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पानी के बिना विकास की सारी बातें बेमानी हैं!
75 फीसदी भारतीयों के पास पीने का साफ पानी उपलब्ध नहीं है। हर साल तकरीबन 2 लाख लोगों की मौत पानी की कमी की वजह से हो जाती है। यानी हर दिन तकरीबन 548 मौतें।
अजय कुमार
07 Jun 2019
Water Crisis
फोटो साभार: indiatoday

जिस तरह के मौजूदा हालात हैं, उससे यह साफ़ है कि आने वाले सालों में पानी पर जमकर लड़ाई होने वाली है। कहने का मतलब यह है कि पानी, जिसकी सबको जरूरत है, जो सबके लिए उपलब्ध था, उसकी व्यवस्था कर पाने में हम नाकामयाब रहे हैं। यह हमारी नाकामयाबी से ज्यादा उन संस्थाओं की नाकामयाबी है, जिन्हें इस सब पर नियंत्रण करने की जिम्मेदारी सौंपी गयी थी। यानी लोकतांत्रिक सरकारें जनता और प्रकृति के बीच तालमेल बैठाने में पूरी तरह असफल रही हैं।

वर्तमान में तथ्य यह है कि तकरीबन 60 करोड़ भारतीय पानी की कमी का सामना कर रहे हैं। 75 फीसदी भारतीयों के पास पीने का साफ पानी उपलब्ध नहीं है। हर साल तकरीबन 2 लाख लोगों की मौत पानी की कमी की वजह से हो जाती है। यानी हर दिन तकरीबन 548 मौतें। पिछले केवल एक साल में तकरीबन 21 शहरों का भूमिगत जलस्तर हद से अधिक नीचे चला गया है। साल2030 तक पानी की मांग पानी की उपलब्धता से दो गुनी अधिक हो जाएगी। इन सारे आंकड़ों का इशारा साफ़ है कि अभी तक की भारतीय सरकारें पानी और जनता के बीच तालमेल बिठाने में पूरी तरह असफल रही हैं। या यूँ कहें कि सरकारों ने पर्यावरण के साथ इतना गैरजिम्मेदाराना व्यवहार किया है कि हालात बद से बदतर हो चले हैं।  

यह साल पानी के संकट के लिहाज से इस दशक का सबसे खराब साल है। अगर इसे हम एक उदाहरण के जरिये समझें तो देश के दक्षिण सिरे पर मौजूद चेन्नई की तरफ चलते हैं। चेन्नई में छह झील हुआ करती थीं। आज सारी झीलों में पानी बहुत कम हो गया है। चेन्नई के जलाशयों का पानी बहुत कम हो चुका है। पीने का पानी पाने के लिए लोगों तकलीफ हो रही है। इस शहर को प्रति दिन तकरीबन 800 मिलियन लीटर पानी की जरूरत हैं लेकिन उपलब्धता 550 मिलियन लीटर पानी की होती है। ऐसी हालत में यह तय है कि चेन्नई की आबादी का एक बड़ा तबका बिना पानी के रह रहा है। इसमें भी सबसे परेशान गरीब लोग होते हैं। दिन में एक परिवार को केवल छह बाल्टी पानी लेने की इजाजत है। आपर्टमेंट वाले इलाके में तो पानी का पूरा जुगाड़ प्राइवेट वाटर टैंकर से हो रहा है। अपार्टमेंट वाले इलाके में तो यह सोचकर सिहरन भी होती है कि पानी की कमी की वजह से 20 मंजिल पर रहने वाले लोग लिफ्ट न चलने की स्थिति में कितने परेशान होते होंगे। एक परिवार का पानी खरीदने का महीने भर का  खर्चा तकरीबन 3000  रुपये  तक चला जाता है।

इसे अगर गरीबी रेखा की परिभाषा से जुड़े तो स्थिति और भयावह दिखती है। एक व्यक्ति अगर शहरी इलाके में महीने में 1410 रूपये से अधिक कमाता है तो गरीबी रेखा से ऊपर है। कहने का मतलब यह है कि आने वाले दिनों में गरीबी रेखा की सीमा से ऐसा भी पता लगेगा कि एक व्यक्ति महीने भर की पानी की खरीददारी भी नहीं कर पा रहा है। चेन्नई में किसी तरह की सदानीरा नदी नहीं है, इसलिए पिछले कुछ सालों से चेन्नई को गर्मी के महीने में बहुत अधिक परेशानी झेलनी पड़ रही है। आने वाले दिनों में यह और अधिक भयावह होने वाला है। सदानीरा नदी की कमी के बावजूद चेन्नई की झीलों और जलाशयों के कैचमेंट एरिया में मानवीय बसावट और व्यावसायिक उद्देश्यों से बिल्डिंगें खड़ी कर दी जाती हैं। जिसका मतलब है कि सरकार का इस भयावह संकट की तरफ सालों से गैर जिम्मेदाराना रवैया चलता आ रहा है। जिसका नुकसान चेन्नई की आबादी इस समय सहन कर रही है और आने वाले दिनों में भी बहुत अधिक सहन करेगी।  

