan
TALIBAN
democracy
Liberal Democracy
Imperialism
Afghan withdrawal
NATO
Afghan reconstruction
social elites
Neoliberalism
central asia
China
Russia

Related Stories

बाइडेन ने यूक्रेन पर अपने नैरेटिव में किया बदलाव

डेनमार्क: प्रगतिशील ताकतों का आगामी यूरोपीय संघ के सैन्य गठबंधन से बाहर बने रहने पर जनमत संग्रह में ‘न’ के पक्ष में वोट का आह्वान

रूसी तेल आयात पर प्रतिबंध लगाने के समझौते पर पहुंचा यूरोपीय संघ

यूक्रेन: यूरोप द्वारा रूस पर प्रतिबंध लगाना इसलिए आसान नहीं है! 

पश्चिम बैन हटाए तो रूस वैश्विक खाद्य संकट कम करने में मदद करेगा: पुतिन

और फिर अचानक कोई साम्राज्य नहीं बचा था

हिंद-प्रशांत क्षेत्र में शक्ति संतुलन में हो रहा क्रांतिकारी बदलाव

एक किताब जो फिदेल कास्त्रो की ज़ुबानी उनकी शानदार कहानी बयां करती है

भारत में संसदीय लोकतंत्र का लगातार पतन

90 दिनों के युद्ध के बाद का क्या हैं यूक्रेन के हालात


बाकी खबरें

  • संदीपन तालुकदार
    वैज्ञानिकों ने कहा- धरती के 44% हिस्से को बायोडायवर्सिटी और इकोसिस्टम के की सुरक्षा के लिए संरक्षण की आवश्यकता है
    04 Jun 2022
    यह अध्ययन अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि दुनिया भर की सरकारें जैव विविधता संरक्षण के लिए अपने  लक्ष्य निर्धारित करना शुरू कर चुकी हैं, जो विशेषज्ञों को लगता है कि अगले दशक के लिए एजेंडा बनाएगा।
  • सोनिया यादव
    हैदराबाद : मर्सिडीज़ गैंगरेप को क्या राजनीतिक कारणों से दबाया जा रहा है?
    04 Jun 2022
    17 साल की नाबालिग़ से कथित गैंगरेप का मामला हाई-प्रोफ़ाइल होने की वजह से प्रदेश में एक राजनीतिक विवाद का कारण बन गया है।
  • न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    छत्तीसगढ़ : दो सूत्रीय मांगों को लेकर बड़ी संख्या में मनरेगा कर्मियों ने इस्तीफ़ा दिया
    04 Jun 2022
    राज्य में बड़ी संख्या में मनरेगा कर्मियों ने इस्तीफ़ा दे दिया है। दो दिन पहले इन कर्मियों के महासंघ की ओर से मांग न मानने पर सामूहिक इस्तीफ़े का ऐलान किया गया था।
  • bulldozer politics
    न्यूज़क्लिक टीम
    वे डरते हैं...तमाम गोला-बारूद पुलिस-फ़ौज और बुलडोज़र के बावजूद!
    04 Jun 2022
    बुलडोज़र क्या है? सत्ता का यंत्र… ताक़त का नशा, जो कुचल देता है ग़रीबों के आशियाने... और यह कोई यह ऐरा-गैरा बुलडोज़र नहीं यह हिंदुत्व फ़ासीवादी बुलडोज़र है, इस्लामोफ़ोबिया के मंत्र से यह चलता है……
  • आज का कार्टून
    कार्टून क्लिक: उनकी ‘शाखा’, उनके ‘पौधे’
    04 Jun 2022
    यूं तो आरएसएस पौधे नहीं ‘शाखा’ लगाता है, लेकिन उसके छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) ने एक करोड़ पौधे लगाने का ऐलान किया है।
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License