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भारत
राजनीति
ग्रामीण संकट को देखते हुए भारतीय कॉरपोरेट का मनरेगा में भारी धन आवंटन का आह्वान 
ऐसा करते हुए कॉरपोरेट क्षेत्र ने सरकार को औद्योगिक गतिविधियों के तेजी से पटरी पर आने की उसकी उम्मीद के खिलाफ आगाह किया है क्योंकि खपत की मांग में कमी से उद्योग की क्षमता निष्क्रिय पड़ी हुई है। 
रबीन्द्र नाथ सिन्हा
22 Feb 2022
MGNREGA
चित्र सौजन्य: दि इंडियन एक्सप्रेस 

कोलकाता:  भारतीय उद्योग परिसंघ के तत्वावधान में बजट बाद केंद्र सरकार के साथ 5 फरवरी को आयोजित बैठक की अजेंडे में ग्रामीण क्षेत्रों में पैदा हुए संकट को दूर करने के लिए ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के तहत अतिरिक्त धन आवंटन की मांग शामिल की गई थी, जो एक आश्चर्यजनक परिघटना है।

यह इसलिए आश्चर्यजनक है क्योंकि महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम-2005 (मनरेगा) के तहत धन और रोजगार के मसले हमेशा किसान संगठनों और सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा उठाए जाने वाले गए मुद्दे रहे हैं। मनरेगा के प्रति प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी (जिन्होंने इसे "असफलता का जीवित स्मारक" कहा था) के रुख से वाकिफ कॉरपोरेट इंडिया इस मुद्दे पर कम ही बोलता है।  

जो भी हो, इस बार की बातचीत उद्योग जगत के अतीत से एक प्रस्थान-बिंदु को चिह्नित करती है। इस मुद्दे को और कोई नहीं बल्कि मल्लिका श्रीनिवासन ने उठाया था, जो ट्रैक्टर और कृषि उपकरण (टैफे/TAFE) की अध्यक्ष और प्रबंध निदेशिका हैं। उन्होंने कहा कि सरकारी समर्थन के बावजूद ग्रामीण क्षेत्रों में तनाव अभी भी स्पष्ट रूप से बना हुआ है। इसलिए, चीजों को दुरुस्त करने के क्रम में मनरेगा के तहत परिव्यय को 2021-22 के संशोधित अनुमान के स्तर पर रखा जाना चाहिए। 2022-23 के लिए संशोधित अनुमान वही हैं जो 2021-22 के लिए हैं। 

इसके बाद, परिस्थितियों से विवश हो कर केंद्र को चालू वित्त वर्ष में मनरेगा के लिए आवंटन 25,000 करोड़ रुपये से बढ़ा कर 98,000 करोड़ रुपये करना पड़ा, जो, इसलिए, इस वित्तीय वर्ष के लिए यह संशोधित अनुमान है। इस प्रकार श्रीनिवासन ने अगले वित्त वर्ष के लिए 98,000 करोड़ रुपये परिव्यय की पुनर्बहाली की मांग की। 

बैठक में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण की प्रतिक्रिया सामान्य थी। उन्होंने कहा कि मनरेगा एक मांग से प्रेरित-संचालित योजना है और "हम उसमें और धन देने के लिए किसी भी समय तैयार रहेंगे"। राजस्व सचिव तरुण बजाज, जो वित्त मंत्री की प्रतिक्रिया के पूरक के प्रयास की तरह लग रहे थे, उन्होंने कहा कि सरकार को अगले वित्त वर्ष में मनरेगा के तहत काम-रोजगार की मांग में गिरावट आने की उम्मीद है क्योंकि उद्योगों के कई हाथों को काम पर रखने की संभावना है। 

लेकिन, उनके वक्तव्यों के मायने निकालें तो टैफे की सीएमडी श्रीनिवासन का यह आकलन कई व्याख्याओं की गुंजाइश बनाता है। इसने सरकार को आगाह किया है कि वह देश की औद्योगिक गतिविधियों में तेजी से बदलाव-पलटाव की कोई उम्मीद न रखे क्योंकि खपत की मांग के अभाव में बड़ी मात्रा में उत्पादन नहीं हो रहा है, वह सुप्त पड़ा हुआ है। इसलिए, उद्योग जगत मांग के बढ़ने की प्रतीक्षा करेगा, इसमें बढ़ोतरी होने पर इष्टतम क्षमता का उपयोग किया जाएगा। इसके बाद ही,कैपेक्स (पूंजीगत व्यय) और रोजगार सृजन की प्राथमिकता पर विचार किया जाएगा। 

