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भारत
राजनीति
दलित पूंजीवाद मुक्ति का मार्ग क्यों नहीं है?
दलितों की मुक्ति जाति को मिटाने की सामूहिक कार्रवाई में निहित है, इसलिए व्यक्तिगत सफलताओं और लाभ की कहानी, मुक्ति की कहानी नहीं बन सकती है।
कुशाल चौधरी
14 Aug 2021
Translated by महेश कुमार
दलित पूंजीवाद मुक्ति का मार्ग क्यों नहीं है?
Image courtesy : The Indian Express

उद्यमिता को दलितों की मुक्ति का मार्ग बताने वाले और इसके प्रसिद्ध पैरोकार चंद्रभान प्रसाद ने हाल ही में एक साक्षात्कार में स्वीकार किया कि पूंजीवाद असमानता को जन्म देता है। दलित इंडियन चैंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री (DICCI), एक ऐसा संगठन है जिसका प्रसाद समर्थन करते हैं और उसे बढ़ावा भी देते हैं, वे दलित पूंजीवाद को एक मुक्ति मार्ग के रूप में प्रस्तुत करते हैं। दलित इंडियन चैंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री (DICCI) ने 16 वर्षों तक दलित-संचालित और दलित-स्वामित्व वाले व्यवसायों का संचालन किया है। प्रसाद के अनुसार, पूंजीवाद में निहित असमानता तब खत्म हो जाएगी जब बाजार सबको समान अवसरों की "स्वतंत्रता" देगा और जिससे बाज़ार भी संतुलित रहेगा। दरअसल, ये ऐसे अवसर हैं जिनसे दलितों को वंचित रखा गया था। आज की तारीख में गतिशील और नए दलित उद्यमी मौजूद हैं और उनमें कुछ करोड़पति भी हैं।

फिर भी, दलित इंडियन चैंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री (DICCI) और पूंजीवाद के समर्थक इस बात को महसूस करने में विफल रहे हैं कि जाति की असमानता ने बाजार के भीतर भी जाति और वर्गीय भेदभाव की जगह बनाई हुई है। जाति, लिंग और वर्गीय भेदभाव की परवाह किए बिना उद्यमियों के लिए एक समान अवसर की धारणा एक मिथक है। आखिरकार, यह बाजार ही है जो दलितों को "जातिविहीन" मुख्यधारा से बाहर धकेलता है।

सफलता बनाम मुक्ति

नवउदारवादी बाजारों के समर्थक और निवेशक, धर्म, जाति, लिंग आदि से संबंधित सामाजिक पूर्वाग्रहों से प्रभावित नहीं होते हैं, क्योंकि वे "मुक्त" बाजार में काम करते हैं। दलित इंडियन चैंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री (DICCI) के अध्यक्ष मिलिंद कांबले के अनुसार, भारत में अनुसूचित जाति के स्वामित्व वाले व्यवसाय लगभग 8.7 मिलियन हैं। केंद्र सरकार ने 2016 में स्टैंड-अप इंडिया योजना शुरू की थी, जिसका उद्देश्य ज्यादातर अनुसूचित जाति, आदिवासी और महिला उद्यमियों का समर्थन करना था। हाल के सरकारी आंकड़ों के अनुसार, 16,200 से अधिक अनुसूचित जाति उद्यमियों ने योजना के लागू होने के बाद से स्टार्ट-अप कर्ज़ के रूप में 3,300 करोड़ रुपये से अधिक का कर्ज़ लिया है।

2018 में शुरू की गई एक सार्वजनिक खरीद नीति के तहत प्रत्येक केंद्रीय मंत्रालय, विभाग और सार्वजनिक क्षेत्र की इकाई को अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के उद्यमों से 4 प्रतिशत आपूर्ति की खरीद करना अनिवार्य है। ऐसी नीति उन उम्मीदवारों के लिए पूर्वनिर्धारित है जिनके पास पहले से ही निवेश के लिए अतिरिक्त निवेश योग्य धन है। इसलिए, उद्यमिता के क्षेत्र में मौजूद जातिगत भेदभाव को यह स्वीकार नहीं करता है।

