रोहित वेमुला की मौत के बाद एक और साल गुज़र गया I रोहित को मौत की तरफ़ ढकेलने के जि़म्मेदार लोगों पर इन दो सालों में आँच तक नहीं आई. बल्कि कुछ उलटा ही हुआ I मौत के बाद भी उसे अपनी ‘जनमना पहचान’ से जूझना पड़ा I रोहित जिस ‘पहचान’ के साथ और जिसकी वजह से समाज के साथ जद्दोजेहद करता रहा, मौत के बाद वह‘पहचान’ भी उससे छीनने की पुरज़ोर कोशिश की गई I
सबसे ऊपर की सात लाइनें रोहित की लिखी आख़िरी चंद लाइनों का हिस्सा हैं I वह जिस पहचान की बात कर रहा है,वह ख़ास कि़स्म की है. न... वह स्टूडेंट,रिसर्च स्कॉलर, विद्वान, लेखक,वैज्ञानिक, खिलाड़ी … जैसी पहचान तो कतई नहीं है I
वह अकेली ‘पहचान’ ही, हमारे समाज की अनेक पहचानों पर भारी है I इसका कमाल ज़बरदस्त है I किसी शख़्स के जनमते ही यह पहचान- गाँव, टोला,मोहल्ला, शहर, स्कूल, कॉलेज,नातेदारी, प्राकृतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक संसाधन- सबके साथ रिश्ता तय कर देती है. यह जाति की सामाजिक पहचान है I हाँ, यह पहचान कुछ समूह को बहुत ताक़त देती और उनके फ़ायदे की है Iवे इसके साथ बखू़बी जीते हैं. इसका लुत्फ़ उठाते हैं I इसलिए वे इस पहचान से परेशान नहीं होते हैं I
मगर यह पहचान, बड़े सामाजिक समूह के लिए जि़ंदगी के हर मामले में अछूतपन, ग़ैरबराबरी, भेदभाव, नफ़रत,हिंसा, शोषण और नुक़सान की वजह है I
रोहित इसी दूसरे वाले बड़े सामाजिक समूह से वास्ता रखता था I इन्हें हम आज दलित के नाम से पहचानते हैं I हममें से बहुतों को लगता है कि आज़ादी के सत्तर साल बाद अछूतपन, गैरबराबरी या भेदभाव की बातें अब कोरी गप हैं I है न?... क्योंकि हम में से ज़्यादातर की जि़ंदगी फ़ायदे वाले समूह से वाबस्ता रही है I उस फायदे वाले समूह में हम कितना भी वंचित क्यों न हों, अछूतपन और भेदभाव हमारी रोज़मर्रा की जिंदगी का वैसा हिस्सा नहीं है, जैसा यह दलितों की जिंदगी से चस्पा है I यह वह चीज़ है, जो इंसान को, इंसान मानने से इनकार करती है I
दलित, भारत में रहने वाले हर समुदाय का सच हैं I कहीं यह बहुत गहरा और उजागर है तो कहीं यह ढका-छिपा है I मगर है. इससे इनकार नहीं किया जा सकता है I
करीब सवा सौ साल पहले रत्नागिरी के स्कूल में बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर की जि़ंदगी से अछूतपन चिपका था I जब वह लंदन स्कूल ऑफ इकोनोमिक्स से पढ़कर आए तब भी वैसा ही अछूतपन,उनको हर जगह घेरे था. उसे अपने साथ चिपकाकर रखना, अम्बेडकर की ख़्वाहिश नहीं थी I उसे तो हटाने से भी हटने नहीं दिया जा रहा था I इसीलिए अम्बेडकर का मानना था कि ‘जातियों के विनाश के बिना, अछूतों की मुक्ति नहीं हो सकती है I’
...क़ायदे से तो आज़ादी मिलने और संविधान बनने के साथ इसका लोप हो जाना चाहिए था Iमगर बाबा साहेब अम्बेडकर को पता था कि यह इतना आसान नहीं है I याद करें, 25 नवम्बर 1949 को संविधान प्रारूप समिति के अध्यक्ष के रूप में उन्होंने क्या कहा था Iअम्बेडकर ने कहा था- ‘26 जनवरी 1950 को हम विरोधाभास से भरी जिंदगी के उस दौर में प्रवेश करने जा रहे हैंI जहाँ राजनीतिक दृष्टि से हम सब बराबर होंगे,लेकिन सामाजिक और आर्थिक मामलों में गैर बराबरी झेलते रहेंगे I सामाजिक और आर्थिक मामलों में हम कितने दिनों तक लोगों को बराबरी के अधिकार से वंचित रखेंगे I ज्यादा दिनों तक गैर बराबरी को बरकरार रखने का मतलब लोकतंत्र को खतरे में डालना होगा I’
मगर न जाति का विनाश हुआ और न अछूतपन का... और हमारे वक़्त में रोहित जैसों लाखों की जि़ंदगी से भी जुड़ा है I अभी हाल ही में एक सर्वे ने यह बताने की कोशिश की है कि हमारे मौजूदा भारतीय समाज में जातीय भेदभाव और पूर्वग्रह कितना मज़बूत है I इस अछूतपन को जहाँ टूट जाना चाहिए था, वहाँ वह तोड़ने की ख़्वाहिश करने वालों को तोड़ने में जुट जाती हैI बल्कि शिद्दत के साथ वह उन्हें बार-बार याद दिलाती है कि वे इसके ‘लायक़’ नहीं हैं I वे अलग हैं और समाज की सीढ़ी पर सबसे नीचे हैं I स्कूल-कॉलेज-विश्वविद्यालय वह जगह हैं, जहाँ सामाजिक गैरबराबरियों को ख़त्म हो जाना चाहिए I मगर ऐसा कहाँ हुआ?