इससे बदतर हालत महाराष्ट्र के कई इलाको की है। यहां के कई इलाकों में तो एक बाल्टी पानी के लिए कई-कई मीलों तक चलना पड़ रहा है। इन इलाकों से आयी रिपोर्टों को पढ़ लिया जाए तो इस समय की हमारी जीवन शैली पर शंर्मिन्दगी महसूस होने लगे।

मार्च, 2019 की ड्राउट अर्ली वार्निंग सिस्टम से मिली जानकारी के तहत भारत का 42 फीसदी इलाका इस समय सूखे से जूझ रहा है। इसमें से तकरीबन 6 फीसदी इलाके की स्थिति बहुत अधिक खतरनाक हो चुकी है। आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, राजस्थान, महाराष्ट्र,झारखंड, बिहार, गुजरात और उत्तर पूर्व के कुछ इलाके इस समय सूखे की चपेट में हैं।

इन राज्यों में भारत की कुल आबादी की तकरीबन चालीस फीसदी आबादी रहती है। जबकि केंद्र सरकार ने अभी तक कहीं भी सूखे की घोषणा नहीं की है, वहीं पर आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक, ओडिशा, राजस्थान की सरकारों ने अपने यहां के कई जिलों में सूखे की घोषणा कर दी है। मानसून का महीना तो अब शुरू हो रहा है। जबकि सूखे की चपेट से यह सारे इलाके तकरीबन दस महीने से पीड़ित हैं।  इन इलाकों में मानसून की वजह से बहुत कम बारिश हो रही है और आगे भी बहुत कम बारिश होने के आसार हैं। यहां के जलाशयों में  पानी का स्तर कम हो गया है और भूजल स्तर भी कम होते जा रहा है।  

पर्यावरणविद अरुण कृष्णमूर्ति कहतें हैं कि पानी का संकट शहरी लोगों के घमंड और लापरवाही से भी पैदा होता है। इनका यह सोचना कि इनके पास पैसा है इसलिए यह सब खरीद लेंगे, इन्हें एक दिन पूरी तरह से बर्बाद कर देगा। संकट के इस मौजूदा समय में जितना हम पानी का इस्तेमाल करते हैं, उससे कहीं ज्यादा हम सामन्य दिनों में पानी खर्च कर देते हैं। कहने का मतलब यह है कि पानी पर हमारा नियंत्रण बहुत बुरा है। चेन्नई में साल 2015 में सबसे अधिक बारिश हुई, साल 2017 से सूखा पड़ना शुरू हुआ और यह सूखा 140 सालों में सबसे लम्बे दौर तक रहने वाला सूखा है। यह कैसे संभव है? हम जिस तरह की बुरी शहरी प्लानिंग में हम जी रहे  हैं और जिस तरह की बुरी जनभागीदारी वाली स्थिति में पहुँच रहे हैं, उसकी वजह से हम बहुत बड़े खतरे की खाई में गिरेंगे , जिससे बाहर निकलना शायद हमारे लिए बहुत मुश्किल हो। 

इस विषय पर पर्यावरणविद विमलेन्दु झा कहते हैं कि पानी का संकट पूरी तरह से सरकार द्वारा पैदा किया हुआ संकट है। उसके द्वारा पानी का कोई प्रबंधन नहीं किया गया और पानी के प्रबंधन के नाम पर उसके द्वारा जो किया जा रहा है, वह पूरी तरह से लूट और लापरवाही का करखाना है। यहां पर तीन बातें समझने वाली हैं - पहला, पिछले दस-बीस सालों से पानी के नाम पर चल रही पानी की समानांतर अर्थव्यथा जैसे वाटर टैंकर, शहरों में मिलने वाले बोतल बंद पानी से इस पानी के संकट ने जोर पकड़ा है,दूसरा -  सूखे और पानी की कमी की वजह से सबसे अधिक गरीब तबका प्रभावित होता है। अमीर और गरीब के बीच की दीवार इतनी बड़ी है कि हमारी मीडिया और आम जनमानस में खरीद बिक्री की तरह चल रहे मनोरंजक विमर्श का पानी जैसे संकटों से कोई जुड़ाव नहीं हो पाता, तीसरा- इस समय भारत के तकरीबन आधे से अधिक हिस्से सूखे के हालत से जूझ रहे हैं और इससे जूझने की कार्रवाई तो छोड़ दीजिये, इस पर किसी तरह का शोर सुनाई नहीं दे रहा है। 