सामाजिक मानवविज्ञानी डेविड मोसे, जाति के अर्थशास्त्र और बाजार अर्थव्यवस्था और आधुनिकता से इसके संबंध के विशेषज्ञ हैं वे बताते हैं कि आधुनिक बाजार अर्थव्यवस्था जाति की उपेक्षा कैसे करती है, फिर चाहे धर्म और राजनीति के प्रवचन जाति के संचालन पर आधारित हों। जाति को एक बीते युग की सामाजिक वास्तविकता माना जाता है जिसका आधुनिक बाजार में कोई स्थान नहीं है। यदि व्यापारिक लेन-देन में जातिवाद उजागर हो जाता है, तो इसे एक अवशिष्ट समस्या के रूप में माना जाता है। जबकि हम यह देखने में बुरी तरह विफल रहते हैं कि जाति एक गतिशील सामाजिक चिह्नक है जो बाजारों को चलाता है।

उदाहरण के लिए, मीडिया हमेशा दलित पूंजीवाद को गरीबी से दौलतमंद बनाने की कहानी के रूप में पेश करता है। व्यक्तिगत सफलता की कहानियों को एक बारगी न देखें तो इस बात का पता लगाने के कई कारण मिलेंगे कि दलित पूंजीवाद उस पूंजीवाद का एक उपसमूह क्यों है जिसे हम अपने चारों ओर देखते हैं। एक समालोचना में, सामाजिक वैज्ञानिक गोपाल गुरु कहते हैं कि दलित पूंजीवादी भारत के कुलीन जाति-प्रधान बाजार के विशाल वैश्वीकृत तमाशे के भीतर एक छोटा छुपा हुआ तमाशा है।

यही कारण है कि व्यक्तिगत दलित सफलता की कहानियां कभी भी बाजार, समाज या राष्ट्र के विकास पर उनके प्रभाव का वर्णन नहीं करती हैं। स्थापित अभिजात वर्ग के उद्यमी पहले से ही बाजार के नवाचारों और रचनात्मक हेराफेरी पर कब्जा किए बैठें हैं। इसके बजाय, कॉर्पोरेट क्षेत्र सफल दलित उद्यमियों के बारे में खुद की रची कहानी बताता है जो एक साइड-स्टोरी है यह साबित करने के लिए कि बाजार कितना समावेशी है। वे अंतत 'दलित' कहानियां हैं, न कि बाजार की कहानियां।

दलित सामाजिक-राजनीतिक का दम 

कारोबारी जगत दलितों के सामाजिक-राजनीतिक दावे को नजरअंदाज नहीं कर सकता। राष्ट्र भी दलित उद्यमिता का समर्थन करता है। हालांकि, इसका उद्देश्य व्यापार की नवउदारवादी शर्तों में दलितों को समायोजित करना है। व्यक्तिगत सफलताओं को और उनके व्यवसाय को इसलिए समाज में दलितों के समग्र एकीकरण के मार्कर के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। इसे पारंपरिक जाति समाज पर नवउदारवादी नीतियों की विजय के रूप में मान लिया जाता है।

दलित इंडियन चैंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री (DICCI) का मानना है कि दलित मुक्ति, पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के विकास पर टिकी हुई है, जो एक दलित पूंजीपति वर्ग का निर्माण करेगी। इस बात पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता है कि दलितों को बाजारों में और उनके द्वारा ही वंचित किया जाता है और नवउदारवादी बाजार में दलित पूंजीपतियों का अलगाव समाज में उनके पारंपरिक बहिष्कार की नकल करता नज़र आता है।

चूंकि अर्थव्यवस्था के संदर्भ में जाति को शायद ही कभी संबोधित किया जाता है, यह विचार कि दलित मुक्ति पूंजीवाद पर टिकी हुई है, राजनीतिक संघर्ष के साथ दलितों (दलित पूंजीपतियों सहित) के असंतोष को भी दर्शाती है। एक जवाबी सवाल यह भी उठता है कि अगर बाजार जाति सहित सभी समस्याओं को ठीक कर रहा है, तो दलित राजनीतिक मुक्ति की क्या उम्मीद है जो जाति को खत्म कर देगी? दरअसल, दलित पूंजीपति और दलित सर्वहारा वर्ग साथ-साथ चलते हैं। एक दूसरे को बनाते हैं जो मुक्त बाजार में भाग नहीं ले सकते हैं। जैसे-जैसे पूंजीवादी विस्तार बढ़ेगा, दलित सर्वहारा वर्ग नवउदारवादी मॉडल का अनुसरण करते हुए धनी दलितों को तैयार करने में कड़ी मेहनत करेगा। इस सब के बीच, लोगों को दलित राजनीति को नज़रअंदाज़ करने के लिए प्रोत्साहित किया जाएगा या इसे प्रत्यक्ष रूप से बढ़ते दलित पूंजीवाद के भीतर एक छोटे संघर्ष के रूप में देखने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है।

