NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
भारत
राजनीति
अंतरराष्ट्रीय
अर्थव्यवस्था
एक ख़तरनाक समझौते पर हस्ताक्षर की तैयारी  
आरसीईपी पर हस्ताक्षर का मतलब होगा और भारी मात्रा में क़र्ज़ सर पर चढ़ना जिसे वर्तमान घाटे की पूर्ति के लिए लिया जायेगा, और यह सब ज़ाहिर तौर पर देश के विनाश के लिए होगा!
प्रभात पटनायक
04 Nov 2019
RCEP agreement

24-25 अक्टूबर को, क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी (आरसीईपी) मीटिंग जिसमें 16 देश शामिल हैं और वर्तमान में जिसमें भारत भी शामिल है, के ख़िलाफ़ पूरे देश में व्यापक रूप से किसानों के विरोध प्रदर्शन जारी हैं। जैसे जैसे यह वार्ता अपनी पूर्णता के निकट आ रही है, इस तरह के विरोध प्रदर्शनों की संख्या बढ़ रही है, और आरसीईपी समझौते पर हस्ताक्षर किए जाने से ठीक पहले अखिल भारतीय किसान सभा 4 नवंबर को एक राष्ट्रव्यापी विरोध दिवस मनाने की योजना बना रही है। केरल सरकार भी अपने यहाँ एक विरोध प्रदर्शन का आयोजन कर रही है।

आरसीईपी में शामिल सोलह राष्ट्रों में कुल दस आसियान देश शामिल हैं, और छह अन्य जिनमें से प्रत्येक के साथ ASEAN के अलग-अलग मुक्त व्यापार समझौते हैं, जैसे कि जापान, चीन, दक्षिण कोरिया, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और भारत। इन सोलह देशों में दुनिया की आबादी का लगभग आधा हिस्सा निवास करता है, जिसकी दुनिया के कुल उत्पादन में 40 प्रतिशत और व्यापार में 30 प्रतिशत की भागीदारी है। अगर इस समझौते पर हस्ताक्षर हो जाते हैं तो यह इस प्रकार के सबसे बड़े समझौतों में से एक होगा। यही वे तथ्य हैं जिसने इस समझौते को और भी अधिक कलंकित कर दिया है जिसे गुप चुप तरीक़े से चलाया जा रहा है।

वास्तव में जिस अलोकतांत्रिक तरीक़े से इसकी योजनाबद्ध उत्पत्ति हुई है वह काफ़ी चौंका देने वाली है। बातचीत बेहद गोपनीय तरीक़े से की जा रही है; और यदि सरकारें सहमत हो जाती हैं तो नवंबर महीने के आरंभ में किसी भी समय, एफ़टीए पर हस्ताक्षर कर दिए जाएंगे, और एक पूर्व निर्धारित योजना को पूरा करने में सफलता मिल जाएगी। इसके बाद भारत सहित इन सभी देशों के नागरिकों का इस बात पर कोई ज़ोर नहीं रह जायेगा कि इस समझौते के चलते उन्हें भविष्य में क्या-क्या नुकसान होंगे।

भारत के मामले में, जिस बेहद अलोकतांत्रिक तरीक़े से सरकार देश को इस एफटीए समझौते की ओर घसीट रही है, उससे अलग भी एक अतिरिक्त कारक है जो इसके औचित्य पर प्रश्न खड़े करता है। संविधान की सातवीं अनुसूची के तहत, जिसमें केंद्र और राज्यों के बीच क्षेत्राधिकार के अधिकारों को स्पष्ट रूप से रेखांकित किया गया है, के अनुसार कृषि सम्बन्धित नियम राज्यों के अधिकार क्षेत्र में आते हैं। आरसीईपी, या इस तरह के किसी भी एफ़टीए, जो कृषि क्षेत्र पर ही मुख्यतया लागू होते हैं; के बावजूद राज्यों से इनकी शर्तों के बारे में कोई सलाह नहीं ली गई है। यह राज्यों के संवैधानिक अधिकारों का खुले तौर पर और मौलिक उल्लंघन है जिसमें केंद्र सरकार द्वारा राज्यों के अधिकार क्षेत्र के दायरे में घुसकर  एकतरफ़ा निर्णय लिया जा रहा है।

