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भारत
राजनीति
हम विश्वव्यापी मंदी की तरफ बढ़ रहे हैं
2006 के बाद से मुख्य वैश्विक आर्थिक संकेतक सबसे निचले पायदान पर फिसल गए हैं और अति-उत्पादन के संकट ने अंततः एशियाई देशों को अपने जाल में जकड़ लिया है।
प्रभात पटनायक
22 Oct 2019
Translated by महेश कुमार
World-Wide Recession

पिछले महीने यूरोपीय सेंट्रल बैंक ने अपनी बेंचमार्क ब्याज दर को घटाकर -0.5 प्रतिशत कर दिया था, जिसका मतलब है कि अगर वह 100 यूरो का कर्ज़ देती है तो उसे उस कर्ज़ की समाप्ति पर केवल 99.5 यूरो की वापसी होगी।

इसने जर्मनी, स्पेन, इटली, चेक गणराज्य और यहां तक कि ग्रीस जैसे देशों में एक नया चलन शुरू कर दिया है, जिसके तहत सरकारी बांडों पर होने वाली कमाई को नकारात्मक श्रेणी में डाल दिया गया है। दूसरे शब्दों में कहें तो इन सरकारों को उधार देने वाली एजेंसियां सरकारी बॉन्ड अपने पास रखने के एवज़ में भुगतान करने को तैयार हैं। कम अवधि वाले बॉन्ड के मुक़ाबले लंबी अवधि वाले बॉन्ड में आमतौर पर कमाई अधिक होती है, लेकिन जर्मनी में अब भी 30 साल के सरकारी बॉन्ड नकारात्मक कमाई की श्रेणी में हैं।

चूंकि यूरोपीय सेंट्रल बैंक द्वारा अपनाई गई नीति के पीछे विचार यह है कि कम ब्याज दर, जैसी कि आशा की जाती है, बड़ी मात्रा में निवेश को प्राभावित करेगा और जिससे कुल मांग बढ़ेगी और नतीजतन उत्पादन और रोजगार भी बढ़ेगा इसलिए जमाकर्ताओं को दी जाने वाली ब्याज दर को भी कम करना होगा।

कुल मिलाकर, इस उपाय से आय के वितरण पर प्रतिगामी यानी उल्टा असर पड़ेगा क्योंकि अगर आप पूरे समाज को लेते हैं, तो समाज में मौजूद वर्गों चाहे वह मध्यम वर्ग हो या मज़दूर वर्ग (जिसमें पेंशन निधि के योगदानकर्ताओं भी शामिल हें) या फिर कॉर्पोरेट क्षेत्र इससे जो कुछ भी शुद्ध कर्ज़ आता है वह इस बात पर ध्यान दिए बिना आता है कि कोई उत्पादकीय निवेश होता है या नहीं। इसलिए, ब्याज दरों में कमी, काम करने वाले मज़दूर वर्ग और मध्यम वर्ग (लेनदारों) से कॉर्पोरेट क्षेत्र (देनदारों) की तरफ आय के वितरण में एक शुद्ध बदलाव की ओर इशारा करता है।

ब्याज दरों में कमी अब एक ऐसे बिंदु पर आ गई है, जहां नाममात्र की दरें भी नकारात्मक क्षेत्र में प्रवेश कर गई हैं, एक ऐसी घटना जो पूंजीवाद के इतिहास में काफी अभूतपूर्व है। यह स्पष्ट है कि नकदी का उपयोग करने वाली अर्थव्यवस्था में ब्याज की दरों को नीचे धकेलने की एक हद होती हैं (जब तक कि नकदी पर ही टैक्स न लगाने लगे); ऐसा इसलिए है क्योंकि जब नक़दी अपने पास रखते हें तो उनकी ब्याज दर शून्य होती है इसलिए वे कभी भी शून्य दर से कम की ब्याज दर पर बैंकों या किसी अन्य वित्तीय संस्था के पास अपना धन जमा नहीं करेंगे।

और अगर जमाकर्ताओं को एक गैर-नकारात्मक दर की पेशकश करनी है, तो बैंक अपने ऋणदाताओं को किस हद तक नीचे धकेल सकता है, उसके भी एक हद है। लेकिन यह विकसित पूंजीवादी अर्थव्यवस्थाओं में हताशा का संकेत है कि आर्थिक गतिविधियों को पुनर्जीवित करने के लिए न केवल ब्याज दरों को नीचे लाया जा रहा है बल्कि उन्हे नकारात्मक स्तर तक लाया रहा है।