साथ ही, कई दलित व्यवसाय सरकारी ऋण और खरीद पर निर्भर रहते हैं। इसलिए, नवउदारवादी बाजारों से समर्थन के बारे में बात करना उल्टी बात है। यह मॉडल बाजारों पर हुकूमत या राष्ट्र के नियंत्रण को कम करता है, और इसलिए दलित व्यवसायों को बाजार के मामलों और जोखिमों के प्रति कम समर्थन मिलता है। हमारी अर्थव्यवस्था नवउदारवादी सुधारों और महा-निजीकरण पर टिकी हुई है, लेकिन दलित पूंजीपति और प्रसाद शायद ही कभी इस पर सवाल उठाते हैं।

बाजार की अर्थव्यवस्था में जाति पर बात करना

बाजारों के संदर्भ में जाति के बारे में बात करना एक ना-ना वाला विषय है। हालांकि, दलित उद्यमियों को जाति के आधार पर पूर्वाग्रहों का सामना करना पड़ता है, और उनका अनुभव 'साबित' करता है कि जाति न केवल आर्थिक बातचीत में मौजूद है बल्कि उन्हें परिभाषित भी करती है। स्कॉलर असीम प्रकाश का फील्ड अनुसंधान जिसमें 90 से अधिक दलित व्यवसायी शामिल हैं, बाजार में जाति के मजबूत प्रभाव को दर्शाता है जिसमें कुलीन जातियों के सदस्य हावी हैं।

प्रकाश ने अपने फील्ड सर्वे में पता लगाया कि जातिगत पूर्वाग्रह सामान्य दलित उद्यमियों (न कि बड़े दलित करोड़पति को) को शुरुवाती चरण में ही हमला करता है, खासकर तब जब उन्हें अपना व्यवसाय शुरू करने के लिए पूंजी की जरूरत होती है। और इसका मतलब है कि उन्हें पूंजी जुटाने के लिए मुट्ठी भर नेटवर्क पर निर्भर रहना पड़ता है। सरकारी बैंक जैसे औपचारिक संस्थान भी इस आधार पर ऋण देने से इनकार करते हैं कि दलित आवेदक "व्यवसाय संभालने में सक्षम नहीं हैं"।

लखनऊ में एक दलित लॉन्ड्री-मालिक प्रकाश के अनुभव की कहानी इस तथ्य पर आधारित है: “जैसे ही बैंक अधिकारी [जो उनके ऋण अनुरोध का निपटान कर रहे थे] को पता चला कि मैं धोबी कटरा में रहता हूँ, उसका व्यवहार मेरे प्रति बदल गया। उसने मुझे समझाया कि मैं एक आधुनिक कपड़े धोने का प्रबंधन नहीं कर पाऊँगा और बाजार में अपना सारा पैसा खो दूंगा। उन्होंने मुझे आगे कहा कि बेहतर होगा कि में नदी के किनारे धुलाई के साथ-साथ कपड़े इस्त्री करना जारी रखूं। उन्होंने सुझाव दिया कि मुझे अपने बेटे के लिए कपड़े इस्त्री करने के लिए एक नई रेहड़ी खरीदनी चाहिए ताकि मेरी पारिवारिक आय बढ़ सके।"

लॉन्ड्री-मालिक प्रकाश ने साक्षात्कारकर्ता से शिकायत की: "आप मुझे बताएं, अगर मेरे पिता और दादा ने गोमती के किनारे कपड़े धोए हैं, तो क्या इसका मतलब यह है कि मुझे और मेरे बेटे दोनों को भी इसी तरह कपड़े धोने होंगे? मैंने तय कर लिया था कि मैं अब नदी के किनारे कपड़े नहीं धोऊंगा और जो भी अपने कपड़े धुलवाना या स्टार्च करवाना चाहते हैं उन्हे मेरी दुकान पर आना होगा। मैं घर-घर जाकर कपड़े धोने और फिर उन्हें वापस करने के लिए नहीं जाऊंगा..."

हतोत्साहित करने वाले अन्य रूपों में एक ओर ऋण अधिकारी शामिल है, जब एक दलित चिकित्सक, जो कि एक नर्सिंग होम शुरू करना चाहता था, और कर्ज़ लेने गया तो वह अधिकारी उनसे कहता है कि आप आरक्षण की वजह से “सभी सरकारी संसाधनों का बेज़ा फायदा उठा रहे हैं"।

