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भारत
राजनीति
राष्ट्रपति चुनाव, भाजपा की राजनीतिक जीत और नैतिक हार सम्भव है
विभिन्न राजनीतिक क्षेत्रों में राष्ट्रपति चुनाव की चर्चाएं गर्म हैं जबकि उसके आंकड़े स्पष्ट हैं।
वीरेन्द्र जैन
17 Jun 2017
राष्ट्रपति चुनाव, भाजपा की राजनीतिक जीत और नैतिक हार सम्भव है

विभिन्न राजनीतिक क्षेत्रों में राष्ट्रपति चुनाव की चर्चाएं गर्म हैं जबकि उसके आंकड़े स्पष्ट हैं। सत्तारूढ एनडीए के पास 48.64% वोट हैं तो यूपीए के पास 35.47% वोट हैं। शेष वोट उन दलों या निर्दलियों के हैं जो किसी भी गठबन्धन में सम्मलित नहीं हैं। अपने उम्मीदवार को जिताने के लिए एनडीए को कुल 2% वोट जुटाने हैं, जिन्हें वह अपने सत्ता की दम पर जुटा सकती है। व्हिप जारी होने पर मान्यता प्राप्त किसी दल का न तो कोई सदस्य अनुपस्थित रह सकेगा और न ही क्रास वोटिंग कर सकेगा। दूसरी ओर लोकसभा चुनावों में डाले गये कुल मतों का 31% प्राप्त कर सरकार बना लेने वाली पार्टी ने अपने विशाल बहुमत के दम्भ में पिछले दिनों जो कुछ किया उससे उसकी विकास वाली छवि कलंकित होकर पुरानी साम्प्रदायिक छवि प्रकट हुयी है। यद्यपि यह छवि भी वोटों के बँटवारे से चुनाव जीतने में कोई वाधा नहीं बनती किंतु धर्मनिरपेक्ष विकासवादी लोगों, अंतर्राष्ट्रीय जगत, और स्वतंत्र प्रैस में निन्दा और घृणा का पात्र तो बनाती है। यही कारण है कि एनडीए गठबन्धन से बाहर का कोई दल उनका खुला समर्थन करके अपने ऊपर बिके होने का कलंक नहीं लेना चाहेगा। किसी ने अभी तक ऐसी घोषणा भी नहीं की है।

यदि एनडीए से बाहर के सभी दल मतभेद भुला, एकजुट होकर मतदान करते हैं तो एनडीए का उम्मीदवार हार भी सकता है, किंतु इस एकजुटता में बहुत अड़चनें भी हैं।  यूपीए को समर्थन देने वाले  सभी दल भी एक जुट नहीं हैं और उनके आपस में मतभेद हैं। बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी में व्यक्तिगत दुश्मनी है। डीएमके और एआईडीएमके भी शत्रुता भाव रखते हैं। तृणमूल काँग्रेस और वामपंथी दलों में तीव्र विरोध है। आम आदमी पार्टी भी भाजपा और काँग्रेस से बराबर की दूरी बना कर चलना चाहती है। यही हाल छोटे छोटे राज्य स्तर के अनेक दलों का है। भाजपा से मतभेदों के स्तर भी अलग अलग हैं। जेडीयू, नैशनल काँफ्रेंस, तृणमूल काँग्रेस, बीजू जनता पार्टी, एजीपी, एआईडीएमके, आदि वामपंथियों की तरह धुर विरोधी नहीं हैं, ये कभी एनडीए के साथ सरकार में रह चुके हैं। सोनिया गाँधी द्वारा बुलायी गयी बैठक में नीतिश कुमार सम्मलित नहीं हुये भले ही उन्होंने पार्टी की ओर से शरद यादव को भेजा था। लालू प्रसाद के यहाँ पड़े छापों के बाद से उनके नीतिश से सम्बन्ध खराब बताये जाते हैं। नीतिश कभी अटल बिहारी मंत्रिमण्डल के सदस्य रहे हैं और बिहार में पाँच साल तक भाजपा के साथ सरकार चलाते रहे हैं। बीजू जनता दल ने भी बैठक में भाग नहीं लिया। इसलिए भाजपा के खरीद फरोख्त के पुराने इतिहास को देखते हुए लगता है कि वह थोड़ी सी कमी सहजता से पूरी कर लेगी। मायावती, मुलायम परिवार, ममता बनर्जी., पटनायक आदि के नेताओं पर आय से अधिक सम्पत्ति आदि के प्रकरण दर्ज हैं। मुलायम सिंह का इतिहास ही धोखा देने का रहा है और वह हाथ से निकल चुकी अपनी पार्टी को अमर सिंह की सलाह पर भावनात्मक रूप से ब्लेकमेल कर सकते हैं। सावधानीवश  उत्तर प्रदेश में सरकार बनाने वाले सांसद योगी, और केशव मौर्य से अभी तक लोकसभा से त्यागपत्र नहीं दिलवाया गया है।  

यद्यपि अंत अंत तक शिवसेना अपना विरोध समाप्त कर देगी किंतु अभी वह भाजपा को अपने तेवर दिखा रही है। वह केण्डीडेट आदि के नाम पर जितना दबाव डाल सकती है डालने की कोशिश करेगी। देखा गया है कि इस चुनाव में क्षेत्रीयता की भी एक भूमिका रहती है। जब ज्ञानी जैल सिंह को उम्मीदवार बनाया गया था तब काँग्रेस के धुर विरोधी अकाली दल ने समर्थन दिया था और जब प्रतिभा देवी सिंह पाटिल को काँग्रेस का उम्मीदवार बनाया गया था तब शिव सेना ने भाजपा के उम्मीदवार का विरोध करते हुए उनका समर्थन किया था। यदि वंचित रहे जम्मू कश्मीर को प्रतिनिधित्व देने का वर्तमान में कोई कूटनीतिक महत्व हो तो कभी विश्व हिन्दू परिषद के अध्यक्ष रहे डा. कर्ण सिंह साझा उम्मीदवार हो सकते हैं, किंतु वे पूर्व महाराजा होते हुए भी अब कश्मीर का प्रतिनिधित्व नहीं करते।   

वैसे तो यूपीए की सरकार में कुछ समय तक गैर काँग्रेसी राष्ट्रपति रहा है और अब एनडीए के शासन काल में काँग्रेस के राष्ट्रपति होते हुए भी कोई टकराहट देखने में नहीं आयी फिर भी सत्तारूढ पार्टी के उम्मीदवार की पराजय से छवि को ठेस लगती है, इसलिए भाजपा हर हाल में अपना उम्मीदवार जिताना चाहेगी। देखना होगा कि गैर एनडीए दलों में कमजोर कड़ी कौन साबित होता है! देखा गया है कि मजबूत सरकार सरल राष्ट्रपति ही पसन्द करती है जैसे कि ज्ञानी जैल सिंह या प्रतिभादेवी सिंह पाटिल। भाजपा इसी कड़ी में अन्ना हजारेका नाम भी आगे कर सकती है। किसी पुराने भाजपाई को यह अवसर मिले इसकी सम्भावनाएं कम ही हैं क्योंकि विपक्ष के एक होने का खतरा भी तो टालना होगा।  

प्रणब मुखर्जी
भाजपा
नरेंद्र मोदी
मोहन भागवत

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