NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
भारत
अंतरराष्ट्रीय
आप्रवासियों का फीफा फुटबॉल विश्वकप
यह अब तक का सर्वाधिक आप्रवासी खिलाड़ियों वाला विश्व कप है I
बादल सरोज
16 Jul 2018
fifa

कभी पेले ने कहा था कि इस शताब्दी के अंत तक कोई अफ्रीकी देश फुटबॉल विश्वकप जीतकर जाएगा । उनका कहा उस तरह तो नही किंतु कुछ इस तरह सच हुआ कि सेमीफाइनल में भिड़ी चारों टीमों में अफ्रीका और आप्रवासी खिलाड़ियों की चकाचौंध दिखी । यह कहना ठीक नही है कि फीफा 2018 यूरोप का हो कर रह गया । यह अफ्रीका का विश्वकप था । सही मायनों में तो पिछले विश्वकप का शकीरा का थीम सांग "दिस टाइम इट्स अफ्रीका" असल मे इस विश्वकप का विजय गान है ।

पहली, दूसरी और तीसरी टीमों को ही ले लें तो इन टीमो की बनावट क्या है ?

फ्रांस की टीम के 78.3% खिलाड़ी (23 में से 14) का मूल 11 अफ्रीकी देश हैं । उसकी सबसे बड़ी ताकत 19 साल के एमबाप्पे हैं । जिनमें एक नए पेले को देखा जा रहा है । वे कैमरूनी पिता और अलजीरियन माँ की संतान हैं । फाइनल में पहुंचाने वाला गोल दागने वाले उमतीति भी अफ्रीकी हैं । फाइनल में गोल करने वाले पॉल पोग्बा का मूल गायना है । क्रोएशिया की टीम की जान और इस विश्व कप की श्रेष्ठतम मिडफील्डर जोड़ी रेकिटिक और कोवासी मूलरूप से क्रमशः स्विट्ज़रलैंड और ऑस्ट्रिया के है ।

तीसरी जगह के लिए भिड़ी इंग्लैंड के 23 में से 11 और बेल्जियम की टीमों में करीब आधे (47.8%) खिलाड़ी अफ्रीकी मूल के हैं । बेल्जियम की जीत में जिन रोमेलु लुकाकु और विंसेंट कोम्पानी का पसीना और गोल जुड़े हैं वे कांगो मूल के हैं । यहां जर्मनी इत्यादि बाकी टीम्स का जिक्र नही कर रहे हैं ।

राष्ट्रीय गौरव की धजा दुनिया भर में फ़हराने वाले इन आप्रवासी खिलाड़ियों का महेरी में साझे खीर में न्यारे मार्का दर्द बेल्जियम के हीरो लुकाकु अपने ब्लॉग में लिख चुके हैं । उन्होंने लिखा कि "जब मैं अच्छा खेलता हूँ तो मुझे बेल्जियन स्ट्राइकर कहा जाता है, जब कभी ठीक नही खेल पाता तो मेरा परिचय कांगो मूल के बेल्जियम खिलाड़ी का रह जाता है ।

यह सच आज जोर से दोहराना जरूरी है । क्योंकि इन्ही देशों के कुछ नेता अपने देश के आप्रवासियों के खिलाफ जहरीली मुहिम छेड़े हुए हैं । हिन्दुस्तान की तरह ये देश भी कारपोरेट की गोद मे बैठी नव-नाजीवादी, फासिस्टी, रंगभेदवादी, नस्लवादी संकीर्ण राजनीति और ओछे ठगों की चपेट में हैं । इनकी फैलाई नफरत के चलते ये आप्रवासी अपने ही देशों में उन्मादी हिंसा के शिकार हैं । जबकि ज्यादातर मामलों में होना इसके उलट चाहिए । जो खेल की सुविधाओ और अवसरों को देखकर यूरोपीय देश मे आये उन्हें छोड़ दें तो बाकी सभी खिलाड़ी उन अफ्रीकी देशों के हैं जिन्हें इन यूरोपीय देशों ने सदियों तक गुलाम बना कर रखा । उनकी सम्पदा और श्रम की चोरी कर अपने देशों को जगमगाया । कायदे से तो इन देशों के आभिजात्य गोरे नस्लवादियों को इनका ऋणी होना चाहिये । मगर वे चाहते है कि पॉन्डिचेरी (असल नाम पुदुच्चेरी) की ले.गवर्नर किरण बेदी की तरह ये भी गुलाम मानसिकता का परिचय दें और दास भाव से रहें ।