शुरू में किए जाने वाले भेदभाव के अलावा, दलित उद्यमियों को भी इस बात के लिए भी सावधान रहना होगा कि वे मौजूदा बनिया, पाटिल और अन्य सवर्ण जातियों से जुड़े व्यावसायिक धंधों को प्रस्तावित न करें, ऐसा किया तो वे इसे एक चुनौती के रूप में देखेंगे। वे इन जातियों के सदस्यों के साथ भागीदार हो सकते हैं, लेकिन उनके स्थापित व्यापारों/व्यवसायों के खिलाफ प्रतिस्पर्धा करना जोखिम का काम हो सकता है, क्योंकि दलित उद्यमियों के पास न तो सामाजिक नेटवर्क है और न ही स्वतंत्र रूप से मांग को पूरा करने के लिए पूंजी है।

प्रकाश नोट करते हैं कि, कई उदाहरणों में, कुलीन जातियों के सदस्यों (जो पूंजी निवेश लाते हैं) के साथ भागीदारी का अनुबंध हिंसक या भेदभावपूर्ण हो सकता है। जबकि हुकूमत दलित उद्यमियों को उनके माल के लिए एक सुनिश्चित बाजार की गारंटी दे सकती है और पूंजी जुटाने में भी मदद कर सकती है, फिर वे गैर-दलित व्यापारियों के साथ गठबंधन में प्रवेश कर जाते हैं। "कुछ मामलों में, उच्च जाति के व्यवसायी की पूंजी और सामाजिक संपर्क बड़े सरकारी अनुबंधों की मंजूरी को प्रभावित करने में सक्षम होते हैं और दलित वास्तव में एक कनिष्ठ भागीदार होने के नाते उसकी हैसियत कम हो जाती है (हालांकि कानूनी तौर पर सरकारी अनुबंध में दलित का नाम होता है)। अन्य उदाहरणों में, दलित व्यवसायी जो अपने नाम पर कानूनी रूप से आर्थिक गतिविधि चलाते हैं उन्हे कुलीन व्यवसायी पर्यवेक्षक/प्रबंधक का पद देकर उनकी हैसियत कम कर दी जाती हैं।”

इसके अलावा, कुलीन जाति के साथी आमतौर पर दलितों की मदद नहीं करते हैं, जबकि वे लगातार दूसरों के साथ काम करते हैं, उदाहरण के लिए, दलित को बाजार की उठा-पटक का सामना करना पड़ता है। इस तरह के एपिसोड इस बात की गवाही देते हैं कि "मुक्त" बाजार सामाजिक चिन्हों को वश में नहीं करता है, बल्कि उन्हें कुछ के लिए फायदे और दूसरों के लिए नुकसान पैदा करना सिखाता है। जिनके श्रम का बाजारों में शोषण होता है। 

यहां गोपाल गुरु याद दिलाते हैं, कि “दलित करोड़पति शोषण से जुड़े हैं, लेकिन विभिन्न स्तरों पर। प्रारंभ में, उनमें से कुछ स्वयं दूसरों के शोषण के शिकार हुए होते हैं। एक बार जब वे अपनी सीमित शक्ति प्राप्त कर लेते हैं, तो वे दूसरों का और अधिकांश समय अपने ही लोगों का शोषण करते हैं।" नवउदारवादी बाजार न केवल जातिवाद को कायम रखता है बल्कि भागीदारी में भी "जातिवाद को कायम रखने" को सुनिश्चित करता है।

गुरु बताते हैं कि कैसे शहरी प्रशासन और स्वच्छता प्रबंधन की सरकारी आउटसोर्सिंग ने "कचरा प्रबंधक" तैयार किए हैं। ये दलित समुदायों के ठेकेदार हैं जो कूड़ा बीनने वालों का गंभीर शोषण करते हैं। वे कहते हैं कि "दलित कचरा बीनने वालों के आस-पास अब समुदाय के भीतर और बाहर दोनों जगह शोषक हैं"।

उन साधारण दलितों का मजदूरों के रूप में शोषण किया जाता है जो पूंजीवादी बाजार को "चलाते” हैं" और सबसे कम मजदूरी पाते हैं। लाभ का तर्क जाति समाज के तर्क को नहीं बदल सकता है। इसके बजाय, यह दलितों को शोषक या शोषित की भूमिका में रखता है। इनमें से किसी भी भूमिका में कोई मुक्ति नहीं है। यह जाति को मिटाने की सामूहिक कार्रवाई में निहित है, इसलिए व्यक्तिगत सफलताओं और लाभ की कहानी, मुक्ति की कहानी नहीं बन सकती है।

लेखक भारत के पारंपरिक और आधुनिक संस्कृतियों के इतिहास में रुचि रखने वाले एक स्वतंत्र लेखक हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Why Dalit Capitalism Does Not Lead to Emancipation

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