आंगनबाड़ी केन्द्र हों या प्राथमिक स्कूल ... आज भी छुटपन से ही दलित बच्चे-बच्चियों को इस अछूतपन से गुज़रना पड़ता है I
ज्यादातर दलित बच्चे-बच्चियों को‘पैदाइशी पहचान’ से जुड़े कड़वे अनुभव से गुज़रना पड़ता है. अगर हमें यक़ीन न आ रहा हो और हम ख़ुद देखना/ समझना चाहते हैं तो किसी भी मिली-जुली बस्ती या दलित टोला में चलने वाले स्कूलों में इस पहचान के असर को आसानी से देख और समझ सकते हैं I
इस पहचान के ज़रिए उन्हें ख़ौफ़ज़दा किया जाता है ताकि उन्हें तालीम से ही डर लगने लगे. मगर कुछ लोग सब झेलते हुए बाहर निकल ही आते हैं और अब ऐसे लोगों की तादाद अच्छी ख़ासी होती जा रही है I
वे बाबासाहेब भीमराव अम्बेडकर की इस सलाह पर अमल करने लगे हैं- ‘आप सबके लिए मेरी आखिरी सलाह है- पढ़ें,संघर्ष करें, संगठित हों. ख़ुद पर यक़ीन करें I इंसाफ़ हमारे साथ है. मुझे पक्का भरोसा है, जीत हमारी होगी I’
ऐसे ही माहौल में बढ़े और पढ़े लड़के-लड़कियाँ बड़ी तादाद में अब देश के बड़ेनामी कॉलेजों और यूनिवर्सिटियों में पहुँचगए हैं I यह नई पीढ़ी चुपचाप सब बर्दाश्त करने को राज़ी नहीं है I वह सब कुछ‘भाग्य भरोसे’ मानने को तैयार नहीं है.अब तक जो उन्हें बताया/ समझाया गया,वे उसे आसानी से मानने को भी राज़ी नहींहैं I वे 'स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व कीभावना पर आधारित' अम्बेडकर का'आदर्श समाज' बनाने का ख्वाब देखते हैं I
रोहित वेमुला और उनके दोस्तों का भी ख़्वाब ऐसा ही है I वे अम्बेडकर के सपनों का समाज बनाने के लिए महज़ अपनी पैदाइशी पहचान तक सिमटे रहने को तैयार नहीं हैं I मगर यह इतना आसान होता तो क्या बात थी I जैसा कि अम्बेडकर बहुत साफ़-साफ़ कहते हैं-अस्पृश्यता कीसमस्या वर्ग संघर्ष का मामला है Iयह सवर्ण हिन्दुओं और अछूतों के बीच का संघर्ष है I यह किसी एक शख्य के साथ नाइंसाफी का मामला नहीं है.यह एक वर्ग का दूसरे वर्ग के साथ की जाने वाली इंसाफी है. जैसे ही कोई बराबरी का दावा करता है, यह संघर्ष उसी वक्त शुरू हो जाता है I’
रोहित जैसों को आज इस संघर्ष से गुज़रना पड़ रहा है I इसलिए अम्बेडकर की सलाह पर चलते हुए वे संघर्ष कर रहे हैं और पढ़ रहे हैं I संगठित हो रहे हैं. संगठित होकर संघर्ष कर रहे हैं I ऐसे ही संघर्ष का अक्स हमें आईआईटी-मद्रास,फिल्म एंड टेलिविज़न संस्थान (एफटीआईआई)- पुणे, जवाहरलाल नेहरू विश्वविदद्वयालय (जेएनयू), दिल्ली विश्वविद्यालय (डियू), बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर यूनिवर्सिटी जैसे कैम्पस में या गुजरात, मुंबई, सहारनपुर,मुजफ्फरनगर, सीतापुर, अररिया की सड़कों पर दिखाई देता है I
वैसे रोहित या उन जैसे अपनी ‘पैदाइशी पहचान’ से इतर क्या चाह रहे/रही हैं...
वे बतौर भारतीय नागरिक अपनी बराबरी की पहचान की माँग कर रही/रहे हैं I वे अपने इंसान होने का, इंसानी हक़ माँग रही/रहे हैं I इंसान जैसे सुलूक के लिए मज़बूती से खड़ी हो रही/रहे हैं. इंसानी वक़त का दावा कर रही/रहे हैं. उनकी ख़्वाहिश है कि दुनिया, उन्हें उनकी मेहनत, उनकी कला, दिमाग़ी ताक़त,सोचने-समझने की सलाहियत और वैज्ञानिक कल्पना की उड़ान से पहचानें न कि उनकी ‘पैदाइशी पहचान’ से I
अब इस चाह को कुछ लोग राष्ट्रद्रोह,जातिवादी ज़हर, साजि़श कहने से गुरेज़ नहीं कर रहे हैं I वे ऐसी चाह रखने वाले सभी पर हमलावर हैं I
क्या ऐसी चाह रखने वाले रोहित वेमुला हों या डोंथा प्रशांत हों या फिर चंद्रशेखर हों या फिर राधिका वेमुला या ग्रेस बानो ... राष्ट्रद्रोही हो गईं/गए I तब तो इन्हें संगठित हो संघर्ष की सलाह देने वाले अम्बेडकर के बारे में भी तय करना होगा न? क्यों?