संयुक्त राज्य अमेरिका में, इस प्रकार के किसी भी अंतर्राष्ट्रीय समझौते पर यदि अधिकारियों द्वारा इस पर हस्ताक्षर भी कर दिए गए हों तो भी इसे लागू करने से पहले कांग्रेस की मंज़ूरी लेनी आवश्यक है; लेकिन भारत में, भले ही इस बात पर एक मज़बूत क़ानूनी राय बनी रही हो जो भारतीय संविधान में भी इस तरह के तरीक़े को अपनाने की मांग करता रहा है, लेकिन हर बार केंद्र सरकारों ने आगे बढ़कर बिना संसदीय स्वीकृति लिए ही एफ़टीए पर हस्ताक्षर किए हैं।

असल में यूपीए-2 के शासन काल में उसने भी ASEAN के साथ पूरी तरह से एकतफ़ा तौर पर एफ़टीए पर हस्ताक्षर कर दिए थे। केरल सरकार ने उस समय एफ़टीए से राज्य में तिलहन की फसल उगाने वालों पर पड़ने वाले प्रभाव पर अपनी चिंता व्यक्त की थी, और उस समय के मुख्यमंत्री वीएस अच्युतानंदन के नेतृत्व में एक आधिकारिक प्रतिनिधिमंडल उन सवालों पर केंद्र सरकार के समक्ष अपनी पक्ष रखने के लिए दिल्ली प्रस्तुत हुआ था।

उस समय के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, जिन्होंने अपने कई कैबिनेट सहयोगियों के साथ इस प्रतिनिधिमंडल से मुलाक़ात की थी और व्यक्तिगत तौर पर आश्वासन दिया था कि समझौते पर हस्ताक्षर करने से पहले केरल से परामर्श किया जाएगा। लेकिन जैसे ही प्रतिनिधिमंडल राज्य की राजधानी वापस पहुँचा, तो उसे पता लगा कि केंद्र सरकार ने एफ़टीए पर हस्ताक्षर कर दिए हैं! भाजपा सरकार, जिसे वैसे भी संघीय ढाँचे की रत्ती भर भी परवाह नहीं है, ने राज्यों के संवैधानिक अधिकारों के इस जानबूझकर उल्लंघन के नियम को सिर्फ़ और आगे बढ़ाने का काम किया है।

भले ही समझौते की ठीक-ठीक शर्तें गोपनीयता की चादर से ढक दी गई हों, लेकिन किसानों के पास इसके विरोध की वाजिब वजहें हैं क्योंकि इस प्रकार के किसी भी मुक्त व्यापार समझौते जिसके दायरे में खेती-किसानी आती है, निश्चित रूप से किसान विरोधी क़दम होंगे। ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड से सब्सिडी वाले डेयरी निर्यात की संभावना ने पहले ही भारतीय दुग्ध उत्पादकों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर रखा है; और उसी प्रकार इंडोनेशिया और मलेशिया से सस्ते खाद्य तेल के आयात की भी संभावना है जो ख़ास तौर से केरल में तेल उत्पादकों को क्षति पहुँचाने वाला साबित होगा।

सच तो यह है कि भारत-आसियान एफ़टीए समझौता पहले से ही भारत में खाद्य तेलों में इस प्रकार के निर्यात की अनुमति देता आया है, लेकिन इसमें आयात शुल्क लगाने की छूट थी, जिसे प्रस्तावित आरसीईपी के तहत लगाने की गुंजाईश नहीं के बराबर रहेगी. वास्तव में, ठीक इसी कारण से दूसरी फसलों जैसे गेंहूँ और कपास के आयात की सम्भावनाएं बेहद बढ़ गई हैं, जिसका भारतीय कृषि क्षेत्र पर भयंकर प्रभाव पड़ेगा।

चूँकि रोज़गार के मामले में देश की आधी आबादी आज भी कृषि क्षेत्र में कार्यरत है जो नवउदारतावादी नीतियों के चलते पहले से ही संकट का सामना कर रही और उस पर तुर्रा यह कि बीजेपी सरकार की नोटबंदी जैसी मूर्खतापूर्ण नीतियों के चलते इसकी स्थिति पहले से भी और गंभीर हो चुकी है, अब उसे आरसीईपी के ज़रिये अर्थव्यवस्था को और बर्बादी की कगार पर ले जाने की सम्भवनायें अबाध रूप से बढ़ गई हैं।