फीफा के चमचमाते स्टेडियम्स, होटल, सड़कों, वाशरूम्स, खिलाड़ियों और दर्शकों की देखरेख जैसे अनदिखे कामों के पीछे भी आप्रवासी मजदूरों का श्रम है । इनमे विराट बहुमत उनका है जो यूंही यहां वहां काम करते भटक रहे हैं । फीफा कुछ हजार करोड़ कमाएगा, मेजबान रूस भी भारी कमाई करने वाला है । मगर इस मुनाफे को उजाला देने वालों  में रूसी मजदूरों की बजाय यदि आप्रवासी मजदूरों का प्रतिशत 80-85 है तो सिर्फ इसलिए कि वे शोषण के आसान शिकार हैं  । उन्हें न न्यूनतम वेतन देना पड़ता है, न किसी जोखिम से बचाव की गारंटी ।

अपने ही देश मे यह सब होते देख लेनिन जरूर अपने मुसोलियम में करवट बदल रहे होंगे । साम्राज्यवादी पूंजी के इस नए रूप से अपनी कालजयी कृति "साम्राज्यवाद पूंजीवाद की चरम अवस्था" को और अपनी बोल्शेविक पार्टी के लिए "क्या करें ?" को अपडेट करने की कोशिश कर रहे होंगे ।

इसीलिये 15 जुलाई की शाम जब फीफा फाइनल देख रहे थे तो रोशनी की चमचमाहट से चमत्कृत होने के वक़्त इनमे जल रहे तेल और बाती के बारे में भी सोच रहे थे । याद आ रहा यह कड़वा सच कि इस पूँजी के दलदली निज़ाम में हर उजाले के नीचे करोड़ों अंधेरे दफ़न हैं ।

 

 

फीफा वर्ल्ड कप
फीफा
लेनिन
आप्रवासी
Fifa Workers

Related Stories

फीफा विश्व कप, बड़े उद्योगों के सौजन्य से

अब, हरिद्वार, उत्तराखंड में भी अम्बेडकर की प्रतिमा को क्षतिग्रस्त किया गया

"बीजेपी-RSS त्रिपुरा की एक तिहाई जनता पर हमला कर रही है "

लेनिन की सिर्फ मूर्ति टूटी है, उनके विचार नहीं

कैसे ऑनलाइन खरीदें फीफा अंडर 17 वर्ल्ड कप का टिकट


बाकी खबरें

  • Modi
    अनिल जैन
    ख़बरों के आगे-पीछे: गुजरात में मोदी के चुनावी प्रचार से लेकर यूपी में मायावती-भाजपा की दोस्ती पर..
    03 Apr 2022
    हर हफ़्ते की तरह इस बार भी कुछ ज़रूरी राजनीतिक ख़बरों को लेकर हाज़िर हैं लेखक अनिल जैन
  • न्यूज़क्लिक डेस्क
    इतवार की कविता : आग़ा हश्र कश्मीरी की दो ग़ज़लें
    03 Apr 2022
    3 अप्रैल 1879 में जन्मे उर्दू शायर, अफ़सानानिगार और प्लेराइट आग़ा हश्र कश्मीरी की जयंती पर पढ़िये उनकी दो ग़ज़लें...
  • april fools
    डॉ. द्रोण कुमार शर्मा
    एप्रिल फूल बनाया, हमको गुस्सा नहीं आया
    03 Apr 2022
    अभी परसों ही एक अप्रैल गुजरा है। एप्रिल फूल बनाने का दिन। अभी कुछ साल पहले तक एक अप्रैल के दिन लोगों को बेवकूफ बनाने का काफी प्रचलन था। पर अब लगता है लोगों ने यह एक अप्रैल को फूल बनाने का चक्कर अब
  • ज़ाहिद खान
    कलाकार: ‘आप, उत्पल दत्त के बारे में कम जानते हैं’
    03 Apr 2022
    ‘‘मैं तटस्थ नहीं पक्षधर हूं और मैं राजनीतिक संघर्ष में विश्वास करता हूं। जिस दिन मैं राजनीतिक संघर्ष में हिस्सा लेना बंद कर दूंगा, मैं एक कलाकार के रूप में भी मर जाऊंगा।’’
  • hafte ki baat
    न्यूज़क्लिक टीम
    CBI क्यों बनी 'तोता', कैसे हो सकती है आजाद, CJI ने क्यों जताई चिंता
    02 Apr 2022
    दिल्ली स्पेशल पुलिस एस्टेब्लिशमेन्ट एक्ट-1946 के तहत सन् 1963 में स्थापित सीबीआई और देश की अन्य जांच एजेंसियों को क्यों सरकारी नियंत्रण से मुक्त होना चाहिए? एक सुसंगत लोकतंत्र के लिए इन संस्थाओं का…
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License