इसलिए, सरकार को संदेश यह भी है कि उसके कैपेक्स पैकेज को निजी निवेश में "भीड़" देखने के लिए अभी और इंतजार करना होगा। औद्योगिक उत्पादन सूचकांक द्वारा मापी गई फैक्ट्री उत्पादन में संवृद्धि दिसम्बर 2021 में लगातार चौथे महीने 0.4 फीसदी तक लुढ़की रही, जो दिसम्बर 2020 से अब तक के 10 महीने की तुलना में सबसे बड़ी गिरावट थी। 

इसलिए ही श्रीनिवासन मनरेगा आवंटन में 98,000 करोड़ रुपये की वृद्धि का सुझाव देकर ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर बने दबाव को कम करने और ग्रामीण खपत की मांग को पुनरुज्जीवित करने के लिए प्राथमिकता देने की सरकार से गुहार लगा रही थीं। उदाहरण के लिए, बाजार अनुसंधान फर्मों के शोध-अनुसंधानों ने यह स्थापित किया है कि एफएमसीजी (तेजी से बिकने वाली उपभोक्ता सामग्री) खंड में उद्योग अपने उत्पादों की कम से कम 35 फीसद मांग व खपत के लिए ग्रामीण भारत पर निर्भर करता है। मनरेगा में काम-धंधे के अलावा, एफएमसीजी कंपनियां किसानों के खातों में न्यूनतम समर्थन मूल्य या एमएसपी के रूप में 237 लाख करोड़ रुपये के सीधे हस्तांतरण को भी गिन रही हैं। 

उद्योगों में श्रमिकों के रोजगार मिलने की संभावना को देखते हुए आगे चल कर मनरेगा में रोजगार की मांग कम हो सकने के राजस्व सचिव के इस अनुमान पर पूछे जाने पर नई दिल्ली के डॉ बीआर अंबेडकर विश्वविद्यालय में फैकल्टी दीपा सिन्हा ने न्यूज़क्लिक को बताया : "या तो वे जानबूझकर यह जताने के लिए कह रहे हैं कि चीजें बेहतर हो रही हैं या वे संकट की भयावहता का आकलन करने में असमर्थ हैं, विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में। इसके अलावा, औद्योगिक क्षमता निष्क्रिय पड़ी हुई है; ऐसे में मनरेगा रोजगार की कम मांग के परिणामस्वरूप रोजगार सृजन इतनी गति कैसे प्राप्त कर सकता है?” 

सिन्हा ने कहा कि मनरेगा फंड भारी-भरकम राशि दिए जाने की उद्योग जगत की मांग ही बहुत कुछ कह जाती है। 

नरेगा संघर्ष मोर्चा के एक कार्यकर्ता देबमाल्या नंदी ने न्यूज़क्लिक को बताया कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था को कोविड-19 के पहले की गतिविधि के स्तर पर लौटने में कम से कम तीन साल लगेंगे। कार्यकर्ताओं द्वारा किए गए क्षेत्र सर्वेक्षण से पता चलता है कि अपर्याप्त बजटीय आवंटन नौकरियों की मांग को दबा रहे थे और धन के हस्तांतरण में देरी से लोगों में आजीविका की समस्याएं बढ़ रही थीं। 

1 फरवरी 2022 तक मनरेगा भुगतान-प्रशासनिक, सामग्री और मजदूरी मद-में18,350 करोड़ रुपये बकाया है। जिसका अर्थ है कि 2022-23 वित्तीय वर्ष के लिए वास्तविक उपलब्धता 54,650 करोड़ रुपये है। प्रत्येक वर्ष के पहले छह महीनों में ही 80-90 फीसदी बजट समाप्त हो जाता है; इसके बाद रोजगार का मामला धीमा हो जाता है क्योंकि राज्य उस पर ब्रेक लगा देते हैं। 