लेकिन बात यहीं पर ख़त्म नहीं हो जाती है। आरसीईपी के तहत कथित तौर एक आईपीआर नियम की शर्तों में यह बात निहित है कि इसके ज़रिये बिना किसी क़ानूनी कार्यवाही के भी किसानों के लिए अपने स्वयं के बीज का उपयोग अधिकाधिक प्रतिबंधित ही नहीं हो जाने वाला है बल्कि यह इसे असंभव बना देगा। अधिकाधिक पेटेंट क़ानून के लागू होते जाने से निश्चित तौर पर देश का फ़ार्मास्यूटिकल क्षेत्र प्रभावित होगा और उपभोक्ताओं के लिए दवाएं पहले से अधिक महंगी हो जाएँगी।

इस तरह की संभावनाएं आमतौर पर आरसीईपी के पक्ष में दिए जाने वाले तर्कों का खंडन करती हैं, जिसमें यह बताया जाता है कि सस्ते आयात के माध्यम से वस्तुओं के दाम में कमी आएगी और इससे उपभाक्ताओं को लाभ पहुंचेगा। इसके अलावा, ऐसे ही मिलते जुलते तर्क भारत के औपनिवेशिक शासन द्वारा उस दौर में भारत में ग़ैर-औद्योगिकीकरण के औचित्य को साबित करने के लिए भी दिए गए थे। उस दौर में मशीनों द्वारा निर्मित सामानों के आयात से भारी संख्या में बेरोज़गारी और भुखमरी में बढ़ोत्तरी हुई थी, उस समय भी यही तर्क दिया गया था कि किस प्रकार इन सस्ते आयात के द्वारा इन वस्तुओं के उपभोग करने वालों के जीवन स्तर में सुधार आया है।

लेकिन यह सिर्फ़ इस बात पर ज़ोर देने का सवाल नहीं है कि सस्ते आयात के कारण भारी मात्रा में बेरोज़गारी बढ़ेगी और देश की दुर्दशा होगी, इसके ख़िलाफ़ इस प्रकार के असंगत तथ्य पेश किये जाएँ कि इस प्रकार के सस्ते आयात से कुछ लोगों के जीवन स्तर को ऊँचा उठाने में मदद मिलेगीI यहां पर एक और सूक्ष्म बिंदु शामिल है, जिस पर ग़ौर किया जाना चाहिए।

सस्ते आयात के ज़रिये पहले से बर्बाद किसान समुदाय के बीच पहले से ही मौजूदा खेतिहर श्रमिकों की संख्या में इज़ाफ़ा होगा जो उनके उचित मज़दूरी की लड़ाई के सवाल पर प्रतिकूल असर डालेगा, और जिसके चलते उनकी मज़दूरी में और गिरावट देखने को मिलेगी। इसके अलावा, किसानों और अन्य मेहनतकश वर्गों की कम आय के गुणात्मक असर के चलते पहले से ही मंदी के चपेट में फँसी हमारी अर्थव्यवस्था और तेज़ी से नीचे की ओर गिरेगी।

वे लोग जिन्हें सस्ते आयात से जीवन स्तर में सुधार की सम्भावना नज़र आती है, वे ऐसे लोग होने चाहिए जिनकी आय में किसानों की बर्बादी से कोई असर न पड़ता हो। लेकिन यदि किसानों की बर्बादी का असर सारी अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाला है तो शायद ही कोई मेहनतकश इन्सान होगा जिसकी आय पर इसके द्वारा फ़र्क़ नहीं पड़ेगा। दूसरे शब्दों में कहें तो किसान की क़िस्मत के साथ बड़े पैमाने पर अन्य लोगों की क़िस्मत जुडी हुई है, और उसकी बर्बादी समाज के व्यापक वर्ग को प्रभावित करेगी।