आजादी के समय एक व्यक्ति के लिए 6042 घन मीटर पानी की उपलब्धता थी, यह कम होकर साल 2018  में 1355 घनमीटर तक पहुँच चुका है। यानी भारत की आबादी में आज़ादी के बाद 5 गुना बढ़ोतरी हुई और पानी की उपलब्धता में 5 गुना कमी। दुनिया के16 फीसदी लोग भारत में रहते हैं लेकिन केवल चार फीसदी लोगों को पीने के लिए साफ़ पानी मिल पाता है। 70 फीसदी लोग अब भी गंदे पानी का सेवन करते हैं। भारत के दस राज्य ऐसे हैं, जहाँ आने वाले दिनों में पानी की भयंकर कमी हो सकती है। भारत के92 जिलें पानी की कमी से हर वक्त जूझते रहते हैं। 80 फीसदी खेती जमीन से पानी निकालकर होने वाली सीधे सिंचाई से होती है। तकरीबन आठ फीसदी खेती ड्रिप और स्प्रिंकल इरिगेशन से होती है। अगर पूरी खेती के लिए ड्रिप और स्प्रिकल मेथड का इस्तेमाल किया जाए तो पानी की खपत में चालीस से साठ फीसदी की कमी लायी जा सकती है।

लेकिन इस पर सरकारों का कहना होता है कि उनके पास पैसा नहीं है। जबकि साठ हजार करोड़ रुपये खर्च कर वह चुनाव लड़ती है, अगर इस खर्च को थोड़ा कम करने की कोशिश करे तो पानी की बदहाली को रोकने में उनका बड़ा योगदान हो सकता है। इसके साथ सीमेंट की सड़कें और बिल्डिंगे बनाने में पानी का बहुत इस्तेमाल होता है। अगर इंजीनियरिंग के सहारे होने वाला विकास पर्यवारण को एक संसाधन के तौर पर न मनाकर एक जीवन के रूप में  मानकर काम करने की सोचे तो अपने कदम उस तरफ बढ़ाने की कोशिश करेगा,जहां से पानी और विकास के बीच तालमेल बैठ सके।  

नेताओं, नौकरशाहों और धनिकों के गठजोड़ से एक ऐसा माहौल बनता है, जिसमें उन संसाधनों की तरफ हमारा बिल्कुल भी ध्यान नहीं जाता है जो हमें मुफ्त में मिल जाते है। इसलिए प्रकृति और पर्यावरण पर ध्यान दिए बिना तेज गति से शहरीकरण करके विकास करने के मॉडल और पानी के संकट से उबरने के बीच कहीं कोई तालमेल नहीं दीखता है। विकास के ऐसे मॉडल से दिखता है कि हम पानी बचाने की तरफ पानी को बर्बाद करने की तरफ बढ़ रहे हैं।  

इस परेशानी की असली जिम्मेदार हम हैं, हमारी सरकारें है, वह तंत्र है जो क्रोनी सरकार और क्रोनी सिस्टम को बढ़ावा देता है। इसलिए इससे निजात पाने के लिए हम यह नहीं कह सकते हैं कि केवल पानी उपलब्धता से जुड़ी बातों पर ध्यान दिया जाए तो सब ठीक हो जाएगा। इससे छुटकारा पाने के लिए जरूरी है कि पर्यावरण हमारे सभी मुद्दों का हमसफर बने। हम रोजगार की बात करते हुए केवल रोजगार पर सोचेंगे और विकास की बात करते हुए केवल उपभोक्तवादी सुविधाओं पर सोचेंगे तो इससे कभी बाहर निकलकर नहीं आ पाएंगे।  यह बात साफ़ है कि एक मेट्रो और शानदार आपर्टमेंट में रहना हमारे लिए जरूरी है लेकिन तभी जब हमारे पास साफ़ हवा और पानी हो। जब तक इन दोनों के बीच तालमेल नहीं बैठेगा, तब सब पानी की तरह पानी है।

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