ऐसी नकारात्मक ब्याज दरों की आवश्यकता पैदा नहीं होती यदि सरकारें आर्थिक गतिविधि को बढ़ाने के लिए राजकोषीय यानी  वित्तीय उपायों को अपनाती हैं, लेकिन चूंकि वैश्विक वित्त पूंजी राजकोषीय घाटे के विरोध में है (यूरोपीय संघ के देशों में राजकोषीय घाटे की सकल घरेलू उत्पाद की सीमा केवल 3 प्रतिशत है), और स्वाभाविक रूप से पूंजीपतियों पर कर लगाने के भी विरोध में है( इसलिए श्रमिकों पर कर लगाने और आय खर्च करने से कुल मांग का विस्तार करने में मदद नहीं मिलेगी), इसलिए राजकोषीय उपायों से इनकार किया जाता है। इसलिए, बाज़ार में कुल मांग को प्रोत्साहित करने के लिए मौद्रिक नीति ही एकमात्र साधन बचाता है।

इसलिए भारत भी असहाय और हताश नज़र आ रहा है क्योंकि अब तक भारतीय रिज़र्व बैंक ब्याज दर में कटौती के पाँच दौर चला चुका हैं, लेकिन इस उपाय का भी   भारतीय बाजार पर कोई असर नहीं हुआ है और आखिरकार जब सरकार ने कुछ राजकोषीय उपायों को अपनाने का फैसला किया, तो वह कोशिश केवल कॉर्पोरेट को कर में पेश रियायतों तक ही सीमित रही जो वास्तव में गैर-लाभकारी कदम है। हद तो इस बात में हो गई की कॉर्पोरेट को ये रियायतें कामकाजी लोगों पर करों का बोझ बढ़ाकर दी जा रही हें या उन्हे पैसे के हस्तातांतरण में कमी करके  इसे वित्तपोषित किया जा रहा है, वे कुल मांग बढ़ाने के बाजाय मांग को उल्टा संकुचित कर रहे हैं।

विडंबना यह है कि यूरोप और अन्य जगहों पर भी, मौद्रिक नीति साधन को पूर्ण कुंदता के साथ इस्तेमाल किया जा रहा है। यहां तक कि द फाइनेंशियल टाइम्स (14 अक्टूबर) अब वैश्विक अर्थव्यवस्था की बात कर रहा है और इसे वह "सिंक्रनाइज़ ठहराव" की अवधि बता रहा है, "कुछ देशों में कमजोर विकास और कोई विकास नहीं या दूसरों में हल्का संकुचन बताया जा रहा है"।

मौद्रिक नीति साधन की यह कुंदता इस तथ्य से उत्पन्न होती है कि कॉर्पोरेट निवेश अनिवार्य रूप से ब्याज दर-असंवेदनशील है: शुद्ध निवेश बाजार से होने वाली अपेक्षित वृद्धि या विकास के एवज़ में होता है, और यदि बाजार स्थिर रहने की उम्मीद है, तो ब्याज की कोई भी राशि कम करने की जरूरत नहीं है, और इसलिए कॉर्पोरेट क्षेत्र के लिए वित्त की लागत, शुद्ध निवेश को लाएगी।

बेशक, मौद्रिक निज़ाम यह मानता होगा कि कम ब्याज दर विभिन्न तरीके से मदद करेगी और परिसंपत्ति-मूल्य में उछाल के माध्यम से शायद मदद करेगी। इस तरह का बुलबुला, कुछ हद तक ही काम करता है और यह संबंधित संपत्ति के मालिकों को कुछ समय तक धनी महसूस करवाता है (जब तक कि वह बुलबुला फुट नहीं जाता है), यह विशिष्ट उपभोग पर बड़े व्यय को बढ़ा सकता है, और इस तरह सकल मांग को भी बढ़ा सकता है।

लेकिन यह एक जोखिम से भरा प्रस्ताव है; इसके अलावा, अगर धन के प्रभाव से विशिष्ट खपत में कुछ वृद्धि होती है तो भी इस में समय लगता है। और 2008 के बाद से वास्तविक अर्थव्यवस्था में गतिविधि के स्तर को बढ़ाने के लिए परिसंपत्ति मूल्य में उछाल लाने का रास्ता वैसे भी किसी भी मामले में आर्थिक गतिविधि बढ़ाने के अन्य तरीकों की तुलना में एक निंदनीय या बेतुका रास्ता है, और नतीजतन कल्याणकारी योजनाओं पर बड़े सरकारी खर्च ने भी अर्थव्यवस्था में तेज़ी लाने की अपनी प्रभावशीलता को खो दिया है।

इस संदर्भ में यह आश्चर्य की बात नहीं है कि तथाकथित "मुख्य आर्थिक संकेतक" अब 2006 के वसंत के बाद से अपने सबसे निचले स्तर पर हैं। इस तथ्य पर विचार करते हुए साल की अंतरिम अवधि में यानी उन वर्षों और अब के बीच, विश्व अर्थव्यवस्था में सुस्त विकास जारी है, व्यवस्था में मौजूदा ठहराव और मंदी की आशंका इस प्रणाली का एक संकटग्रस्त लक्षण हैं।