यह सच है, कि इस तथ्य को किसी ख़ास परिस्थितिवश कुछ अन्य परिघटनाओं के ज़रिये गोपनीय रखा जा सकता है, जैसे कि परिसंपत्ति-मूल्य के बुलबुले द्वारा अर्थव्यवस्था में उछाल प्रदान करने के ज़रिये इत्यादि। वास्तव में यह अभी तक गोपनीय ही बना हुआ है क्योंकि मध्य वर्ग पर कृषि संकट ने शायद ही कोई असर डाला हो; लेकिन वर्तमान स्थिति में जब बाज़ार में तेज़ी ग़ायब है, तो इस प्रकार के किसी गोपनीयता को बरक़रार रख पाना संभव नहीं, जिसका असर आगे होने वाले कृषि के विनाश से समाज पर अपना व्यापक असर न छोड़े, इस प्रकार अब एक बेहद छोटा हिस्सा ही बचता है  जिसे इस सस्ते आयात से लाभ मिलने वाला है।

आरसीईपी से न केवल कृषि क्षेत्र प्रभावित होने जा रहा है, बल्कि भारत में पूर्वी एशिया से आयात की बाढ़ के ज़रिये विनिर्माण के क्षेत्र पर भी इसका प्रभाव पड़ने वाला है। इसमें लौह और इस्पात, समुद्री उत्पाद, रासायनिक उत्पाद, इलेक्ट्रॉनिक उत्पाद और यहां तक कि टेक्सटाइल जैसे क्षेत्र शामिल हैं जो आरसीईपी के तहत शुल्क में होने जा रही कटौती से पड़ने वाले असर से परेशान हैं।

लेकिन फिर भी  कुछ लोग कह ही सकते हैं कि अगर भारत इन सभी क्षेत्रों में इतना अयोग्य ही साबित हुआ है तो क्या यह बेहतर नहीं होगा कि इन सभी अक्षम इकाइयों को बंद कर दिया जाए? यह प्रश्न हालांकि अर्थशास्त्र की समझ की कमी को धुंधला कर देता है। यदि किसी समाज में किसी वस्तु का उत्पादन होता है, चाहे  संसाधनों के संदर्भ में वह कितने भी "महंगे" क्यों न हों,  लेकिन उन सभी का उपयोग यदि समाज द्वारा किया जाता है, तो इसके ज़रिये भारी संख्या में रोज़गार बढ़ेंगे और उसके अंदर ही उन वस्तुओं का उपभोग करना सम्भव बना दिया जायेगा।

लेकिन अगर उसी समाज में लोग देश के भीतर उत्पादित वस्तुओं के अलावा बाहर से भी दूसरी वस्तुओं की मांग करते हैं, तो इससे न सिर्फ़ रोज़गार और उत्पादन में गिरावट आएगी (जब तक कि निर्यात के ज़रिये उतने ही मूल्य की राशि की भरपाई न हो जाए), या न सिर्फ़ स्वदेश में निर्मित माल के उपभोग में कमी आएगी बल्कि किसी भी प्रकार के पुनर्निर्माण की संभावनाओं पर ताला लग जायेगा। दूसरे शब्दों में कहें तो “मुक्त व्यापार” और “दक्षता” जैसे तर्क बुर्जुआ अर्थशास्त्र की शुद्ध वैचारिक विरासत हैं, जिसकी कोई वैधता नहीं है और इन्हें हम जितनी जल्दी भूल जाएँ उतना ही बेहतर होगा।

अभी तक हमने केवल आरसीईपी के ज़रिये बेरोज़गारी को बढ़ाने वाले विनाशकारी प्रभाव को ही चिन्हित किया है। जबकि वास्तविकता में इस तरह के विनाश के साथ ही देश के चालू वित्त घाटे का विस्तार भी होगा (जो कि वास्तव में इस विनाश का प्रतिबिंब है)। इंडो-आसियान एफ़टीए ने पहले से ही आसियान ब्लॉक के साथ हमारे मौजूदा घाटे को बढ़ाकर रख दिया है; और आरसीईपी के तहत यह और बढ़ेगा, जैसा कि चीन के साथ हमारा घाटा बढ़ा है जो और अधिक बढ़ेगा। संक्षेप में कहें तो आरसीईपी पर हस्ताक्षर करने का मतलब है कि और भारी क़र्ज़ के बोझ में डूबकर विशुद्ध रूप से देश के विनाश को न्योता देना (व्यापक मौजूदा घाटे के भुगतान के लिए)!