नंदी कहते हैं कि केंद्र एवं राज्यों की ग्राम सभाओं के जरिए भागीदारी से मनरेगा में रोजगार की मांग का वास्तविक अनुमान लगाने में मदद मिलेगी। फिलहाल तो मनमाने तरीके से बजट का आवंटन किया जाता है। 

अखिल भारतीय किसान सभा के महासचिव हन्नान मुल्ला ने कहा: “मैं राजस्व सचिव की आशावाद को नहीं मानता। कई औद्योगिक इकाइयों ने अभी तक उत्पादन फिर से शुरू नहीं किया है, ग्रामीण क्षेत्रों में संकट गंभीर बना हुआ है और मनरेगा के लिए केंद्र का आवंटन मनमाना है।” 

मुल्ला ने न्यूज़क्लिक को बताया कि अनुमानित 25-30 प्रवासी आजीविका कमाने के अपने पहले के ठौर पर वापस नहीं लौटे हैं। उन्होंने कहा “फिर, मनरेगा में भुगतान बहुत दिनों से लंबित हैं। इस योजना के लिए नई दिल्ली के आवंटन में मुद्रास्फीति का कोई लेखा-जोखा नहीं होता है। वास्तविक रूप से, इस योजना की मध्यावधि समीक्षा कर और उसके मुताबित धन दिए जाने के आश्वासन के साथ न्यूनतम आवंटन 1 लाख करोड़ रुपये किया जाना चाहिए।” 

जय किसान आंदोलन के अध्यक्ष अविक साहा के अनुसार, 2022-23 में औद्योगिक रोजगार सृजन होने से मनरेगा में काम-धंधे में गिरावट आने की राजस्व सचिव की उम्मीद जमीनी हकीकत से बहुत दूर है।

"परिसंपत्ति निर्माण/नवीकरण के लिए पर्याप्त संसाधन आवंटन के साथ योजना का सार्थक कार्यान्वयन के जरिए श्रमिकों के प्रवासन को कम करने में अभी एक लंबा समय लग सकता है। कई राज्यों में धन के दुरुपयोग को रोकने की भी सख्त जरूरत है; विशेष रूप से पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा में।" उन्होंने आगे न्यूज़क्लिक को बताया कि "नई दिल्ली की नीयत पर शक है। ग्रामीण अर्थव्यवस्था के लिए धन के बढ़े हुए प्रावधान के साथ मामलों को गति देने की बजाय, यह संगठित क्षेत्र पर भरोसा करना पसंद करती है, जो बदले में मांग की स्थिति के बारे में पहले आश्वस्त होना चाहता है।” 

सेंटर फॉर बजट एंड गवर्नेंस एकाउंटेबिलिटी (सीबीजीए), सरकारी नीतियों के अध्ययन पर केंद्रित एक थिंक-टैंक, है। उसने केंद्रीय बजट के अपने विश्लेषण में देखा है कि हालांकि लॉकडाउन प्रतिबंधों में ढील दी गई है, लेकिन लोगों के रोजगार और आजीविका पर महामारी का दुष्प्रभाव बना ही हुआ है। ग्रामीण अर्थव्यवस्था रिवर्स माइग्रेशन का खमियाजा भुगत रही है। 

"महामारी से जूझ रही अर्थव्यवस्था में रोजगार पैदा करना सबसे बड़ा काम है..."ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार की अतिरिक्त मांगों को पूरा करने के लिए ग्रामीण विकास विभाग (डीओआरडी) को 2020-21 तथा 2021-22 में अधिक धनराशि प्रदान की गई थी। आवंटन राशि में वृद्धि का सबसे बड़ा हिस्सा मांग आधारित ग्रामीण मजदूरी रोजगार योजना के तहत था। केंद्र के कुल बजटीय व्यय में डीओआरडी का आवंटन क्रमशः 3.84 फीसदी और 4.11 फीसदी था। लेकिन 2022-23 के बजट परिव्यय में यह 3.5 फीसद से कम है, जो 2018-19 से सबसे कम है।”