वास्तव में, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के नए प्रबंध निदेशक ने पिछले हफ्ते एक भाषण में इस तथ्य को स्वीकार किया कि "2019 में हम दुनिया के लगभग 90 प्रतिशत हिस्से में धीमी वृद्धि की उम्मीद कर रहे हैं"। चौंकाने वाली खास बात यह है कि जर्मनी जैसा देश भी, जो अब तक संकट से बचा हुआ था, अब मंदी की संभावनाओं का सामना कर रहा है।

बुर्जुआ टिप्पणीकार मौजूदा मंदी को समझाने के लिए अमेरिका और चीन के बीच चल रहे व्यापार संघर्ष जैसे विशिष्ट कारकों की तरफ इशारा कर रहे हैं। उनके अनुसार इस संघर्ष ने पूंजीपतियों की "खुशदिली" को डुबो दिया है, जिसने उनकी उत्पादक संपत्तियों में निवेश करने की उनकी इच्छा पर प्रतिकूल असर डाला है और इसलिए दुनिया मंदी का शिकार हो रही है। उदाहरण के लिए द इकोनॉमिक टाइम्स की रपट मौजूदा स्थिति को "गिरते आर्थिक आत्मविश्वास" की विशेषता बताती है।

लेकिन इस तरह के स्पष्टीकरण, जो संकट को अनिवार्य रूप से उपकथा के रूप में देखते हैं, वे संरचनात्मक होने के बजाय इस दिर्घकालिक संकट के मामले में दो महत्वपूर्ण बिंदुओं को भूल जाते हैं: पहला, 2008 के बाद से, विश्व अर्थव्यवस्था की विकास दर काफी हद तक कम हो गई है; वास्तव में, दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था यानी अमेरिका को भी फर्श पर उछलती गेंद की एनलोजी से वर्णित किया जा रहा है यानी अमेरिका भी इस संकट की गिरफ़्त में आ रहा है।

दूसरा, अमेरिका और चीन के बीच व्यापार तनाव स्वयं विश्व पूंजीवाद के संकट का प्रतिबिंब है। डोनाल्ड ट्रम्प का अमरीकी बाज़ार के प्रति आक्रामक संरक्षणवाद अमेरिका में गतिविधि के स्तर को बढ़ाने का एक साधन है, अमेरिका में आयात में वास्तविक कमी के साथ-साथ वह अन्य देशों पर अमेरिका के माल को खरीदने का दबाव डाल रहा है।

मौजूदा संकट की जड़ में ट्रम्प द्वारा पैदा की गई रुकावट नहीं है, जो चीन के साथ व्यापार युद्ध का कारण है और जिससे "आर्थिक विश्वास गिर रहा है"। यह स्वयं नवउदारवादी पूंजीवाद की प्रकृति में निहित है, जिसमें शक्तिशाली आय-असमानता की प्रवृत्ति है। विश्व अर्थव्यवस्था के साथ-साथ विशेष देशों के भीतर भी इन प्रवृत्तियों का कुल  मांग के स्तर पर एक संकुचनकारी प्रभाव पड़ता है।

अमेरिका के भीतर शक्तिशाली परिसंपत्ति-मूल्य के बुलबुले ने 2008 से पहले की अवधि को संकुचन को नियंत्रण रखने में मदद की थी। इस बुलबुले के पतन के बावजूद नवउदारवादी पूंजीवाद के भीतर मौजूद अति-उत्पादन संकट की मूल प्रवृत्ति जारी रही है।

चूंकि इस तरह का कोई भी संकट पहले उच्च लागत वाले उत्पादकों को प्रभावित करता है, इसलिए अमेरिका और यूरोज़ोन जैसे देश इसके सबसे पहले शिकार हुए थे, साथ ही पूर्व और दक्षिण एशिया के देश जिनमें आर्थिक गतिविधियों की आउटसोर्सिंग उन्नत पूंजीवादी दुनिया से हुई थी क्योंकि इन देशों में मजदूरी कम थी।

लेकिन लगातार बढ़ते आर्थिक संकट और ट्रम्प की "तेरा पड़ोसी भिखारी" की नीति ने अंततः एशियाई देशों को भी संकट में डाल दिया है, जिसके कारण अब हम वास्तव में विश्वव्यापी मंदी की ओर बढ़ने की प्रक्रिया में हैं। यह गहन वर्ग संघर्ष और शक्तिशाली सामाजिक परिवर्तनों के एक नए युग की शुरूवात करेगा।

अंग्रेजी में लिखा मूल लेख आप नीचे लिंक पर क्लिक करके पढ़ सकते हैं। 

We Are Moving Towards a Truly World-Wide Recession

World Economy
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class struggle
Income Inequalities
Neoliberal Policies
Advanced Capitalism
Capitalism in Crisis
Income Distribution

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