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आपने नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

A Dangerous Agreement to Sign

RCEP
Free Trade Agreements
RCEP Negotiations
Narendra Modi Government
Protest of RCEP
Current deficit
ASEAN

Related Stories

देश में कोरोना ने फिर पकड़ी रफ़्तार, PM मोदी आज मुख्यमंत्रियों संग लेंगे बैठक

क्या एफटीए की मौजूदा होड़ दर्शाती है कि भारतीय अर्थव्यवस्था परिपक्व हो चली है?

म्यांमार के प्रति भारतीय विदेश नीति अब भी अस्पष्ट बनी हुई है

रेलवे के निजीकरण के ख़िलाफ़ रेल कर्मियों का राष्ट्रव्यापी प्रदर्शन कल!

सीएए : एक और केंद्रीय अधिसूचना द्वारा संविधान का फिर से उल्लंघन

वैक्सीन युद्ध, आसियान और क्वॉड

पत्रकार मनदीप पुनिया ने किया गिरफ़्तारी के बाद का घटनाक्रम बयां

दिल्ली : मनदीप को 14 दिन कि न्यायिक हिरासत, रिहाई की मांग को लेकर दिल्ली में पत्रकारों का प्रदर्शन

दिल्ली : स्वतंत्र पत्रकार मनदीप की रिहाई की मांग को लेकर पत्रकारों ने छेड़ा अभियान

मोदी जी के नाम खुली चिट्ठी : केरल के बारे में कुछ नहीं जानते आप!


बाकी खबरें

  • sedition
    भाषा
    सुप्रीम कोर्ट ने राजद्रोह मामलों की कार्यवाही पर लगाई रोक, नई FIR दर्ज नहीं करने का आदेश
    11 May 2022
    पीठ ने कहा कि राजद्रोह के आरोप से संबंधित सभी लंबित मामले, अपील और कार्यवाही को स्थगित रखा जाना चाहिए। अदालतों द्वारा आरोपियों को दी गई राहत जारी रहेगी। उसने आगे कहा कि प्रावधान की वैधता को चुनौती…
  • बिहार मिड-डे-मीलः सरकार का सुधार केवल काग़ज़ों पर, हक़ से महरूम ग़रीब बच्चे
    एम.ओबैद
    बिहार मिड-डे-मीलः सरकार का सुधार केवल काग़ज़ों पर, हक़ से महरूम ग़रीब बच्चे
    11 May 2022
    "ख़ासकर बिहार में बड़ी संख्या में वैसे बच्चे जाते हैं जिनके घरों में खाना उपलब्ध नहीं होता है। उनके लिए कम से कम एक वक्त के खाने का स्कूल ही आसरा है। लेकिन उन्हें ये भी न मिलना बिहार सरकार की विफलता…
  • मार्को फ़र्नांडीज़
    लैटिन अमेरिका को क्यों एक नई विश्व व्यवस्था की ज़रूरत है?
    11 May 2022
    दुनिया यूक्रेन में युद्ध का अंत देखना चाहती है। हालाँकि, नाटो देश यूक्रेन को हथियारों की खेप बढ़ाकर युद्ध को लम्बा खींचना चाहते हैं और इस घोषणा के साथ कि वे "रूस को कमजोर" बनाना चाहते हैं। यूक्रेन
  • assad
    एम. के. भद्रकुमार
    असद ने फिर सीरिया के ईरान से रिश्तों की नई शुरुआत की
    11 May 2022
    राष्ट्रपति बशर अल-असद का यह तेहरान दौरा इस बात का संकेत है कि ईरान, सीरिया की भविष्य की रणनीति का मुख्य आधार बना हुआ है।
  • रवि शंकर दुबे
    इप्टा की सांस्कृतिक यात्रा यूपी में: कबीर और भारतेंदु से लेकर बिस्मिल्लाह तक के आंगन से इकट्ठा की मिट्टी
    11 May 2022
    इप्टा की ढाई आखर प्रेम की सांस्कृतिक यात्रा उत्तर प्रदेश पहुंच चुकी है। प्रदेश के अलग-अलग शहरों में गीतों, नाटकों और सांस्कृतिक कार्यक्रमों का मंचन किया जा रहा है।
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License