सीबीजीए अतिरिक्त काम की भारी मांग के अलावा लंबित जवाबदेहियों को पूरी करने के लिए 73,000 हजार करोड़ रुपये से अधिक धन का मजबूत मामला मानता है। हालांकि यह परियोजना 100 दिनों के रोजगार की गारंटी देती है, 2020-21 में रोजगार प्रदान करने की राष्ट्रीय अवधि मात्र 22 दिन ही थी। पर रिपोर्ट है कि सरकार ने 2020-21 में औसत रोजगार 51.52 दिन, 2019-20 में 48.4 दिन और 2018-19 में 50.88 दिन रोजगार लोगों को दिए गए थे।

यह कहते हुए कि "दोनों के अनुमानों में यह अंतर अध्ययन की पद्धतिगत भिन्नताओं के कारण है, "जबकि पूर्व गणना पंजीकृत परिवारों के आधार पर की गई थी...और बाद वाली गणना...केवल उन परिवारों के आधार पर की गई है,जिन्हें कम से कम एक दिन रोजगार मिला है। इसे अध्ययन का आधार बनाया गया है।" यह मांग-आपूर्ति के बीच अंतर को परिलक्षित करता है। 

यह व्यापक रूप से स्वीकार किया जाता है कि कृषि योजनाओं पर सरकारी खर्च का ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है। द हिंदू अखबार के 9 फरवरी के संस्करण में पूर्णिमा वर्मा, आइआइएम अहमदाबाद में सेंटर फॉर मैनेजमेंट इन एग्रीकल्चर की संकायध्यक्षा ने पाया कि समग्र कृषि क्षेत्र के परिव्यय में जबकि 4.4 फीसदी की मामूली बढ़त हुई थी "लेकिन वृद्धि की यह दर मुद्रास्फीति की वर्तमान दर (5.5 से लेकर 6 फीसदी तक) को देखते हुए कम है।”  

प्रो. पूर्णिमा वर्मा ने बताया कि समग्र वृद्धि के बावजूद, बाजार हस्तक्षेप योजना और मूल्य समर्थन योजना के लिए परिव्यय में 1,500 करोड़ रुपये यानी 62 फीसदी की कमी देखी गई है। पीएम-अन्नदाता आय संरक्षण अभियान के तहत संशोधित अनुमान में 400 करोड़ रुपये के बनिस्बत मात्र 1 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया है। संलग्न नोट इस कटौती की व्याख्या नहीं करते हैं। 

रिकॉर्ड के लिए यहां यह स्मरण करना जरूरी है: लोकसभा में 27 फरवरी को राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव पर बहस का समापन करते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने मनरेगा को "आजादी के 60 साल बाद भी देश में बनी गरीबी का जीवित स्मारक" बताया था। उन्होंने कहा कि “लोगों से अभी भी गड्ढा खुदवाया जा रहा है। मैं इस योजना को ढोल की थाप पर संगीत और नृत्य के साथ जारी रखूंगा।“ 

( मनरेगा अधिनियम के तहत जल संरक्षण, भूमि विकास, निर्माण कार्य, कृषि एवं अन्य कार्य किए जा सकते हैं। इस योजना को प्रख्यात अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज और जानी-मानी सामाजिक कार्यकर्ता अरुणा रॉय एवं निखिल डे ने तैयार किया था।) 

दिलचस्प बात यह है कि प्रधानमंत्री मोदी के उक्त चर्चित टिप्पणी के छह साल बाद 21 फरवरी 2021 को वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने संसद में दावा किया कि मोदी सरकार ने मनरेगा कार्यक्रम को बेहतरीन तरीके से लागू किया है और इस योजना के अब तक के 15वर्षों के इतिहास में सबसे अधिक धन राशि खर्च किया है।  स्पष्ट रूप से, सीतारमण 1.10 लाख करोड़ रुपये से अधिक व्यय का जिक्र कर रही थीं। 

लेखक कोलकाता के वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार हैं। 

अंग्रेजी में मूल रूप से लिखे गए लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें

Rural Distress Makes India Inc. Call for Higher MGNREGA Allocation

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